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रियल एस्टेट विधेयक, सपनों को बनाएगा हकीकत

Update: 2016-03-17 00:00 GMT

*भरतचन्द नायक
आर्थिक उदारीकरण के सुनहरे सपनों ने पलायन को पंख लगा दिये। आवासीय संकट कुछ इस तरह बढ़ा कि बे-घरों की बेबसी अभिशाप बन गयी और ऐसा तंत्र विकसित हुआ, जिसने हवेलियों के सपनों की बौछार कर दी। उच्च वर्ग तो ठीक है मध्यम और अल्प आय परिवार में अपने घर की चाह पैदा हुई और बिल्डर वर्ग का ऐसा प्रादुर्भाव हुआ कि उन्होनें इश्तहारों में विश्वस्तरीय आवासों और फाइनेंस से लेकर मकान बुक करने वालों के ऊपर चैापाये वाहनों से लेकर स्वर्ण सिक्के न्यौछावर करने का तिलिस्म पैदा कर दिया। भवन निर्माण में करतब दिखाये सो ठीक है, धोखेबाजी के किस्म-किस्म के तरीके इजाद कर मकान चाहने वालों की गांठ ढीली कर दी। वायदों पर कुर्बान हुए सौभाग्यशाली उपभोक्ता तो वैतरणी पार कर गये, परन्तु हजारों परिवार ठगी का शिकार बने। सुनवाई तो तब हो जब बिल्डरों का कुछ पंजीयन हुआ हो और आवासीय भवनों के आवंटन की कोई गाइड लाइन, वैधानिक अनुबंध, नियमन के लिए नियम कानून हों। कालाधन का प्रवाह बढ़ा, हरि इच्छा ही बेबसों का आखिरी सहारा बना। जो आवासीय क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद का एक स्तंभ बनना था, वह धोखाधड़ी का तंत्र बन गया। शिकायतों, मुकदमेबाजी का अनन्त सिलसिला ग्राहकों और प्रशासन का सिरदर्द बन गया। 'देर आयत दुरूस्त आयतÓ श्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने रियल एस्टेट विधेयक पेश कर अपनी संवेदनशीलता का सबूत राज्यसभा में पेश किया, जिसे पक्ष-विपक्ष ने सहारा देकर बेबस बेघर वाले एक बड़े वर्ग की अभिलाषा को वरदान देकर उसके मुरझाये चेहरे पर मुस्कान बिखेर दी.. शुक्र है कि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में सरकार ने रियल एस्टेट विधेयक के प्रावधानों को अधिक प्रभावी बनाने और समय सीमा में अपना घर का सपना पूरा करने के लिए इसे लोकसेवा गारंटी कानून का कवच पहना दिया है।
आजादी के बाद कालाधन सृजन जिस तेजी से हुआ, उसमें कॉलोनाइजर और बिल्डर समुदाय ने भी बहती गंगा में हाथ धोकर कोढ़ में खाज पैदा करने का काम किया, लेकिन रियल एस्टेट विधेयक के कानून बन जाने पर आशा की जाती है कि कालेधन से खेलने वालों को कालाधन सफेद करने से बाज आना पड़ेगा। क्योंकि इस कानून से उनके हाथ बंध जायेंगे। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि इस कानून में दरवाजे इस ढंग से खोल दिये गये है कि भवन निर्माण का नक्शा पास करने की सीमा 45 दिन तय कर दी गयी है। इससे अनुमति देने वालों पर अंकुश होगा, यदि पंचायत क्षेत्र में निकाय की अनुमति नहीं मिली तो अनुविभागीय अधिकारी के यहां मामले का निराकरण 60 दिन में अनुमति के साथ होना अनिवार्य होगा। सुनवाई न होने की दशा में संभागीय आयुक्त न्यायालय का दरवाजा खुला है, जहां अनुमति 30 दिन में मिलने का सख्त आदेश होगा। अनुमति की आड़ में अवैध लेन-देन गैरकानूनी था, लेकिन अब दंडनीय अपराध होगा।
इस विधेयक को जिस तरह विषम परिस्थितियों में राज्यसभा में पारित किया गया, उससे दो बातें सामने आयी हैं। पहली तो यह कि इस विधेयक को विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए अपरिहार्य समझा गया और विपक्ष देश में आर्थिक सुधारों के प्रति संवेदनशील हुआ है। आगे भी इससे आशा बंधी है। दूसरा यह विधेयक विकास में पूरक समझा गया। देश के सकल घरेलू उत्पाद में इस क्षेत्र का योगदान 9 प्रतिशत माना जा रहा है। बाजार के पूंजीवादी ढांचे में भी आवास क्षेत्र को अपरिहार्य मान लिया गया। अभी तक इसकी आवश्यकता होते हुए इसमें जिस तरह मनमानी और ठगी का आलम था, निवेशक इस क्षेत्र में कदम रखने से घबराते रहे हैं। लेकिन रियल एस्टेट कानून बनने के बाद इस क्षेत्र में मुंहमांगी निवेश की गुंजाइश बढऩे की उम्मीद है। रियल एस्टेट नियमन एवं विकास विधेयक से लक्ष्य स्पष्ट हो जायेगा कि रियलटी सेक्टर केन्द्र और राज्य सरकार की कड़ी निगरानी में होगा। नियामक एजेन्सी का गठन किया जायेगा, जो देखेगी कि मकान खरीददार और बिल्डर के बीच पारदर्शी, तर्कसंगत ढंग से लेन-देन हो। राज्य में एक रियलटी एजेन्ट रेगुलेटरी अॅथारिटी बनायी जायेगी। इसके फैसले से असंतुष्ट पार्टी के लिए ट्रिब्यूनल होगा। 60 दिन में अनिवार्य रूप से फैसला आ जायेगा। इससे दोनों पक्षों में आत्मविश्वास बढ़ेगा। भवन निर्माता को अपनी भवन निर्माण परियोजना को निबंधित करना पड़ेगा। यदि निबंधन नहीं कराया गया तो वह न तो भवन की बुकिंग कर सकेगा और न ही बेच सकेगा। इससे एजेन्ट और डीलर दोनों का पंजीयन अनिवार्य होगा। अभी तक डीलर करोड़ों, अरबों रूपए का लेन-देन बिना पंजीयन के करते चले आ रहे हैं। न तो इनकी कमाई पर अंगुली उठी और न ही सही लेन-देन का ब्यौरा पेश किया गया। कानून बनते ही निर्माता को लाजिमी होगा कि वह नियत तारीख को ग्राहक का कब्जा सौंप दे। नहीं तो उसे ब्याज भुगतना पड़ेगा। यह ब्याज भी प्रतीकात्मक नहीं, उतना होगा जितना वित्तीय संस्थाएं लेती हंै। ट्रिब्यूनल भी डेकोरेशन पीस नहीं रहेगा। उसका आदेश पत्थर की लकीर होगी। यदि नियामक एजेंसी और ट्रिब्यूनल के आदेश का अनुपालन नहीं किया गया तो सजा, दंड, अपरिहार्य होगा। बिल्डर को तीन साल के कारावास की सजा का प्रावधान होगा। यह खरीददार की सुरक्षा का अभेद कवच होगा।
इस बात में भी शक नहीं है कि इस क्षेत्र में ऊपरी लेन-देन के अनगिनत रास्ते रहे हैं। भवन निर्माण की अनुमति से लेकर तमाम एनओसी लेने में बिल्डर जूते घिसते घूमते देखे गये और इसका समाधान सिर्फ चांदी के जूते से करते देखे गये। भवनों की कीमतें बढ़ाने में बिल्डरों की इस मजबूरी को भी कभी समझा नहीं गया। लेकिन इस विधेयक में संबंधित अधिकारियों और कर्मचारियों का मर्यादित करने के नियम कानूनों की अपेक्षा अनुचित नहीं है। मध्यप्रदेश में रियल एस्टेट विधेयक को अधिक संवेदनीशल और निर्णयात्मक बनाने के लिए तुरत-फुरत जिस तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दिलचस्पी दिखाई है, उससे भी हमें भारतीय संविधान के संघवाद को महिमा मंडित किये जाने की झलक मिलती है। अन्यथा केन्द्र द्वारा लाये गये प्रावधानों की अच्छाइयों की जगह राज्यों ने छिद्रान्वेषण किया है। लेकिन रियल एस्टेट विधेयक को मध्यप्रदेश सरकार ने सचेतन और लोकोपयोगी बनाने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। इसका सबसे बड़ा कारण केन्द्र और राज्य सरकार की प्रतिबद्धता में समानता होना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2022 तक सबके सिर पर साया करने का संकल्प लिया है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी सरकारी भूखंड पर कब्जेदार को आनन-फानन में कब्जा सौंपकर पट्टा देने का व्रत ले चुके हंै। हर आवासहीन का अपना घरौंदा हो, यही शिवराज सिंह चौहान की दिवस की चिंता और रात्रि का स्वप्न है, लेकिन... !
'भगवान तो हैÓ
'करते हो तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा हैÓ यह बात न तो रोमांटिक है और न इसमें अतिरंजना समझी जाना चाहिए। भारत में आस्तिकों का तो भगवान में भरोसा है, लेकिन जिस तरह देश की अर्थव्यवस्था में खेती के बाद दूसरे नंबर का रोजगार और वित्त संचालन रियल एस्टेट सेक्टर में होता है इसका बिना किसी कायदे कानून के सकल घरेलू उत्पाद में 9 प्रतिशत योगदान है। न्यूयार्क, पेरिस और हांगकांग में घर बनाना आसान है। भारत में इससे कठिन है। इसकी बढ़ती लागत, अनिश्चित पर्यावरण और डग-डग पर नेग दस्तूर को देखते हुए यदि मुंबई में घरौंदा बनाना हो तो एक परिवार को पेट काटकर बचत कर पंूजी जुटाने में 580 साल इंतजार करना पड़ सकता है। सरकारी स्तर पर हाल और भी हैरतअंगेज है। इस सेक्टर में कमायी अकूत है। सब भाग्य पर निर्भर है। लूटत बने तो लूट का वातावरण और शगल है। सरकारी हाल यह है कि पांच साल पहले 27 नगरों में साढ़े 12 हजार परियोजनाएं सस्ते मकान के लिए आरंभ की थी। लेकिन कितनी पूरी हुई यह एक शोध का विषय है। हाउसिंग बोर्ड, विकास प्राधिकरण जैसी न जाने कितने संस्थान भी सस्ते मकान बनाने में जुट गये हैं। लेकिन इनके हितग्राहियों के सपने कब पूरे होकर हकीकत बनेंगे, किसी को नहीं पता। फिर इनके दाम बिल्डरों से भी ज्यादा क्यों आ रहे है, इसका उत्तर देना भी आसान नहीं है। रियल एस्टेट कानून बनने से सपने हकीकत में बदलेंगे यह उम्मीद तो की जा सकती है। क्योंकि बिना नियमन के जब आजादी के 67 वर्षों तक भुगता है। नया कानून राहत का जरिया तो बनेगा। बिना नियमन के इतना बड़ा क्षेत्र चलता रहा, यही साबित करता है कि भगवान है, लेकिन दरबार में सुनवाई किसकी होने का चलन है, अनुत्तरित सवाल है।

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