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क्या गुल खिलाएगी कांग्रेस और माकपा की गलबहियां

Update: 2016-03-11 00:00 GMT

कांग्रेस और माकपा में पहली बार बनी सीटों को लेकर सहमति

*प्रमोद पचौरी

आगामी पांच राज्यों में से पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और माकपा में सीटों को लेकर सहमति बन गई है। इस फैसले के बाद कांग्रेस ने अपनी 50 साल की वैचारिक लाइन से इतिश्री कर ली। वैसे तो डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग-1 सरकार ने माकपा से बाहर से समर्थन लेने में कोई गुरेज नहीं किया था लेकिन यह पहला वाकया है जब चुनाव पूर्व सीटों को लेकर इस तरह का तालमेल सधा हो। माकपा के राज्य सचिव विमान बोस ने इसकी आधिकारिक तौर पर पुष्टि की। 1964 में माकपा के अस्तित्व में आने के बाद 2016 तक आते-आते उसके वैचारिक अंत इस रूप में होगा इसकी शायद माकपा के पुरोधाओं ने भी नहीं सोचा होगा। कांग्रेस का इस तरह माकपा को गले लगाने से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आगे की राजनीति में यह शिगूफा बड़े बदलाव का संकेत है।

अब जब पश्चिम बंगाल में चुनावी बिगुल बज गया है। शोरशराबा होगा। प्रचार-प्रसार व्यापक स्तर पर होना है। विरोध, खरी-खोटी भी सुनाई जाएगी तो एक दूसरे को भी कोसने से नहींछोड़ा जाएगा। लेकिन अंदरखाने कांग्रेस और माकपा में गाइडलाइन बनी है कि एक दूसरे की रैली में भीड़ जुटाना, अप्रत्यक्ष तौर पर मदद देना लेकिन साझा प्रचार नहीं करेंगे। हालांकि केरल के समीकरण कुछ अलग तरह के हैं, वहां दोनों पार्टियों के बीच हमले बराबरी पर होंगे।

कांग्रेस और माकपा के बीच खिचड़ी तो बहुत पहले से पकने लगी थी लेकिन यह खिचड़ी बीरबल की खिचड़ी के तर्ज पर पकाई जा रही थी। जिसकी प्रयोगशाला जेएनयू बनी। यहां से ईधन मिला और खिचड़ी में डाला जाने वाला मसाला भी। दोनों दलों के लोग कह रहे हैं क्या खूब पकी है खिचड़ी? उम्मीद और अंदाजा भी लगा रहे हैं चुनावी परिणामों का। दोनों के अपने-अपने गणित हैं, इस तर्क पर कि बिहार में लालू और नीतीश जो कमाल कर गए क्या पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और माकपा क्यों नहीं कर सकते? आखिर वे भी कभी एक दूसरे के धुर विरोधी थे लेकिन वक्त ने करवट बदली। अवसरवाद पर सिद्धांत और विचारधारा सब के सब फीके पड़ गए। सो कांग्रेस और माकपा ने भी अवसरवादिता की भट्टी में डाल दिया है। बन जाएंगे तो कुंदन कहलाएंगे वरना मझधार में फंसी नाव को डूबने से भला कौन बचा पाएगा। डूबते को तिनका ही सहारा सो कन्हैया तिनका पर सवार होकर दोनों का फलसफा बनता है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का बिहार प्रयोग ही पश्चिम बंगाल में नया कलेवर लेकर आया है।

फिर सामने नहीं आ गया? उन्होंने वृंदावन अधिवेशन में युवामोर्चा को चेताया था कांग्रेस और वामपंथ के गठजोड़ को लेकर। कांग्रेस लोकतंत्र का गला घोंटती आई है जिसकी चरम परणिति इमरजेंसी थी। तो वामपंथियों ने कभी लोकतंत्र में आस्था नहीं जताई। अब हिंसा का सहारा लेकर फिर से इतिहास गढऩे की कोशिशें तेज हो चली हैं। जेएनयू प्रकरण तो बानगी थी इसका व्यापक प्रयोग अगर पंश्चिम बंगाल चुनाव में देखने को मिले, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। वामपंथियों ने लत्ते का सांप छोड़कर जेएनयू का ऐसा मुद्दा बनवाया कि जिस पर सवार होकर बड़े-बड़े सूरमा चुनाव की वैतरिणी पार करना चाहते हैं। जूएनयू के षडय़ंत्रकारी अब हीरो बनने चले हैं। राष्ट्रविरोधी नारे लगाकर, आतंकियों की करतूतों पर सहानुभूति बरसाने वाले अब यू-टर्न मार कर खुद को देशभक्त बनाने का चोला पहनने लगे हैं।

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