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अपराधों का ग्राफ गिरा, परिवारों में बेतहाशा फि जूल खर्ची पर रोक

Update: 2016-12-13 00:00 GMT

आगरा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की 8 नवम्बर की नोटबंदी  की घोषणा के बाद पहली प्रक्रिया के रूप में देश के आम ईमानदार लागों में एक उर्जा का संचार  हुआ।  ईमानदार सामान्य व्यक्ति जो कि देश में बहुसंख्यक है , उसे  ईमानदार होने पर  गर्व अनुभव हुआ। देश के राजनैतिक दल  भी हतप्रभ  थे  कि  इस पर क्या प्रतिक्रिया दी जाये।  इसीलिए राजनैतिक दलों द्वारा कई दिनों तक कुछ छुटपुट प्रतिक्रियायें ही आयीं।

  आम जनता की प्रतिक्रिया को इस नजरिये से देखा जा सकता है कि उसके खुश होने की बजह भ्रष्टाचारियों को होने वाले सम्भाबित नुकसान भी था जो इस प्रतिक्रिया में हुआ भी, क्योकि यही आम जन भ्रष्टाचारका सबसे अधिक शिकार होता है। ये सामान्य लोग हैं  नौकरीपेशा, व्यापारी, छोटा दुकानदार , मजदूर और किसान जो अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में कभी न कभी किसी न किसी के द्वारा अपना सही काम भी करने के बदले  में सुबिधा शुल्क  देने के लिए बाध्य होते रहे हैं । यही वर्ग  बच्चो की पढाई  के दौरान डोनेशन, फीस बढ़ोत्तरी,  स्कूल ड्रेस  या पढाई की पुस्तके खरीदने में  मूल्य के मामले में अपने को बेबस पाते रहे है।  ये आमजन अपनी मेहनत से की हुई कमाई को मजबूर हैं।

ये विडम्बना है कि  अब तक देश में आर्थिक अपराध को आम जनजीवन में  हेय दृदिृष्ट से नहीं देखा जाता है। कालाधन जिनके पास है बड़ी तसल्ली से वे लोंगो से अपना धन उनके बैंक खाते में जमा करवाने के लिए निरन्तर संपर्क कर रहे हैं।  कुछ लोग उस  व्यवहार  को सामान्य दैनिक व्यबहार की तरह स्वीकार या अस्वीकार कर रहे हैं। जनधन खातों में इन  दिनों जमा किये गए धन के वारे में आम सोच बन रही है कि वो काला  धन हो सकता है, किन्तु उसके खिलाफ लोंगो में ज्यादा गुस्सा नहीं दिखता बल्कि इसको   सामन्य  लेनदेन की तरह मौन स्वीकृति भी मिल रही है , क्या इस परिपेक्ष्य में हम आम जन भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात हक से कर सकते हैं। रोजाना बड़ी मात्रा में नयी और बड़ी करेंसी पूरे  देश में जब्त हो रही है। आर्थिक लेनदेन करने वाली संस्थाओं के लोंगो में अपराध की परिभाषा का ही ज्ञान नहीं है या उसे अनदेखा कर रहे हैं।
देश अब डिजिटल पेमेंट के युग की ओर आगे बढ़ रहा है, लेकिन शायद निचले तबके के लोगो की मानसिक जड़ता प्लास्टिक मनी को अपनाने  को अभी तैयार नहीं हैं  और तमाम तर्क  दिए जा रहे है कि देश  में डेबिट -क्रेडिट कार्ड कम है, इन्टरनेट  की पहुँच कम है,  लोग कम शिक्षित हैं।

 आदि इस प्रकार के तर्क देने वालों को ये मालूम होना चाहिए की देश की 65 प्रतिषत आवादी 35 वर्ष से कम आयु की है ,जो अधिकांश मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं।  देश में 90 करोड़ से ज्यादा मोबाइल हैं , जो इन्टरनेट की स्वाभाबिक पहुच में हैं। अगर आम जन की जरुरत की सारी  सूचनाये , सरकारी योजनायें मोबाइल पर उपलब्ध करने की दिशा में आगे बढ़ा  जाये तो भ्रष्टाचार में भी रोक लगेगी। भले ही पहले चरण में 60 प्रतिषत या 70 प्रतिषत तक पहुच हो जाये। गैस सब्सिडी में भ्रष्टाचार  खत्म होना इसका एक उदहारण है।  

नोट बंदी के बाद कुछ राजनीतिज्ञों , राजनितिक दलों  या उनके विचार के लोंगो का एक वर्ग  जब अपने को संभाल  कर  प्रतिक्रिया देने की  स्थिति में आया  तो कुछ आवाजे नोट बंदी का फैसला वापिस लेने  की आई लेकिन आम जनता की प्रतिक्रियाये देखकर उन्होंने अपने पैतरे बदले और  सभी ये कहने लगे कि हम नोटबंदी के खिलाफ नहीं हैं बल्कि लागू करने के तरीके के खिलाफ हैं , लोंगो को होने वाली परेशानियों के खिलाफ हैं। ये प्रधानमंत्री के नोटबंदी अभियान की जीत मानी जा सकती है।
  प्रधानमंत्री मोदी ने 8 नवम्बर को ही कहा था 50 दिन यानि 30 दिसम्बर 2016 तक समस्या हो सकती है . आम जनता ने इस बात को समझा है  और कष्ट उठा कर, कई कई घंटे बैंक की लाइन में खड़े  होकर भी अपना पूरा समर्थन प्रधानमंत्री को दिया है, लेकिन काफी आलोचक अपनी क्षमताओं  के आधार पर लिख और बोल रहे हैं  कोई कह रहा   है, कि देश में कुल कुछ  करोड़ ही  नकली नोट थे, एक ने पूरे अभियान को एक महीने में फेल बता दिया। अगर सभी लेखक और आलोचक  30 दिसम्बर तक का समय लेकर लिखते तो शायद ज्यादा तथ्य परक लेख लिखे जा सकते थे।

एक अजीब बात और महसूस की जा रही है कि हर कोई ये कह रहा है कि मैं बिलकुल भी परेशान नहीं हूं, बल्कि दूसरों की परेशानी से परेशान हूं।  नोट बंदी के बाद कश्मीर में पत्थरबाजी की घटनायों में अप्रत्याशित कमी  आयी। नक्सलवादीयों के समर्पण में अचानक बहुत तेजी आई।  क्या ये अभियान की तात्कालिक सफलता नहीं है?ऐतिहासिक रूप से ऐसे कई उदाहरण मिलते है कि अगर कोई सद्चरित व्यक्ति जो  देश और समाज को दिशा देने को आगे आता है तो जनता उसका साथ देती है , जैसे श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाने का आव्हान किया तो पूरा शहर चल दिया।  महात्मा गांधी ने जब देश को आजाद करवाने का बीड़ा उठाया तो देश उनके पीछे हो लिया , अन्ना हज्जारे का पहला आन्दोलन भी स्वत: स्फूर्त आन्दोलन बन गया।

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