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समाजवादी पार्टी 1991 की ओर बढ़ती हुई

Update: 2016-11-11 00:00 GMT

बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस से भगदड़ और समाजवादी पार्टी में निरंतर बढ़ती जा रही कलह के कारण हाशिए पर पड़ी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बढ़ती जा रही अनुकूलता का प्रभाव क्षीण करने के लिए एक एक उपाय के रूप में जहां गठबंधन का प्रयास हो रहा है वहीं दूसरी ओर मुसलमान मतदाताओं का भयदोहन का अभियान भी तेज हो गया है। एक ओर जहां बसपा सुप्रीमो मायावती अपने लिए मुसलमानों को एकजुट होने का आह्वान कर रही हैं वहीं मुलायम सिंह यादव सपा को सबसे बड़ा मुस्लिम हितैषी होने का दावा कर रहे हैं। साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए जो मुद्दे उछाले जा रहे हैं यद्यपि उनकी कोई सार्थकता नहीं है लेकिन मुस्लिम समुदाय जिस भयदोहन से प्रभावित होता रहा है, उसके लिए अनुकूलता बढ़ रही है इसमें संदेह नहीं है। उत्तर प्रदेश या देश के अन्य भागों में भी जहां जहां मुस्लिम एकजुटता प्रदर्शित हुई है, वहां वहां उसकी प्रतिक्रिया हिन्दू एकजुटता के रूप में भी होने लगी है।

प चीस वर्ष पूर्व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से विवादित जनता दल से पुन: जन्मी समाजवादी पार्टी पारिवारिक अंतर्कलह से ग्रस्त माहौल में अपना रजत जयंती मनाने के लिए इकत्रित समुदाय के समक्ष एकजुटता के प्रयास में असफल होने के कारण यह विश्वास दिलाने में समर्थ नहीं हो सकी कि वह अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में फिर से सत्ता संभाल सकेगी। देशभर से ‘‘जनता परिवार’’ के एकला चालो नेताओं की मंचीय शोभा को चचा-भतीजे को लालू प्रसाद यादव जबरन चरण स्पर्श और आशीर्वाद का दृश्य दिखाकर जो माहौल बनाना चाहते थे उसे दूसरे ही क्षण चाचा शिवपाल यादव ने यह कहकर कि जिन लोगों को विरासत में सत्ता मिलती है वे संघर्षशीलों की अवमानना कर चापलूसों का पोषण कर रहे हैं। भतीजे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को रजत जयंती समारोह के संयोजक मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति पर जिन्हें मंत्रिमंडल से निकालने के बाद दुबारा लेने पर उन्हें विवश किया गया, हाथ में थमाई गई तलवार चलाने से रोकने का आरोप लगाते हुए, अपने कदम के औचित्य को मूल्यांकन करने की चुनौती देकर, ध्वस्त कर दिया। मुलायम सिंह यादव द्वारा इस कलहपूर्ण कटुता का भले संज्ञान न लिया गया हो लेकिन लालू प्रसाद यादव ने यह कहकर कि हम यादव हैं लड़ते ही रहते हैं, महाभारत के बाद हुए यादवी संघर्ष की कथा के साथ साथ उनके और मुलायम सिंह के बीच विगत दो दशक से चली आ रही वैमनस्यता की याद को भी ताजा कर दिया।

भले ही अब सम्बन्धी होने के कारण लालू यादव ने घोषणा कर दी हो कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में चुनाव न लडक़र समाजवादी पार्टी को समर्थन करेगी लेकिन हकीकत यह है कि 1989 से लेकर जब मुलायम सिंह बिहार जनता दल के नेता पद के चुनाव में लालू यादव को हराने का असफल प्रयास किया था, बिहार विधान सभा के पिछले निर्वाचन तक लालू यादव ने मुलायम सिंह को बिहार में और न मुलायम सिंह ने लालू को उत्तर प्रदेश में पैठ बनाने दिया। यह कुछ वैसा ही जैसे चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल एक ही खेमे में वर्षों रहने के बावजूद एक दूसरे को उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में प्रवेश नहीं करने दिया। यह स्थिति पिछले चुनावों में उनकी विरासत संभालने वालों ने भी बनाए रखी। रजत जयंती मंच पर छठ-जो एक दिन बाद शुरू होने वाली थी-का बहाना बनाकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसलिए अनुपस्थित रहे क्योंकि उन्हें नरेंद्र मोदी के मुकाबले नेता के रूप में प्रोजेक्ट होने के लिए अनुकूल माहौल की उम्मीद नहीं थी, जो लालू प्रसाद यादव द्वारा मुलायम सिंह यादव को मोर्चा संभालने के लिए पहल करने के आह्वान से सच भी साबित हुई।


कभी संयुक्त मोर्चा, गठबंधन, महागठबंधन के नाम से दिखाई पडऩे वाली पंचीय एकता के  परिणामों के तह में जाने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए मंचीय एकता दर्शाने के बाद एक दूसरे को छलने के लिए किए जाने वाले प्रयासों के कारण यह सदैव अल्पजीवी साबित हुए हैं। इस बार की चर्चा भी हकीकत बन पायेगी इसकी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि महागठबंधन की चर्चा चलाने वाले दलों का जहां प्रभाव है उसमें केवल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं, जहां समाजवादी पार्टी शिवपाल धड़ा अखिलेश धड़े को मात देने के लिए गठबंधन के लिए अनुकूलता प्रदर्शित कर रहा है, वहीं अखिलेश धड़ा एकला चालो की रणनीति पर आगे बढ़ रहा है, पार्टी के असहाय सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव यही कारण है कि किसी गठबंधन के बारे में मौन हैं। नीतीश  कुमार सपा बसपा के बिना महागठबंधन के लिए कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं और सपा-बसपा नदी के दो किनारे के समान हैं जो कभी मिल नहीं सकते। कांग्रेस को चुनावी सफलता दिलाने का ठेका उठाये प्रशांत किशोर भले ही बिहार के समान गठबंधन के लिए उत्सुक हों, क्योंकि कांग्रेस के अस्तित्व को बचाए रखने की आशा वे छोड़ चुके हैं लेकिन कांग्रेस जमीनी हकीकत से वाकिफ होने के कारण न चाहते हुए भी अलग खड़ी है। जहां तक शरद यादव का सवाल है अब उनके लिए सांसद ही बने रहने की आकांक्षा भर रह गई है जिसके लिए 1974 से वे कभी जनसंघ की मदद और कभी मुलायम सिंह कभी अजीत सिंह तथा कभी लालू यादव की छत्रछाया प्राप्त करते रहे हैं, अब नीतीश  कुमार की छत्रछाया में रहने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रह गया। देवगौड़ा की कोई अभिरूचि न गठबंधन में है और न उत्तर प्रदेश में क्योंकि अपने कर्नाटक में उसकी कोई राजनीतिक परिणिति उन्हें दिखाई नहीं पड़ रही है। लगभग यही स्थिति अभय चौटाला की भी है। हां अजीत सिंह जो विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में चंद्रशेखर की रणनीति के अनुसार जनता पार्टी और लोक दल के विलय और विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा के सम्मिलन से गठित जनता दल के अध्यक्ष रहे और उत्तर प्रदेश विधायक दल नेता पद के चुनाव में मुलायम सिंह यादव से 1989 में मात खा गए थे-कांग्रेस, भाजपा आदि दलों से अनुकूलता न पाने के कारण पारिवारिक कलह से जूझ रही समाजवादी पार्टी के सहारे की उम्मीद में गठबंधन की आस अवश्य लगाये हुए हैं। शिवपाल और कुछ हद तक मुलायम सिंह भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जाट एकता से पैठ बनाने के लिए अजीत सिंह को साथ लेने के पक्ष में हैं लेकिन अखिलेश उसके खिलाफ हैं, इसका सबसे बड़ा कारण है अजीत सिंह की सीटों की मांग। जिसे शायद ही कोई दल स्वीकार करे।
बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस से भगदड़ और समाजवादी पार्टी में निरंतर बढ़ती जा रही कलह के कारण हाशिए पर पड़ी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बढ़ती जा रही अनुकूलता का प्रभाव क्षीण करने के लिए एक एक उपाय के रूप में जहां गठबंधन का प्रयास हो रहा है वहीं दूसरी ओर मुसलमान मतदाताओं का भयदोहन का अभियान भी तेज हो गया है। एक ओर जहां बसपा सुप्रीमो मायावती अपने लिए मुसलमानों को एकजुट होने का आह्वान कर रही हैं वहीं मुलायम सिंह यादव सपा को सबसे बड़ा मुस्लिम हितैषी होने का दावा कर रहे हैं। साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए जो मुद्दे उछाले जा रहे हैं यद्यपि उनकी कोई सार्थकता नहीं है लेकिन मुस्लिम समुदाय जिस भयदोहन से प्रभावित होता रहा है, उसके लिए अनुकूलता बढ़ रही है इसमें संदेह नहीं है। उत्तर प्रदेश या देश के अन्य भागों में भी जहां जहां मुस्लिम एकजुटता प्रदर्शित हुई है, वहां वहां उसकी प्रतिक्रिया हिन्दू एकजुटता के रूप में भी होने लगी है। उत्तर प्रदेश का चुनाव इन एकजुटताओं से प्रभावित होने की दिशा पकड़ रहा है। सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के अभाव और उपहार से व्यक्तिगत अनुकूलता बढ़ाने के प्रयास का भ्रमजाल और विकास की ललक पैदा करने के लिए प्रतिबद्धता की हकीकत समझ में आने लगी है। कुछ व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का प्रभाव बढ़ाने के लिए विज्ञापन के उबाऊ अतिरेक का सहारा ले रहे हैं और यह समझ रहे हैं कि इससे मतदाताओं को भ्रष्टाचार कुनबा परिस्थिति प्रशासनिक अराजकता तथा व्यक्तिगत महत्वकाांक्षा में परिवार के विघटन का मतदाता भ्रमित हो जायेगा। लेकिन जिस तरह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पचीस वर्ष पूर्व जनता दल के विघटन और कांग्रेस के नेतृत्व में गठित गैर कांग्रेसी सरकार के तिरोहित होने में अधिक समय नहीं लगा, गैर भाजपा के मुद्दे की चर्चा भले ही उभर रही, समाजवादी पार्टी उसी कगार पर पहुंच गई है। किसी ने भविष्यवाणी की है कि समाजवादी पार्टी रजत जयंती समारोह उसके विसर्जन का समारोह साबित होगा, संभव है ऐसा आंकलन अतिश्योक्तिपूर्ण हो लेकिन 1989 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ के बेगम हजरतमहल पार्क में-जनता दल में होते हुए भी - समाजवादी एकजुटता का सम्मेलन किया था, उसके उपरांत 1991 में उन्हें जिस चुनावी परिणाम का सामना करना पड़ा था, उसकी पुनरावृत्ति की संभावना बढ़ गई है।

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