बिहार का निर्वाचन: देश की दिशा और दशा का निर्णायक होगा
राजनाथ सिंह 'सूर्य'
बिहार में चुनावी शंखनाद हो चुका है। मुजफ्फरपुर के बाद गया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुराने अंदाज से ही ''जंगलराज'' के लिए जिम्मेदार लोगों से मुक्ति दिलाने के लिए अवाम से लोकसभा के ही समान सहयोग की अपील की है। गया की सभा में तीन चौथाई युवाओं की उपस्थिति से निश्चय ही भाजपा और उसके सहयोगी दलों के हौसले बुलंद हुए होंगे। जहां प्रधानमंत्री की सभाओं में भाजपा और उसके सभी सम्भावित सहयोगी उपस्थित रहे वहीं अभी तक नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने एक भी संयुक्त रैली को संबोधित नहीं किया है। दोनों अलग-अलग भाजपा और प्रधानमंत्री पर हमलावर हैं। उनके ''सेक्युलर मोर्चेÓÓ का संयुक्त स्वरूप अभी तक अनिश्चित है। यद्यपि अस्तित्व की रक्षा के लिए भुजंग प्रसाद और चन्दन कुमार को एक साथ आने के लिए विवश किया है तथापि पुरानी गांठे पूरी तरह से खुल पाना कठिन मालूम पड़ रहा है। कांग्रेस ''जनता परिवारÓÓ के इस गठबंधन को ''सेक्युलर गठबंधनÓÓ बनाने के लिए पुरजोर प्रयास में लगी है और उसकी सफलता के लिए वह एक दर्जन सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए सिमट जाने को तैयार है। उसके इस त्याग का नीतीश और लालू में सामंजस्य बैठाने में कितना योगदान होगा यह सीटों के बंटवारे की स्थिति से साफ हो सकेगा। ''साम्प्रदायिकताÓÓ के खिलाफ अलम्बरदार की भूमिका निभाने का दावा करने वाले साम्यवादियों की सबसे असहाय स्थिति है। उन्होंने अलग से चुनाव लडऩे की घोषणा की है। लेकिन यह संभव है कि वे परोक्ष रूप से जनता परिवार के समर्थन में उतर आयें। जहां उनके उम्मीदवार नहीं रहेंगे, वहां तो वे खुलकर भी समर्थन कर सकते हैं। भले ही नरेंद्र मोदी को चुनाव के बाद परिवार के बिखराव की संभावना से बहुलोग सहमत न हों, लेकिन सीटों के बंटवारे की स्थिति स्पष्ट न होने और चुनाव अभियान में एकजुट न दिखाई पडऩे के कारण उनके बीच समझदारी पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। सीटों के बंटवारे की स्थिति अभी राजग अर्थात भाजपा और उसके सहयोगी दलों की भी स्पष्ट नहीं है लेकिन वे सभी एक मंच पर तो साथ-साथ दिखाई ही पड़ रहे हैं जो इस बात का संकेत है कि भाजपा का वर्चस्व होने की आकांक्षा से अधिक सीटों पर लडऩे के आग्रह के बावजूद बाकी के दलों को समझौते में अधिक कठिनाई नहीं आयेगी। जनता परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव-जो इन दिनों अपने पुत्र अखिलेश की सरकार को नालायक होने का प्रमाणपत्र दे रहे हैं क्योंकि उनकी प्रधानमंत्री बनने की साध पूरी करने के लिए उत्तर प्रदेश की पार्टी पचास के स्थान पर पांच सीटें ही दे पायी। बिहार में इस बार किसी भी उम्मीदवार को मैदान में उतारने की मानसिकता में नहीं है। उनके खेमे के यादव किधर जायेंगे?
बिहार विधानसभा का चुनाव महज नीतीश कुमार के अहंकार और नरेंद्र मोदी के प्रतिशोध के घर्षण तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। भाजपा के लिए बिहार विजय उसके विजय अभियान के सामने आने वाली सभी रूकावटों को दरकिनार करने वाली साबित होगी और फिर चाहे उत्तर प्रदेश हो, कर्नाटक, हिमाचल, असम या उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के राज्यों में विजय हासिल करना महज औपचारिकता भर रह जायेगी। इसलिए भाजपा अपनी पूरी ताकत साधन और श्रम को झोंककर यह चुनाव जीतने का प्रयास करेगी। वहीं उसको सत्ता से बेदखल करने या उसकी साख न बनने देने के लिए जो कटिबद्ध हैं, उनके लिए भी यह चुनाव जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। इसलिए जहां कांग्रेस नीतीश और लालू में सामंजस्य बैठाने के लिए हर प्रकार का ''त्यागÓÓ करने के लिए तैयार है वहीं जातीयता के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बैठाने वालों ने चुनाव मैदान में न उतरने का फैसला भी कर लिया है। उनको हमवार करने की नीयत से ही नितीश कुमार ने धूल खा रही भागलपुर दंगे की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया है और लालू प्रसाद मंडल और कमंडल के बीच खाई चौड़ी करने में लग गए हैं। बिहार के स्वभाव और सम्पर्क की जो पृष्ठभूमि है उसका संज्ञान लेने पर दो आशंकाएं खड़ी हो जाती हैं। क्या यह चुनाव शब्दबाणों से ही लड़ा जायेगा या फिर खूनी संघर्ष भी हो सकता है। जातीयता और सांप्रदायिकता के ध्रुवीकरण का जैसा उपक्रम चल रहा है उसने निर्वाचन आयोग की चिंता अवश्य बढ़ा दी होगी। दूसरा बिहार का वाया मुम्बई खाड़ी के देशों से तार जुड़ा हुआ है। इसलिए इस निर्वाचन में देशी के साथ-साथ विदेशी धन प्रयोग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। नीतीश सरकार से भाजपा के अलग होने के बाद ऐसे तत्वों की गतिविधियों में इजाफा हुआ है, जो भारत में तोड़-फोड़ को अंजाम देने के लिए बेचैन रहते हैं। पटना में लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी की सभा में विस्फोट करने वालों से मिली जो जानकारी सार्वजनिक हुई है उससे यह आशंका बलवती हुई है कि जम्मू-कश्मीर के बाद पंजाब और बिहार आतंकी तत्वों के निशाने पर हैं। इसका कारण है विस्तृत सीमा रेखा के कारण घुसपैठ में आसानी होती है और चाहने वालों या बांग्लादेश दोनों की सरकारें कमजोर हैं। नकली नोटों की सबसे ज्यादा आवक नेपाल के रास्ते ही हुई है। इसलिए बिहार का चुनाव महज सत्ता परिवर्तन का चुनाव नहीं रह गया है। उसका असर व्यवस्था पर भी पडऩे वाला है। बिहार का चुनाव महज एक राज्य की विधानसभा का चुनाव नहीं है, बल्कि भारत के भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाला चुनाव है।
भाजपा ने बिहार विधान सभा का चुनाव नरेंद मोदी के विकास के एजेंडे पर लडऩे का संकल्प किया है। उम्मीदवारों के चयन में जातीय संतुलन बनाने की अपरिहार्यता के बावजूद उसे इस एजेंडे पर कायम रहना चाहिए। भाजपा को वह गलती नहीं करनी चाहिए जो उसने दिल्ली के चुनाव में की थी। प्रधानमंत्री को विवादों से ऊपर रहकर इस निर्वाचन को उनके बनाम नीतीश बनने देने से बचाना होगा। यह तभी संभव है जब पार्टी द्वारा केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद सत्ता के लिए जागृत आकांक्षा के बजाय इसके दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर उसके सभी सिपहसालार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के वशीभूत न हों जैसा कि एक नारकीय आचरण के धनी आजकल कर रहे हैं। भाजपा को आपस में असहमत लेकिन भाजपा के खिलाफ एकजुट होने वाली देशी और विदेशी दोनों प्रकार की शक्तियों का मुकाबला करने के लिए सन्नद्ध होना है। यदि ऐसा हुआ तो उसकी जीत सुनिश्चित है। लालू यादव ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानकर विषपान करने की उक्ति जिस मानसिकता से की और नीतीश कुमार ने चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग का दोष जिस प्रश्न के उत्तर में सुनाया था, उससे दोनों की वाह्य एकजुटता की कवायद की आंतरिक मानसिकता का पता चलता है। बिहार में देश के किसी अन्य राज्य की अपेक्षा जातीयता का अवाधित बोलबाला रहा है। चुनाव विश्लेषको का मानना है जहां जनता परिवार के पक्ष में नीतीश और लालू की बिरादरी के साथ मुस्लिम भी एकजुट हो गए हैं वहीं राजग के साथ सभी सवर्ण के अलावा दलित और महादलितों का जुड़ाव हो चुका है। यह विभाजन शत प्रतिशत है इसका कोई दावा नहीं कर सकता। उम्मीदवारी की घोषणा के बाद व्यक्ति महत्वाकांक्षी पप्पू यादव के समान और कितने किस किस का खेल बिगाड़ सकते हैं यह स्पष्ट हो जायेगा। बिहार का निर्वाचन देश की राजनीति को एक निर्णायक दिशा प्रदान करेंगे। वह अस्थिरता के दौर में रहेगी, सामाजिक कटुता से दग्ध रहेगी या फिर विश्व में अपना वर्चस्व स्थापित करने की मुहिम को और अधिक गति प्रदान करेगी। महापद्यनन्द की अहंकारी सत्ता को उखाड़कर एक अंकिंचन चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाकर भारत को अजेय बनाने वाले चाणक्य के रण कौशल की इस धरती पर होने वाला चुनाव उसी प्रकार की निर्णायक भूमिका में है।