अग्रलेख

Update: 2015-05-15 00:00 GMT

राहुल के तीखे तेवर, खोखले तर्क

बलबीर पुंज

सड़क से संसद तक राहुल गांधी की बढ़ी सक्रियता और उनके तेवरों को देखकर कांग्रेस के वे नेता प्रफ्फुलित हैं, जो कल तक राहुल गांधी के आभाहीन चेहरे और राजनीतिक अनाड़ीपन को लोकसभा के चुनाव में मिली करारी हार का कारण बताते थे। 542 सदस्यों वाली लोकसभा में कांग्रेस प्रतिपक्ष की क्षमता पाने योग्य भी संख्या बल पाने में विफल रही थी। पार्टी के अंदर नेतृत्व क्षमता को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े किए गए। कुछ तो कांग्रेस की कमान वंश विशेष से बाहर के व्यक्ति को सौंपने की मांग भी कर रहे थे। सन् 1950 में सरदार पटेल के देहावसान के बाद से ही कांग्रेस पर एक परिवार का ही आधिपत्य रहा है। इसलिए दबेछिपे लोकसभा के चुनाव में हुई दुर्गति के लिए इसे भी बड़ा कारण माना जा रहा था। किंतु भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर राहुल गांधी जिस अंदाज में किसानों और गरीबों का मसीहा बनने का प्रयास कर रहे हैं, उससे उन कांग्रेसी नेताओं को यह मुगालता हो गया है कि मृतप्राय कांग्रेस में राहुल ही जान डाल सकते हैं।मीडिया के एक वर्ग मेंं भी राहुल के नए अवतार को लेकर उत्साह नजर आ रहा है। मीडिया की सुनें तो पचास दिनों के अज्ञातवास के बाद लौटे राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं में अभूतपूर्व जोश का संचार हुआ है और वे राहुल को जल्द से जल्द कांग्रेस की कमान संभालते देखने को उतावले हैं।गरीबों और किसानों के नाम पर राहुल गांधी सड़क से संसद तक जो प्रहसन कर रहे हैं, वह वास्तव में कांग्रेस के पारंपरिक तकियाकलाम से भरा है। राहुल की दादी स्व. इंदिरा गांधी ने सन् 1971 के चुनाव में 'गरीबी हटाओ, पिछड़ापन मिटाओ' का नारा लगाया था, जिसे उनके पुत्र राजीव गांधी भी दोहराते रहे। कई पंचवर्षीय योजनाओं में 'गरीबी हटाओ, पिछड़ापन मिटाओÓ के लिए भारी भरकम राशि खर्च की जाती रही। किंतु उसका क्या परिणाम आया? आज राहुल 45 सालों के बाद भी उन्हीं नारों को दुहरा रहे हैं तो उसका सीधा अर्थ है कि कांग्रेस में गरीबी हटाने की या तो इच्छा शक्ति ही नहीं है या कांग्रेस गरीबी को शाश्वत बनाए रख उसका दोहन करना चाहती है। इसीलिए राहुल कभी किसी कलावती का जिक्र करते हैं तो कभी उत्तर प्रदेश में दलितों के घर पूड़ी-सब्जी चखने और रात गुजार सुर्खियां बटोरने का उपक्रम रचते हैं।देश में पचास वर्षों से अधिक समय तक कांग्रेस का शासन रहा है। परिस्थितियां क्यों नहीं बदलीं? अभी दस साल तक कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का अबाधित राज रहा। देश को भय, भूख, बेरोजगारी से मुक्ति क्यों नहीं मिली? क्यों भ्रष्टाचार सत्ता के शीर्ष स्तर को भी अपने आगोश में लेने में कामयाब हो सका?लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल का कुतर्क रहता था कि किसी एक व्यक्ति से विकास संभव नहीं है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है, किंतु उसका नेतृत्व तो किसी एक को ही करना होता है। क्या यह सत्य नहीं कि सीमित संसाधनों और मौजूदा बुनियादी ढांचों के दम पर ही कई भाजपा नीत राज्य सरकारों ने विकास के प्रतिमान स्थापित किए हैं? क्या पिछले एक साल के राज में प्रधानमंत्री मोदी ने अर्थव्यवस्था को गति नहीं दी? क्या देश-विदेश में भारत की साख नहीं बढ़ी है? संप्रग सरकार में देश जिस दुरावस्था की ओर अग्रसर हुआ, उन सामाजिक- आर्थिक विषयों पर राहुल पूरे दस सालों तक खामोश रहे। क्यों?लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद संप्रग सरकार में सत्ता के दो केंद्र होने और उसके असफल होने पर भी बहस चली। क्या राहुल ने कभी इस विकृति पर प्रश्न खड़ा किया? नहीं तो हार के बाद पार्टी में लोकतंत्र लाने का ढोंग क्यों? क्या यह सच नहीं कि वंशवादी अभिमान के कारण ही सन् 2004 के खंडित जनादेश के बाद कांग्रेस ने प्रजातंत्र के साथ अभिनव प्रयोग कर केंद्रीय सत्ता को दो ध्रुवीय बनाकर सारे गड़बड़झाले की नींव डाली थी? जिसके पास प्रधानमंत्री का पद था, उसके पास कोई शक्ति नहीं थी और जिसके पास शक्ति थी, उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी। लोकतंत्र के इस अपहरण पर तब राहुल ने चुप्पी क्यों साध रखी थी?एक व्यक्ति परिस्थितियां बदल सकता है, यदि उसके पास निर्णय लेने की शक्ति हो। यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो और उसे विवेक के आधार पर फैसले लेने की आजादी हो तो निश्चित तौर पर बदलाव लाया जा सकता है। पिछले एक साल के राज में देश इस सच को देख रहा है। किंतु वंशवादी दर्प में लोकतंत्र के साथ जो नया प्रयोग किया गया, उसके कारण पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास निर्णय लेने का अधिकार ही नहीं था। संप्रग समन्वय समिति की अध्यक्षा होने के नाते निर्णय लेने का अधिकार सोनियाजी ने अपने हाथों में रखा। कांग्रेस अध्यक्षा के पास मंत्रिमंडल का कोई भी विभाग नहीं था, किंतु पूरा मंत्रिमंडल उनकी परिक्रमा लगाता था।नीतियां और योजनाएं बनाने का काम सरकार का है, किंतु संप्रग सरकार के कार्यकाल में यह काम आउटसोर्स किया गया। सोनियाजी की निगरानी में गठित 'राष्ट्रीय सलाहकार समितिÓ सरकार का काम करती रही, जिसका सारा ध्यान कांग्रेस के चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए लोकलुभावन नीतियां व योजनाएं बनाने पर केंद्रित था। मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, मिड डे मील, काम के बदले अनाज और न जाने ऐसी कितनी योजनाएं हैं, जिनसे कथित सामाजिक उत्थान का लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ, उल्टे सरकारी कोष पर बोझ अधिक बढ़ता गया। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था को दुरुस्त रखने के लिए राजकोषीय घाटे पर काबू पाना चाहते थे, किंतु उनके हाथ बंधे थे। तब राहुल का विवेक कहां गायब था?प्राय: यह कहा जाता है कि संप्रग सरकार में यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहते तो उन्हें कौन रोक सकता था। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि संप्रग सरकार के दौरान राहुल जब चाहे, प्रधानमंत्री बन सकते थे। किंतु क्यों नहीं बने, उस पर चर्चा नहीं होती। सत्ता की दो धु्रवीय तत्कालीन व्यवस्था में जब बिना किसी जवाबदेही के सत्ता का सारा आकर्षण उन्हें सुलभ था तो नीतिगत अपंगता और निर्णयहीनता से पैदा हुई विफलताओं का सेहरा वह अपने सिर पर क्यों बांधते? राहुल गांधी को चाहिए कि वह वंशवादी अधिनायकवाद का त्याग करें और नई सरकार को विकास कार्य करने का अवसर देकर अपना प्रायश्चित करें। किंतु वंशवादी दर्प में वह जनता को गुमराह करने में जुटे हैं।विजय लक्ष्मी पंडित की पुत्री नयनतारा सहगल ने इंदिरा गांधी के ऊपर लिखी अपनी पुस्तक में लिखा है, ''पं. नेहरू के वंशज यह मानते हैं कि उनका जन्म राज करने के लिए हुआ है और कांग्रेस पार्टी उनकी खानदानी जागीर है।'' स्व. इंदिरा गांधी के जमाने में तो यह अहंकार और परवान चढ़ा। चाटुकारों की मंडली ने तो तब 'इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा' का नारा ही गढ़ दिया था। यह अतिश्योक्ति नहीं कि सत्तासीन होने पर कांग्रेस निरंकुश हो जाती है और वह चाहती है कि पूरे देश में केवल उसकी ही राजनीतिक विचारधारा का वर्चस्व रहे। आज जब कांग्रेस सत्ता में नहीं है तो वंशवादी दर्प उसे निरंतर मुंह चिढ़ा रहा है। राहुल के तल्ख तेवर और खोखले तर्क उसी हताशा से जन्मे हैं।

Similar News