अग्रलेख

Update: 2015-02-19 00:00 GMT

चुनाव में कालेधन का बढ़ता प्रभाव 

  • राजनाथ सिंह 'सूर्य'

जब-जब कोई निर्वाचन होता है, एक प्रश्न बराबर उठाया जाता रहा है कि कितना धन व्यय हुआ होगा। धन और बल के प्रभाव से निर्वाचन को मुक्त करने के लिए चुनाव आयोग जितने उपाय करता जा रहा है उससे 'तू डाल-डाल तो मैं पात-पात' की कहावत ही चरितार्थ होती दिखायी पड़ रही है। निर्वाचन के लिए धन कहां से और कैसे आता है इसका कुछ खुलासा दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय आ.आ.पा. को कुछ अस्तित्वहीन कम्पनियों द्वारा दो करोड़ रुपए चंदा देने का प्रकरण सामने आने से हुआ है। यद्यपि दो करोड़ रुपए की धनराशि चुनावी खर्चे को देखते हुए बहुत मामूली रकम मालूम पड़ती है। लेकिन इससे यह तो स्पष्ट ही होता है कि राजनीतिक दल और व्यक्ति जो धन व्यय करते हैं वह अधिकांश ऐसे स्रोतों से आता है जो या तो छद्म होते हैं, या फिर अज्ञात। निर्वाचन आयोग ने चुनावी खर्चे में कमी करने के लिए प्रचार में प्रत्यक्ष किए जाने वाले खर्चे यथा पोस्टर, बैनर पर रोक लगाई, वहीं मतदाता पर्ची को आयोग द्वारा बंटवाने की व्यवस्था पर बहुत बड़ा बोझ हल्का करने का काम किया है। सभाओं, वाहनों तथा लाउडस्पीकर आदि के प्रयोग की पूर्व अनुमति तथा सीमा निर्धारण और पर्यवेक्षक के साथ-साथ वित्तीय नियंत्रक नियुक्त कर उसको प्रतिदिन व्यय देने की अनिवार्यता से यह माना जा रहा था कि चुनावों को धन और बल के प्रभाव से बचाया जा सकेगा। आपराधिक मामले में दंडित व्यक्तियों को चुनाव लडऩे से वंचित करने के कानून से भी अंकुश लगाने का प्रयास हुआ है। लेकिन क्या चुनाव लडऩे वालों में 'अपराधियों' की संख्या घटी है और क्या चुनावी खर्चे में कमी आई है। आयोग ने खर्चे की जो अधिकतम सीमा निर्धारित की है और क्या उतने में ही चुनाव सम्पन्न हो जाता है। यदि उम्मीदवारों द्वारा चुनावी व्यय के ब्यौरे पर भरोसा किया जाय तो उतना भी व्यय नहीं होता। मसलन लोकसभा चुनाव में किसी भी उम्मीदवार को अधिकतम पचासी लाख रुपया खर्च करने की अनुमति है। इससे अधिक एक भी रुपया खर्च करने पर वह अयोग्य घोषित किया जा सकता है। प्रत्येक उम्मीदवार को अनिवार्यता नित्य होने वाले व्यय का ब्यौरा देना पड़ता है, चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों द्वारा दाखिल ब्यौरे को खंगाला जाय तो एक भी उम्मीदवार नहीं मिलेगा जिसने इतना व्यय करने का ब्यौरा दाखिल किया हो। जिनकी चुनावी प्रक्रिया में अभिरुचि है उनका अनुमान है कि जीत के लिए जो प्रथम तीन चार उम्मीदवार संघर्षरत मालूम पड़ते हैं उनमें से कोई भी तीन से चार करोड़ रुपए से कम व्यय नहीं करता। जो 'बड़े नेता' हंै उनका व्यय तो दस करोड़ या उससे भी अधिक होने का आंकलन है। यह व्यय बेनामी होते हैं। घोषित रूप से आठ या दस वाहन का ब्यौरा दिया जाता है लेकिन लोकसभा के लिए मैदान में उतरे एक-एक उम्मीदवार के लिए सौ से लेकर हजार वाहन तक बेनामी तरीके से प्रयोग किए जाते हैं। वाहन के ही समान ऐसी तमाम मदें हैं जिनका खर्चा लिखा पढ़ी में नहीं आता। यदि यह कहा जाय कि सारा चुनाव ही काले धन के सहारे लड़े जाते हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। संभवत: काले धन के प्रयोग का सबसे बड़ा क्षेत्र चुनाव ही बन गया है। संविधान लागू होने के बाद 1952 और 57 में जो दो चुनाव हुए उन्हें काले धन के प्रभाव से मुक्त कहा जा सकता है। उम्मीदवार की अपेक्षा पार्टियां चुनाव लड़ती थीं तथा कार्यकर्ता सैद्धांतिक निष्ठा के आधार पर काम करते थे। तीसरे आम चुनाव में एक धनवान पार्टी के मैदान में आने के बाद कार्यकर्ताओं के बजाय चुनाव कर्मियों का उदय हुआ जो धीरे-धीरे सैद्धांतिक निष्ठावान कार्यकर्ताओं को चुनावकर्मी बनाता गया। समय और प्रभाव के आंकलन के आधार पर उनके लिए सुविधा और धन का प्रबंध किया जाने लगा तथा मतदाताओं को रिझाने के लिए खान-पान (शराब आदि) की व्यवस्था करने की होड़ के साथ ही उन्हें नगद धनराशि बांटी जाने लगी। इनमें लिप्त नेता और उम्मीदवार पकड़े जाने के बावजूद अन्य प्रावधानों का उल्लंघन के समान निर्वाचन आयोग की ''नाराजगी'' और ''कड़ी चेतावनी'' भविष्य में ऐसा आचरण की पुनरावृत्ति से दूर रहने के परामर्श मात्र भर से ''दंडित'' किया जाता है। आज भी वही स्थिति बनी हुई है। आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का प्रभाव अभी भी बना हुआ है क्योंकि चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य पाये जाने में किसी अपराध में दंडित होनो की काट के अनेक उपाय तलाश लिए जाते हैं। बार-बार प्रश्न यह उठता है कि आयोग द्वारा किए गए कठोर उपायों का दायरा बढ़ते जाने के बावजूद धन बल और अपराध का प्रभाव कम क्यों नहीं हो रहा है। इसका शायद एक ही उत्तर है पारदर्शिता का अभाव। अपने देश में लहर गिनकर भी कमाई करने की कहानी घूसखोरों को रोकने की नाकामी के संदर्भ में सुनाई जाती है। उसका तात्पर्य यही है कि यह एक प्रवृत्ति है जो सीमित तो की जा सकती है, रोकी नहीं जा सकती। चुनाव में कालेधन के प्रभाव को सीमित करने के लिए जो अनेक उपाय सुझाए गए हैं, उसमें सबसे उपयुक्त माना गया है बजट में राजनीतिक दलों के लिए धन का प्रावधान करना। योरोप के कुछ देशों में इसका सफल प्रयोग भी हुआ है। हमारे देश के विचारवान लोग भी इस प्रावधान के पक्ष में समय-समय पर अभिमत व्यक्त करते रहते हैं लेकिन न तो निर्वाचन आयेाग से इसके लिए पहल हुई है और न संसद में ही कभी इस पर चर्चा की गयी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुरूप करने के लिए जीत की प्राथमिकता ने सब कुछ करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना शुरू किया। संसद में बने ''लोकहितकारी'' कानूनों की समीक्षा की जाय तो पता चलेगा कि उनमें लोकहित की भावना से अधिक लोभयुक्त कूट का प्रभाव है और इसका चलन शुरू हुआ 1967 में लोकसभा के तीसरे निर्वाचन के बाद जिसमें कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी तथा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपने वरिष्ठजनों से खतरा महसूस हो गया था साथ ही वामपंथी राजनीति हाशिए पर जाने लगी थी। अब जो खुलासा हुआ है उसके अनुसार 24420 करोड़ रुपया तो विदेशी बैंकों में ही जमा है। देश में ऐसा जितना धन होगा, इसका खुलासा करने का कोई उपाय नहीं हो रहा है। लेकिन जन कल्याण की जो भी योजनाएं खरबों का व्यय निर्धारित करने के लिए बनाई जाती हैं यदि राजीव गांधी के कथनानुसार उसका एक रुपया में सोलह पैसा ही ठिकाने तक पहुंचता है तो शेष चौरासी पैसे कहां जाते हैं। यह राजनीति करने वालों तथा ग्राम स्तर से लेकर शीर्ष स्तर तक के सुशासन प्रदान करने का दायित्व निर्वहन करने वालों की निरंतर बढ़ती सम्पन्नता को देखकर समझा जा सकता है। राजनीतिक दलों के लिए बजटीय प्रावधान भले ही न हो लेकिन राजनीति करने या सत्ता संभालने वालों की आय का मुख्य स्रोत बजट ही हो गया है। इस 'स्रोत' को कैसे बंद किया जा सकता है। जिस प्रकार उद्योग घरानों से राजनीतिक चंदे पर रोक लगाने का आंदोलन चलाने वाले चंद्रशेखर अपने अल्पकालीन प्रधानमंत्रित्व काल के समय इसकी निरर्थकता को स्वीकार किया था तथा नरसिंह राव ने उसे आंशिक रूप से संशोधित किया था, उसी प्रकार कल्याणकारी योजनाओं में लगने वाले काले धन का आवांछित लोगों में सिमट कर रह जाने के बाद यह तो अब अनुभव किया जाने लगा है कि इनका कोई औचित्य नहीं है। लेकिन क्या उसके लिए उपाय संभव है?

 
 

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