अग्रलेख

Update: 2015-11-06 00:00 GMT

एक सुनियोजित साजिश

बलबीर पुंज

देश में गिने चुने साहित्यकारों, इतिहासकारों और कलाकारों के द्वारा जो माहौल बनाया जा रहा है, क्या वह भारत की छवि को कलंकित करने का षड्यंत्र है? पिछले दिनों धुर माक्र्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना इराक-सीरिया में निरपराधों का खून बहा रहे आतंकी संगठन 'आईएस' से की है। वहीं फिल्म अभिनेता शाहरूख खान का कहना है कि देश में जिस तरह की असहिष्णुता है, उसके कारण यहां जीना आसान नहीं है। लोगों में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हो सकती हैं, उनमें सत्ता सुख पाने की चाह हो सकती है; किंतु क्या उसे पाने के लिए हम किसी भी हद तक जाएंगे? क्या यह सत्य नहीं कि जयचंद और मीर जाफर ने भी यही किया था?
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यहां न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, बल्कि रक्तविहीन क्रांतियों से सरकारें बदलती रही हैं। यहां एक बहुत ही सजग न्यायपालिका है, जो कार्यपालिका से पूर्णत: स्वतंत्र है। उसके साथ ही जीवंत और शक्तिमान मीडिया है। केंद्र में सत्ता परिवत्र्तन के बाद इन में से किसी के भी अधिकारों और शक्ति में लेशमात्र भी अंतर नहीं आया है। फिर यह होहल्ला क्यों? जिन्होंने देश की छवि मलिन करने की मुहिम छेड़ी है, उनकी विश्वसनीयता क्या है, उनकी पृष्ठभूमि क्या है? क्या सीमा पार के शत्रुओं द्वारा वित्त और विचार पोषित नक्सलियों, जो बंदूक के बल पर लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्राांति छेड़े हुए हैं, उनके समर्थन में खड़ा होने वाले बुद्धिजीवियों को लोकतंत्र और मानवाधिकार का प्रश्न खड़ा करने का नैतिक अधिकार है?
19 सितंबर, 2008 को दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ में इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा शहीद हो जाते हैं। उनकी शहादत का अपमान करते हुए आतंकवाद के आरोपियों के साथ खड़ा होने वालों को दादरी में अखलाक की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या पर आंसू बहाने का क्या अधिकार है?
श्रीमती इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद दिल्ली और देश के अन्य भागों में मौत का जो नंगा नाच हुआ, उसे दंगा नहीं कहा जा सकता। दंगा दो समुदायों के बीच होता है। वह नरसंहार था, जिसमें तत्कालीन सत्ताधारी दल, कांग्रेस के नेताओं ने उन्मादी भीड़ का नेतृत्व किया था। संवेदनहीनता और अमानवीयता की पराकाष्ठा तो तब थी, जब इस बर्बर कृत्य पर क्षमायाचना करने की बजाए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था, ''जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।ÓÓ क्या उस दल को काल्पनिक असहिष्णुता पर बोलने का अधिकार है?
इस साजिश में विदेशी धन पर पोषित और विदेशी एजेंडे से संचालित गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका भी संदेहास्पद है। अभी हाल में सरकार ने देश के विकास से जुड़ी योजनाओं को बाधित करने वाले कई एनजीओ पर कार्रवाई की है। उनके खातों को सीज किया गया है। उनमें ग्रीनपीस बड़ा नाम है। ग्रीनपीस इंडिया अपने विदेशी आकाओं और उनके धनबल के दम पर अपने आप को भारतीय कानून और संविधान से ऊपर मानता है। भारतीय कानून की अनदेखी कर ग्रीन पीस जैसे संगठनों ने विदेशों से अकूत धन प्राप्त किया है और वे स्थानीय नागरिकों को उकसा कर विकास परियोजनाओं को बाधित करने का कुप्रयास कर रहे हंै। वास्तव में भारत के विकास और उसकी सांस्कृतिक-भौगोलिक एकता के खिलाफ वर्षों से बहुमुखी षड्यंत्र का तानाबाना बुना जा रहा है। देश में असहिष्णुता के नाम पर जो भी दुष्प्रचार हो रहा है, वह इसी साजिश का अंग है।
इतिहासकार इरफान हबीब माक्र्सवादी चश्मे से इस देश की कालजयी इतिहास व संस्कृति को लांक्षित करने के लिए कुख्यात हैं। भाजपा नीत राजग सरकार के पिछले कार्यकाल में एनसीईआरटी की पुस्तकों में कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने जिस तरह से भारत का असत्य और भ्रामक इतिहास लिखा था, उसे सुधारने का प्रयास किया गया था। इरफान हबीब ने तब अपने सहधर्मी इतिहासकारों को जुटाकर इतिहास के कथित भगवाकरण के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था। कम्युनिस्ट विचारधारा के बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों ने सरकार के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीईआरटी की सभी पुस्तकों को राष्ट्रहित में उचित बताते हुए उन्हें पाठ्यक्रमों में शामिल रखने का आदेश सुनाया था। तथाकथित भगवाकरण का आरोप झूठा साबित हो गया, किंतु कम्युनिस्ट विचारधारा से अनुप्राणित बुद्धिजीवी भाजपा को कोसते रहे। अब जब केंद्र में एक बार फिर समीकरण बदल गया है, वामपंथी कांग्रेस की वैशाखी पर पुन: अपने झूठ का वजन किशोर मस्तिष्क पर लादना चाहते हैं। ऐसे वामपंथी इतिहासकारों को पं0 नेहरू के कार्यकाल में शिक्षामंत्री नुरुल हसन ने भारतीय इतिहास लिखने की जिम्मेवारी सौंपी थी। कोई आश्चर्य नहीं कि इस कुत्सित उद्देश्य को पूरा करने के पारितोशिक में इरफान हबीब पं. नेहरू फेलोशिप पाने वाले पहले छह कर्मठों में से एक हैं।
इरफान हबीब ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना 'आईएसÓ से की है। क्या यह महज संयोग है कि कांग्रेस भी संघ की तुलना प्रतिबंधित इस्लामी संगठन 'सिम्मीÓ से करती है? संघ एक देशभक्त और अनुशासित संगठन है, जिसकी अनुशंगी इकाइयां देश के आदिवासी व वंचित समाज के कल्याण में जुटी हैं। वह चाहे देश के रक्तरंजित बंटवारे का दौर हो, या 1962 का चीनी हमला हो या 1965 का भारत पाक युद्ध हो या देश पर किसी तरह की त्रासदी का अवसर हो; संघ के कार्यकत्र्ता बिना किसी पुरस्कार या पहचान की अपेक्षा किए मानवता की सेवा में जुट जाते हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. नेहरू भी संघ के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त थे, किंतु चीनी हमले के दौरान स्वयंसेवकों के देशप्रेम को देख उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। इसका प्रायश्चित करते हुए उन्होंने 1963 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर संघ को पथ संचलन के लिए आमंत्रित किया था।
इरफान हबीब की विशाक्त मानसिकता वस्तुत: उनकी शिक्षादीक्षा से जुड़ी है। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से बीए, एमए की शिक्षा प्राप्त की। 1969 से 1991 तक वहीं वे इतिहास के प्रोफेसर रहे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वही है, जिसने अपनी बौद्धिक क्षमता और मानव संपदा के बल पर एक नए राष्ट्र को जन्म दिया। 1954 में अलीगढ़ के छात्रों को संबोधित करते हुए आगा खां ने कहा था, ''सभ्य इतिहास में प्राय: विश्वविद्यालयों ने देश के बौद्धिक व आध्यात्मिक जागरण में महती भूमिका निभाई है। अलीगढ़ भी अपवाद नहीं है। किंतु हम यह गौरव के साथ दावा कर सकते हैं कि स्वतंत्र संप्रभु पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ के मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुआ।ÓÓ मजहबी जुनून को तुष्ट करने के लिए जिन्होंने भारत के टुकड़े किए, वे आज हमें सहिष्णुता पाठ न पढ़ाएं।
'एक तो करेला, दूजा नीम चढ़ा,Ó इरफान हबीब जैसों के लिए यह उक्ति सटीक बैठती है। माक्र्सवादी विचारक कभी भी इस धरा की समृद्ध विरासत को सम्मान नहीं दे पाए। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलनÓ से लेकर आजादी पाने तक का कम्युनिस्टी इतिहास छल-कपट और देशद्रोह से भरा है। वस्तुत: कम्युनिस्टों ने भारत की एकता की बजाए उसे टुकड़ों में बांटे रखने की हर संभव कोशिश की। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के रजकरों को कम्युनिस्टों ने अपनी पूरी मदद दी। कम्युनिस्टों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले वीर सेनानियों के योगदान को अपनी गालियों से कलंकित किया। महात्मा गांधी, वीर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस से लेकर जयप्रकाश नारायण तक माक्र्सवादियों की गालियों के शिकार बने। माक्र्सवाद ने कभी राष्ट्रवाद को सम्मान नहीं दिया, इसीलिए कम्युनिस्टों से राष्ट्रवादी होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि जाने अनजाने समाज के वैसे तत्व भी इस षड्यंत्र का भागीदार बन रहे हैं, जिन्हें नकाबपोश माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों के वीभत्स चेहरे की पहचान नहीं है।

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