अग्रलेख

Update: 2015-11-05 00:00 GMT

क्या समान नागरिक संहिता बनेगी

 राजनाथ सिंह 'सूर्य'

 

यह तो लगभग निश्चित सा लग रहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में संसद द्वारा सर्वसम्मति से जिस कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया है, उसे कतिपय संशोधनों के साथ पुन: सरकार पेश कर सकेगी, क्योंकि जिस कांग्रेस ने इस विधेयक को तैयार किया था, सार्वजनिक रूप से यह कह चुकी है कि अब वह इसका समर्थन नहीं करेगी। नरेंद्र मोदी सरकार का हर मुद्दे पर विरोध ही करने की उसकी और वामपंथियों की रणनीति के संदर्भ में पूर्व में किए गए समर्थन के खिलाफ जाने का एकमात्र औचित्य यही है। अन्य दलों की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है क्योंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए उसे पारित करने के लिए दो तिहायी बहुमत की आवश्यकता है। लोकसभा में तो यह संभव है लेकिन राज्यसभा में असंभव। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के औचित्य अनौचित्य पर बहुत चर्चा हो चुकी है इसलिए उसके विवरण की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य निर्देश जो समान नागरिक संहिता (कामन सिविल कोड) बनाए जाने के संदर्भ में है पर चर्चा की जरूरत है। एक निर्देश हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी केंद्रीय सरकार को दिया है। तीन महीने में एक ऐसा कानून बनाने का जो गौवंश हत्या पर देशव्यापी प्रतिबंध लगाने वाला हो। यद्यपि दोनों ही कानून आवश्यक हैं लेकिन क्या सरकार ऐसा करने में सक्षम है। इस समय देश में सांप्रदायिक पहचान के नाम पर उन्माद बढ़ाने का प्रयास अपने चरम पर है। जब सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए या धर पकड़कर भागकर किसी नहर में डाल दिए गए अथवा जब वर्षभर उत्तर प्रदेश का एक इलाका सांप्रदायिक उन्माद में जलता रहा, जब हजारों लोगों को किसी एक व्यक्ति के इस कथन पर कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है, मौत के घाट उतार दिया गया, या गोधरा में ट्रेन के डिब्बे में लोगों को जलाकर मार डाला गया अथवा उसके बाद के दंगे में कई सौ लोग मारे गए, जिनकी आत्मा नहीं जागी थी, वह किसी एक व्यक्ति को अफवाह के चलते मार दिया गया पर जिस प्रकार जागी है, उसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अतीत में भी कई बार कामन सिविल कोड बनाने के निर्देश के बावजूद जिस प्रकार के लोगों की प्रतिक्रिया के कारण सरकार हिलने तक तैयार नहीं हुई, उन तत्वों के विपरीत रवैय्ये की उपेक्षा कर अत्यंत आवश्यक होते हुए भी वर्तमान सरकार पहल कर सकेगी इसमें संदेह है। उसकी एक समुदाय के खिलाफ होने की छवि उभारने का जो अभियान चल रहा है उसके अभियानकर्ता इसे मुद्दा बनाकर देश की शांति व्यवस्था को भंग करने की पूरी तैयारी में जुट गए हैं।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब सर्वोच्च न्यायालय का हैदराबाद की एक महिला शाहबानो को पति से गुजरा भत्ता मिलने का फैसला आया, तब सरकार ने उसके अनुरूप कानून बनाने का मन बनाना इसका संकेत राजीव गांधी के प्रिय राज्यमंत्री आरिफ मोहम्मद खां के लोक सभा में दिए गए भाषण से मिला लेकिन चौबीस घंटे में ही पांसा पलट गए। दूसरे दिन एक अन्य राज्यमंत्री जियाउल रहमान अंसारी ने लोकसभा में आरिफ का जोरदार विरोध किया। सरकार पीछे हट गई। आरिफ ने त्यागमात्र दे दिया और कुछ दिनों बाद कांग्रेस भी छोड़ दी। देश में सम्पत्ति उत्तराधिकार आदि के संदर्भ में एक कानून हिन्दू कोड बिल के नाम से लागू है। सरकारी तौर पर जिन समुदायों को अल्पसंख्यक की मान्यता दी गई है उनमें से सिख, बौद्ध तथा जैन समुदायों पर भी यह कानून प्रभावी है, केवल ''अल्पसंख्यक'' मुसलमान और ईसाई इसकी परिधि से बाहर हैं। संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून बनाने का सरकार को निर्देश है, समाजवादी नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया, सर्वोदयी जयप्रकाश नारायण, विचारक आचार्य नरेंद्र देव आदि जितने भी उस समय के सार्वजनिक जीवन में पुरोधा थे सभी इसके पक्ष में थे। ''साम्प्रदायिक'' जनसंघ भाजपा तो शुरू से एक देश एक जन की पक्षधर रही है, लेकिन ''सेक्युलरिज्म'' के अलम्बरदारों ने कभी भी इस विचार को क्रियान्वित नहीं होने दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने संभवत: चौथी बार-मोदी सरकार को पहली बार-यह निर्देश दिया है। अभी मोदी सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की है, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने सामाजिक चिंतकों के समान ही इस मुद्दे पर देशव्यापी चर्चा चलाने पर बल दिया है। यह संकेत मिलता है, जो प्रगट भी होने लगा है कि यद्यपि सेक्युलरिस्ट अभी मौन हैं तथापि मुस्लिम और ईसाई समुदायों के प्रवक्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का विरोध करना शुरू कर दिया है। जाहिर है सेक्युलरिस्ट उसी का अनुशरण करेंगे, जैसा पूर्व में करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या नरेंद्र मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुरूप कानून बनाने की पहल कर बिखराववादियों को अपने खिलाफ संगठित होने के लिए एक और मुद्दा प्रदान कर सकेंगे। यह भविष्य बतायेगा। शायद सरकार को दिए गए निर्देशों का पालन न करने पर सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर निष्क्रियता के लिए जैसे पूर्व में कभी शास्ति नहीं की है, इस बार भी न करे। क्योंकि भारत एक सेक्युलर देश होने के बावजूद अल्पसंख्यक अवधारणा पर आधारित रचना के अनुरूप चलने के कारण उसकी रूढि़वादिता से हट पाने की संगठित स्वर मुखरित करने के लिए एकजुट नहीं हो रहा है। भारत में अल्पसंख्यक संविधान, न्यायालय और बहुसंख्यक पर पूर्ववत हावी रहने की मानसिकता से युक्त होने और शह पाने के कारण शायद ही ऐसा कदम उठा सके।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने संपूर्ण देश के लिए समान गौवंश हत्या निषेध का कानून बनाने का केंद्रीय सरकार को जो निर्देश दिया है, वह भी संविधान की व्यवस्था के अनुरूप है। क्यों कि उसमें कहा यद्यपि केंद्रीय कानून का निर्देश नहीं है तथापि यह कहा गया है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी राज्य अपनी स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गौवंश हत्या निषेध कानून बनाएं। अधिकांश राज्यों में यह कानून लागू है। यद्यपि कुछ राज्यों के कानून में ऐसी खामी है जिसका लाभ गौबधिक उठा सकते हैं-उठा रहे हैं। गौवंश की हत्या पर रोक लगाने के औचित्य अनौचित्य पर इस समय विवाद अपने चरम पर है, यह विषय हिन्दू बनाम मुसलमान ईसाई तथा पुराणपंथी बनाम प्रगतिशीलता के रूप में भी चर्चित हो रहा है। पुराणपंथी उतने मुखरित नहीं जितने प्रगतिशील जो गौमांस भक्षण की मुहिम चला रहे हैं। यद्यपि ईसा मसीह ने गौमांस खाने के खिलाफ यह कहकर चेतावनी दी थी कि इससे अनेक रोग पैदा होते हैं, और हदीस ने इस्लाम के अनुयायियों को गौहत्या निषेध की हिदायत भी दी है तथा हमारे कुछ प्रगतिशील लोग मुस्लिम और ईसाईयों के धार्मिक अधिकार के हनन का मुद्दा बनाकर ''हिन्दुओं की भावनाओं'' को उन पर थोपने के खिलाफ शस्त्रास्त्र से लैस होकर एक तरफा युद्ध में तलवारें भांज रहे हैं। यह तर्क अपनी जगह है क्या इस देश में बहुसंख्यकों की भावना, निष्ठा और श्रद्धा को चोट पहुंचाना अल्पसंख्यकों का ''मौलिक अधिकार'' है या फिर बहुसंख्यक की भावना के साथ सामंजस्य बैठाना उनका दायित्व है। सर्वधर्म सम्भाव वाले इस देश में जिन अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार को बहुमत की भावना निष्ठा और श्रद्धा से ऊपर का जो अभियान चला रहे हैं, वे अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख संगठनों और विचारकों के इस कथन का भी संज्ञान लेने के लिए तैयार नहीं है कि उनके मजहब में, उनके विचारकों ने गौहत्या निषेध का निर्देश दिया है। इसलिए उन्होंने भोजन से ''मौलिक अधिकार'' की पूंछ पकड़ ली है। गौमांस खाना किस का मौलिक अधिकार हो सकता है वह भी भारत में जिसकी अस्मिता, धरती गंगा और गोमती से पहचानी जाती है। क्या उच्च न्यायालय ने केंद्रीय सरकार को निर्देश देते समय इन परिस्थितियों का संज्ञान लिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्चतर एवं व्यावसायिक शिक्षा में आरक्षण को समाप्त करने के लिए केंद्रीय एवं राज्य सरकारों को कुछ निर्देश दिया है लेकिन क्या इस समय परिस्थिति इसके लिए अनुकूल है जबकि पिछड़ा वर्ग आयोग ने क्रीमीलेयर की परिधि अधिक बढ़ाने की सिफारिश की है।
एक बात बहुत स्पष्ट है कि चाहे जितना देश के लिए हितकारी और अतीत में उसके लिए प्रयत्नशीलता भी रही हो, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में सबका साथ और सबका विकास संकल्प से जो एकता का भाव जागृत हुआ, उसको उद्धस्त किए बिना अपना अस्तित्व नहीं बच सकता, इस कुत्सित भावना के जो वशीभूत है उनका एक ही मुद्दा है नरेंद्र मोदी की छवि बिगडऩी चाहिए इसके लिए चाहे अपनी नाक ही क्यों न कटानी पड़े। हमारे देश के साहित्यकारों ने ही आग की चिंगारी दिखाई पडऩे पर पानी लेकर दौड़ पडऩे के बजाय उस पर पेट्रोल डालकर भड़काने का जो काम किया है, वह कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों द्वारा चिता पर रोटी सेंकने के प्रयास से कम निंदनीय नहीं है। लेकिन उनका उन्माद शायद ही अभी थमे। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय या हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप केंद्रीय सरकार के लिए कदम उठाना इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि जो लोग न्यायालयों के निर्देश के अनुरूप भावना रखते हैं, उनमें मुखरित होने की आदत नहीं है, यद्यपि उनका बहुमत है। जो मुखरित है वे अल्पमत में ही नहीं नितान्त अल्पमत में हैं लेकिन क्योंकि मुखर एकतरफा है इसलिए वातावरण बनाने में सफल हो जाता है। उदाहरणार्थ भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों का प्रसार और पाठन अंग्रेजी के समाचार पत्रों से हजार गुना ज्यादा है। लेकिन वे भारतीयता के प्रति उस तरह मुखरित नहीं हैं जिस तरह अभारतीयता के प्रति अंग्रेजी के समाचार पत्र। मीडिया से ऐसा लगता है जैसे भारतीयता अपराध है। वर्तमान समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है और अभिव्यक्ति के द्वंद्व का भी। जो भारतीयता के प्रति समर्पित हैं उन्हें इस द्वंद्व के मैदान में उतरना चाहिए-उतरना पड़ेगा।

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