अग्रलेख

Update: 2014-08-09 00:00 GMT

रीयल पॉलिटिक की ओर भारत

  • डॉ. रहीस सिंह 

पड़ोसियों की अहमियत किसी भी राज्य को आगे बढऩे या फिर ट्रैप में फंसे रखने में अतिमहत्वपूर्ण होती है। यह बात संयुक्त राज्य अमेरिका के संदर्भ में सीधे तौर पर देखी जा सकती है जिसका एक पड़ोसी कनाडा है और दूसरा मैक्सिको। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर अमेरिका के पड़ोसी कनाडा और मैक्सिको जैसे देश नहीं होते तो अमेरिका को आज जैसी स्थिति में पहुंचने में बहुत मुश्किल होती। राष्ट्रीय हितों के विस्तृत क्षितिजों को तलाशने और उन्हें स्थायी आधार देने में पड़ोसी देशों की खासी अहमियत होती है। हालांकि भारत का अब तक का इतिहास बताता है कि भारत इस मामले में सौभाग्यशाली नहीं रहा। इसके लिए एक तरफ तो हम अपने पड़ोसी देशों को जिम्मेदार मान सकते हैं या फिर भाग्य को जिम्मेदार मान सकते हैं लेकिन दूसरी तरफ कुछ हद तक हमारा नेतृत्व दोषी और बहुत हद तक राजनयिक प्रतिनिधि, जिन्होंने अपने भद्र जीवन पर कहीं अधिक ध्यान दिया अपेक्षाकृत राज्य की जरूरतों पर ध्यान देने के। लेकिन अब यह तस्वीर बदलती दिख रही है, जिससे भारत की छवि बदलने की संभावनाएं बढ़ गयी हैं।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के समय से ही पड़ोसी देशों के प्रति रीति और नीति दोनों के ही बदल जाने के संकेत मिल गये थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'ओथ डिप्लोमैसी द्वारा अपने पड़ोसी देशों को यह संकेत दे दिया था कि भारत अब अपने पड़ोसी देशों को साथ लेकर चलना चाहता है लेकिन किसी नेता की तरह नहीं बल्कि स्वाभाविक मित्र की तरह। हालांकि उस समय यह कयास लगाया गया था कि पाकिस्तान अपना चरित्र नहीं बदलेगा इसलिए ओथ डिप्लोमैसी से अच्छे परिणामों की उम्मीद न करने की बात कही गयी थी। ऐसा केवल भारत में ही नहीं हुआ बल्कि पाकिस्तान में भी हुआ। यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी के न्यौते पर नवाज शरीफ के भारत आगमन का भी डीएनए टेस्ट किया गया और एक-एक शब्द के मायने पाकिस्तान की उन शक्तियों ने तलाशे जो नरेन्द्र मोदी के नाम का भय पाकिस्तान में पैदा कर रही थीं। चूंकि पिछले दिनों पाकिस्तान की तरफ से सीमा रेखा पर युद्ध विराम का उल्लंघन भी किया गया इसलिए यह निष्कर्ष निकालने का अवसर मिल गया कि स्थितियां यथावत ही हैं। लेकिन 48 घंटे के अंदर भारतीय जवान को, जो धोखे से पाकिस्तान पहुंच गया, पाकिस्तान रेंजर्स द्वारा छोडऩे का फैसला वास्तव में पाकिस्तान की बदलती हुयी मनोदशा का प्रतीक माना जा सकता है। उल्लेखनीय है कि बीएसएफ जवान सत्यशील यादव अखनूर के पारग्वाल खौर सब सेक्टर में तीन अन्य कर्मियों के साथ गश्त पर था तब उसका गश्ती दल नदी में एक संकरी जगह से निकलने का प्रयास करने के समय इंजन में खराबी के कारण इसमें फंस गया। वहां एक बचाव नौका भेजी गई, यादव के तीन साथी उस नौका से बच निकले लेकिन वह स्वयं पानी की तेज धारा में फंस गया और बह गया। वह पाकिस्तान के सियालकोट में पहुंच गया। वहां ग्रामीणों ने उसे पकड़ लिया और बाद में रेंजर्स के हवाले कर दिया। शायद यह अपने किस्म की पहली घटना है जहां किसी भारतीय जवान को इतनी जल्दी रिहा किया गया है, वरना पता नहीं ऐसे कितने ही बेगुनाह भारतीय पाकिस्तान की जेलों में सड़ रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान अभी स्वयं ऐसे ट्रैप में फंसा हुआ है, जिससे निकलना बेहद मुश्किल कार्य है इसलिए उससे एक सीमा से अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती।
प्रधानमंत्री मोदी ने सबसे पहले उत्तर की ओर ध्यान दिया और विदेश नीति का पहला कदम भूटान के साथ बढ़ाया। यहां से उन्होंने न केवल चीनी रणनीति को काउंटर करने की नीति पर आगे बढऩा शुरू किया बल्कि छोटे पड़ोसी देशों को यह विश्वास भी दिलाया कि भारत उनका शुभचिंतक है और वह उनके साथ साझेदारी स्थापित कर आगे बढऩा चाहता है। भूटान को चुनने का कारण एक तो यह था कि भू-आबद्ध (लैंड लॉक्ड) देश होने के कारण भूटान भारत के लिए सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। दूसरा यह कि भूटान के साथ भारत के संबंध इतने मैत्रीपूर्ण हैं कि वहां भारतीय सेना की भी मौजूदगी है तथा भूटान भारत का अकेला ऐसा पड़ोसी देश है जिसके चीन के साथ राजनयिक संबंध नहीं हंै। तीसरा कारण यह माना जा सकता है कि भूटान भारत के पड़ोसियों में एक मात्र ऐसा देश है जिसने उन आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की है जो भारत के खिलाफ अभियान चला रहे थे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि नयी विदेश नीति में शेष पड़ोसियों की अहमियत कम की गयी। नहीं, बल्कि नयी विदेश नीति की कडिय़ां जुडऩे वाले भारतीय पड़ोसियों की सूची में नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश ....आदि हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अगले देश के रूप में नेपाल को चुना और वहां जाकर काठमांडू का ही नहीं पूरे नेपाल का मन मोह लिया जिससे घोर विरोधी माओवादी भी नहीं बच पाए।
वास्तव में 17 वर्ष बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की नेपाल में उपस्थिति और फिर पहली बार नेपाल की संसद को सम्बोधित करना, यह प्रकट करता है कि नेपाल और नेपालियों के ऊपर भारत अथवा भारत के प्रधानमंत्री अथवा दोनों छा गये। द्विपक्षीय सम्बंधों में यह आत्मीयता इस बात का संकेत करती है कि बहुत कुछ अच्छा होने वाला है। प्रधानमंत्री ने सबसे पहले तो नेपाल को सांस्कृतिक चिकित्सा के जरिए अपनी ओर आकर्षित किया और फिर सहयोग के जरिए सम्बंधों को पुनर्जीवन देने का प्रयास किया। नेपाली संसद में ही नेपाल को एक अरब डॉलर के आसान ऋण की पेशकश की गयी और 'हिटÓ (एचआईटी अर्थात हाइवेज (एच), आईवेज यानि इन्फार्मेशन टैक्नोलॉजी (आई) तथा ट्रांसवेज यानि ट्रांसमिशन (टी) के जरिए नेपाल का अधिसंरचनात्मक कायाकल्प करने का फार्मूला पेश किया गया। उसके साथ तीन समझौते कर आयोडीन युक्त नमक खरीद और वितरण के लिए साढ़े छह करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया, महाकाली नदी पर 5,600 मेगावाट की पंचेश्वर बहुद्देश्यीय परियोजना के जरिए भारत को रोशन करने और नेपाल का विकास करने का सूत्र पेश किया गया। यही नहीं उन्होंने नेपाल को यह एहसास भी कराया कि '.......... नेपाल परेशान रहेगा तो भारत चैन की नींद नहीं सो सकता..........। यानि नेपाल की सुरक्षा भारत की ही सुरक्षा का हिस्सा है। इसमें कोई संशय नहीं है कि इसके बाद नेपाल के लोगों की भारत के प्रति मनोदशा बदलेगी जिसका उन समूहों पर भी असर पड़ेगा जो भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल रहते हैं।
दरअसल चीन की रणनीति यह है कि भारत के पड़ोसी देश 'वन चाइना पॉलिसी के तहत चीन के विरुद्ध उभरने वाली प्रत्येक शक्ति को न उभरने देने के संकल्प से बंध जाएं। इसके बदले में वह उन्हें परमाणु ऊर्जा, आर्थिक निवेश और रक्षा सहायता की वचन बद्धता प्रकट करता है। इसी के जरिए वह हिन्द महासागर में स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में उसकी सैनिक और भू-सामरिक नीति, नेपाल में ट्रैक टू नीति में सफल हो रहा है। इसी वजह से भारत की वह नीति नेपथ्य में चली गयी जो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और भारतीय विदेश नीति की बुनियाद रखने वाले जवाहर लाल नेहरू ने मुनरो सिद्धांत का हिस्सा बताया था। नेहरू के इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य था एशिया को विदेशी शक्तियों से दूर रखना। वे मानते थे कि भारतीय उपमहाद्वीप में बाहरी शक्तियों की उपस्थिति भारत के लिए अच्छी नहीं है। यह नीति इंदिरा गांधी के समय भी जारी रही और इस बात पर विशेष बल दिया कि किसी तीसरी ताकत के लिए कोई जगह नहीं है और सारे मुद्दे द्विपक्षीय वार्ता के आधार पर सुलझाने चाहिए। लेकिन भारतीय राजनय के लचरपन ने श्रीलंका में नार्वे की मध्यस्थता को अनिवार्य बना दिया, नेपाल में चीनी प्रभाव के साथ-साथ आंग्ल अमरीकी हस्तक्षेप को न्यौता दिया और म्यांमार में प्रजातंत्र के पुनर्जीवन के बहाने विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त हुआ।
जो भी अब तक भारत की विदेश नीति में यह गतिशीलता नदारद थी जिसके कारण सम्बंधों में निर्वात उत्पन्न हो गया था। अब निर्वात की स्थिति समाप्त हो रही है और नयी गतिशीलता विदेश नीति के आदर्शवादी खोल से निकलकर यथार्थिक स्थिति अथवा रीयल पॉलिटिक की ओर बढ़ रही है। 

Similar News