अग्रलेख

Update: 2014-08-26 00:00 GMT

 जम्मू-कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री क्यों नहीं?

  • जयकृष्ण गौड़

जम्मू कश्मीर कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री श्यामलाल शर्मा ने राजीव गांधी की जयंती के समारोह में अखतूर कस्बे में आयोजित समारोह में कहा कि यदि गनी खान चौधरी मुस्लिम होते हुए हिन्दू बाहुल्य राज्य के मुख्यमंत्री हो सकते हंै, जिस राज्य महाराष्ट्र में मुस्लिमों की आबादी दो प्रतिशत से भी कम है वहां का मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले हो सकते हैं तो जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुल राज्य का मुख्यमंत्री हिन्दू क्यों नहीं हो सकता? यह सवाल न केवल जम्मू कश्मीर के हिन्दुओं के दर्द को व्यक्त करता है वरन सेक्यूलरी के नाम पर हिन्दुओं पर थोपे जा रहे अल्पसंख्यक वाद की पीड़ा भी भारत का बहुसंख्यक हिन्दू भुगत रहा है। हालात यह हैं कि कथित सेक्यूलरी के नाम पर भारत की मूल पहचान को भी नकारा जाता है। इसके साथ यह भी सवाल बहुसंख्य समाज के दर्द को ही व्यक्त करता है कि सेक्यूलरी का आग्रह, दबाव केवल हिन्दू समाज से ही क्यों किया जाता है। जो धर्म की व्यापकता और मूल तत्व को नहीं समझते वे सेक्यूलर शब्द का अनुवादधर्मनिरपेक्ष करते हैं भारत में हजारों वर्षों तक धर्म आधारित राज्य व्यवस्था रही है। इसी में सर्वधर्म समभाव की अवधारणा निहित है। हमारे यहां सम्प्रदाय, उपासना और मजहब आधारित भेदभाव कभी नहीं रहा।
जम्मू कश्मीर का संविधान २६ जनवरी १९५७ को लागू किया गया, जिसके अनुसार जम्म-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसमें यह भी कहा गया कि जम्मू कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो १५ अगस्त १९४७ तक राजा के आधिपत्य की प्रभुसत्ता में था। इस संदर्भ में यह उल्लेख करना होगा कि १४ नवंबर १९६२ को संसद में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि जो क्षेत्र १९६२ में चीन के कब्जे में चला गया और जिस कश्मीर के भू-भाग पर पाकिस्तानी कब्जा है उसे भारत लेकर रहेगा। संसद का संकल्प सरकार का संकल्प होता है और इस संकल्प को पूरा करने की बजाय ढीली पीली नीति से उलझन पैदा की गई। इस संदर्भ का भी ध्यान रखना होगा कि जम्मू कश्मीर की हिन्दू जनता ने ही कभी प्रजा परिषद के नेतृत्व में जम्मू कश्मीर राज्य की अस्थाई धारा ३७० के विरोध में प्रभावी आंदोलन किया। देश की एकता अखंडता के लिए जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. मुखर्जी की शेख अब्दुल्ला की जेल में हुई रहस्यमय मृत्यु कई प्रकार के संदेह को पैदा करने वाली है। डॉ. मुखर्जी के बलिदान का ही प्रमाण है कि जम्मू कश्मीर में परमिट प्रथा, दो प्रधान और अलग ध्वज का प्रावधान समाप्त हो गया। जम्मू कश्मीर के कट्टर मुस्लिमों एवं अलगाववादी तत्वों के दबाव में संविधान की अस्थाई धारा ३७० का प्रावधान रखा गया। इसके अंतर्गत १९४४ से जो इस राज्य में रहते हैं उनकी ही स्थानीय निवासी प्रमाण पत्र दिया जाता है। इसके कारण शेष भारत के निवासी जम्मू कश्मीर राज्य में न नौकरी प्राप्त कर सकते हैं और न ही जमीन खरीद सकते हैं। स्थाई निवासी प्रमाण पत्र नहीं होने के कारण १९४७ में पश्चिमी पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थी, जिनकी संख्या करीब दो लाख है, अभी भी जम्मू कश्मीर में नागरिकता और मूल अधिकारों से वंचित हैं। शासन के विकेन्द्रीकरण के ७३ एवं ७४ वें संविधान संशोधन को अभी तक वहां लागू नहीं किया। आज भी संविधान की ३४ धाराएं वहां लागू नहीं हैं। कश्मीर घाटी के ५९५३ वर्ग किमी क्षेत्र में करीब तीस लाख जनसंख्या पर विधानसभा की ४६ सीटें और तीन लोकसभा क्षेत्र हैं इसी प्रकार २६ हजार वर्ग किमी जम्मू क्षेत्र में ३७ विधान सभा और केवल दो लोकसभा क्षेत्र हैं। २००२ की जनगणना के अनुसार जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या तीस लाख ५९ हजार ९८६ है। हो सकता है कि जनसंख्या में घट बढ़ हुई है। प्रारंभ से हिन्दू जनता के साथ परिसीमन करने में धांधली हुई। इस अन्याय को भी वहां के हिन्दू बर्दाश्त कर गये। जम्मू क्षेत्र हिन्दू बाहुल्य है जबकि कश्मीर घाटी के करीब ढाई लाख हिन्दू पंडितों को आतंकवादियों एवं कट्टरपंथियों के अत्याचारों से पीडि़त कर पलायन के लिए बाध्य कर दिया। यह वैसी ही क्रूरता है्र जब भारत के नेहरू नेतृत्व ने लार्ड माउन्ट बेटन और मुस्लिम लीग के दबाव में भारत भूमि का विभाजन स्वीकार किया। इस त्रासदी को भी पूर्वी बंगाल, सिंध और पंजाब के हिन्दुओं को झेलना पड़ा, कई हिन्दू सिखों का कत्ले आम हुआ। ऐसी ही क्रूरता कश्मीर घाटी के हिन्दुओं के साथ हुई।
वर्तमान भाजपा की मोदी सरकार ने कश्मीर घाटी के हिन्दू पंडितों को वापिस लाकर उनको पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराने का वादा किया है। यह भी विचित्र स्थिति है कि राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष होता है और जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह वर्ष होता है। यही कारण है कि कश्मीर घाटी के मुस्लिम अपने को भारत से अलग मानते हंै। पं. नेहरू से लेकर अभी तक के कांग्रेस नेतृत्व सोनिया-राहुल ने भी सेक्यूलरी के नाम पर उन अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहित किया जो भारत में पाकिस्तान के एजेन्ट का काम करते हैं। इस बारे में वर्तमान घटनाक्रम का भी उल्लेख किया जा सकता है। ताशकंद, शिमला, लाहौर आगरा के समझौतों का उल्लंघन कर पाकिस्तान की ओर से हर रोज फायरिंग हो रही है। इसी बीच पाकिस्तान के हाई कमिश्नर अब्दुल बासित ने भारत सरकार के आग्रह को ठुकरा कर कश्मीर के अलगाववादियों से चर्चा की। इसके विरोध में भारत ने दोनों देशों के सचिव स्तर की प्रस्तावित चर्चा को रद्द कर दिया। यह भी कहा कि पाकिस्तान के रवैये में बदलाव नहीं होता तब तक किसी प्रकार की चर्चा नहीं होगी। अब्दुल बासित ने पत्रकार परिषद कर उलटे भारत पर आरोप लगाया कि भारत की ओर से सीमा पर फायरिंग की जाती है। पाक हाई कमिश्नर ने अलगाववादियों से चर्चा के संबंध में कहा कि भारत हमें निर्देशित नहीं कर सकता। भारत के रक्षा विभाग के प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि कश्मीर के मामले में केवल दो पक्षीय चर्चा हो सकती है, इसमें किसी तीसरे का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होगा। अपुष्ट समाचार यह है कि भारत की मोदी सरकार ने भविष्य में होने वाली पाकिस्तान के साथ चर्चा में कश्मीर का मुद्दा नहीं होगा। इस संदर्भ में उल्लेख करना होगा कि वाजपेयी सरकार के समय आगरा में पाक राष्ट्रपति मुशर्रफ से चर्चा हुई थी। यह चर्चा इसलिए टूट गई कि भारत ने यह मानने से इंकार कर दिया कि कश्मीर विवादित मुद्दा है। भाजपा के एजेन्डे में धारा ३७० की समाप्ति का मुद्दा हमेशा से रहा है। जब इस अस्थाई धारा को समाप्त करने की चर्चा होती है तो उमर अब्दुल्ला और उनके पिता डॉ. अब्दुल्ला, जिनकी नेशनल कांफ्रेन्स जेबी पार्टी है।आजादी के बाद पहली सरकार पं. नेहरू के नेतृत्व में बनी और कश्मीर के मामले को राष्ट्रसंघ में उलझाने का काम पं. नेहरू की राष्ट्रघाती नीति के कारण हुआ। इसी प्रकार शेख अब्दुल्ला को गले लगाने के कारण कश्मीर में आतंकवादी हिंसा का तांडव चला और वहां उग्रवादी और अलगाववादी अब भी सिर उठा रहे हैं। इन नागों को कुचले बिना कश्मीर घाटी सामान्य नहीं हो सकती। इस धमकी में कोई दम नहीं है कि धारा ३७० को हटाने पर कश्मीर भारत से अलग हो जायेगा।
नेहरू जी के समय से ही राष्ट्रवादी विचारों पर साम्प्रदायिकता का लेवल लगाकर देश के हिन्दुओ को दबाया गया जो देश की एकता अखंडता के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहे। इस सच्चाई पर भी पर्दा डालने की सेक्यूलरी साजिश हुई कि भारत की सनातन संस्कृति में ही देशभक्ति की ऊर्जा है। इसे ही हिन्दुत्व कहा जाता है, इस सच्चाई को इस आधार पर नहीं नकारा जा सकता कि इससे किसी राजनैतिक दल का वोट बैंक प्रभावित होता है, कुछ कथित सेक्यूलर नेताओं और मीडिया के कुछ लोगों ने जब रा.स्व. संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत की हिन्दू, हिन्दुत्व की बात की आलोचना इस आधार पर की कि हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की बातें सेक्यूलर सिद्धान्त के विपरित हैं। कठिनाई यह है कि इन सेक्यूलर नेताओं को न केवल भारत की सनातन संस्कृति की विरासत की समझ है और न हजारों वर्षों से भारत की संस्कृति आधारित राष्ट्रीयता को समझने की कोशिश करते हैं। उनकी वोट आधारित राजनीति सच्चाई से साक्षात्कार नहीं होने देती। इसे राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि सेक्यूलरी राजनीति का वोट आधारित समीकरण रहा है। इसीलिए जो सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है, उन मुस्लिमों को संतुष्ट कर थोक वोट प्राप्त करने का सिलसिला स्वतंत्रता के बाद से ही चलता रहा। इसी तुष्टीकरण के कारण मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोग भारत की संस्कृति से कटे रहते हैं। उन्हें इस सच्चाई से भी आत्मसात नहीं होने दिया कि भारत में पैदा हुए हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइयों की संस्कृति और पूर्वज समान हैं। तुष्टीकरण की नीति का ही दुष्परिणाम है कि कश्मीर में अलगाववादी पाकिस्तान के एजेन्ट बने हुए हैं, जिहादी आतंकियों का अड्डा कश्मीर बन चुका है। इन सारी बातों पर विचार करने के बाद जम्मू कश्मीर के मंत्री श्री शर्मा के इस सवाल का उत्तर मिल सकता है कि जम्मू कश्मीर सेक्यूलर राज्य है तो वहां हिन्दू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता। सेक्यूलरी के आधार पर हिन्दुओं ने तो तीन मुस्लिम राष्ट्रपति, न्यायाधीश और अन्य संवैधानिक संस्थाओं के अल्पसंख्यक अधिकारियों को पूरा सम्मान दिया है, क्या जम्मू-ृकश्मीर के हिन्दू मुख्यमंत्री को कश्मीर घाटी के मुस्लिम उतना की सम्मान देंगे ?
                                    

                                     (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्रवादी लेखक)


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