भारत का पाकिस्तान को उचित जवाब
- डॉ. रहीस सिंह
25अगस्त को इस्लामाबाद में भारत और पाकिस्तान के बीच सचिव स्तर की वार्ता होनी थी लेकिन वह पाकिस्तान की कुटिल मानसिकता की भेंट चढ़ गयी। नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को आमंत्रण देने और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री द्वारा इसे स्वीकार करने के साथ ही दोनों देशों के मध्य गरमाहट आने की संभावनाएं बनी थीं, इसके कुछ दिन बाद तक दोनों देशों के बीच एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने की प्रवृत्ति में कमी भी देखी गयी थी लेकिन पिछले कुछ दिनों से माहौल फिर बदलने लगा था जिसका परिणाम वार्ता के रद्द होने के रूप में आया। पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा कश्मीर के अलगाववादियों से मुलाकात करना पाकिस्तान के अमैत्रीपूर्ण व्यवहार का परिचायक है इसलिए भारत के इस कदम के लिए पाकिस्तान ही दोषी ठहरता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या पाकिस्तान हमारी कूटनीतिक क्षमता से आगे-आगे चलता है? पाकिस्तान आखिर इतनी ताकत कहां से बटोर लाता है कि भारत के अंदर इस तरह की हरकतें निडर होकर करता रहे और भारत की सरकारें उसे अनदेखा करती रहें या कूटनीतिक संव्यवहार मानकर उचित ठहराती रहें? क्या इसे भारत सरकार की अब तक ढुलमुल नीतियों का परिणाम माना जाए या फिर पाकिस्तान का दम्भ?
1950 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-'मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हालांकि हम एक दूसरे से जुदा हो गये हैं, हमारे अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और भौगोलिक सम्बन्ध मौलिक रूप से इतने बड़े हैं कि हर उन्माद के बावजूद, हत्या और मारकाट के बावजूद, अंतत: मूलभूत आकांक्षा बची रहेगी और अन्य सभी चीजों को परास्त कर देगी, यदि स्वभावत: भारत और पाकिस्तान इतने भयानक पिछड़े न रहे तो।Ó भारतीय विदेश नीति का यही आदर्श आज भारत पर भारी पड़ रहा है। जरूरत है कि इसे पूरा 180 डिग्री घुमा दिया जाए। सम्भवत: इसकी शुरूआत नरेन्द्र मोदी के कठोर कदम के साथ हो चुकी है। भारत की तरफ से पाकिस्तान को यह संदेश स्पष्ट शब्दों में दे दिया गया है कि वार्ता और गोलाबारी एक साथ संभव नहीं है। भारत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित का कश्मीर के अलगाववादियों से बात करना, पाकिस्तान की इस मुद्दे पर निष्ठा के बारे में सवाल खड़े करता है और भारत के प्रधानमंत्री की कूटनीतिक कोशिशों को प्रभावित करता है। पाकिस्तान को शिमला समझौते के तहत ही बातचीत करनी होगी। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की तरफ से यह भी कहा गया है कि कश्मीर पर दो ही पक्ष हैं-हम और आप। हमसे बात करें या अलगाववादियों से। हालांकि पाकिस्तान के अपने तर्क हैं, भले ही वे तर्क की श्रेणी में न आते हों।
पाकिस्तान की सरकार और अलगाववादी नेताओं का तर्क है कि पिछले 24 वर्षो के दौरान सभी प्रधानमंत्रियों वी. पी. सिंह, आई.के. गुजराल, अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक ने इस तरह की मुलाकात की अनुमति दी है। इसलिए यह तो एक परम्परागत तरीका है, अब नरेन्द्र मोदी सरकार यदि इस पर ऐतराज कर रही है तो इसका मतलब यह हुआ कि वह कश्मीर पर बातचीत की इच्छुक नहीं है। यह सच है कि भारत के पिछले कई प्रधानमंत्रियों ने इस तरह की बातचीत पर ऐतराज नहीं किया, यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय परवेज मुशर्रफ ने भी इन अलगाववादियों से मुलाकात की थी और मनमोहन सिंह के समय में भी ऐसी मुलाकातें हुईं। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं निकाला जाना चाहिए कि यह भारत की विदेश नीति की अहम परम्परा बन चुकी हैं। ये मुलाकातें किसी रचनात्मक उद्देश्य से तो होती नहीं है जिनके लिए भारत सरकार प्रोत्साहन दे, बल्कि ये मुलाकातें भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए होती हैं इसलिए इन्हें प्रत्येक स्थिति में रोकना चाहिए। लोकतंत्र का मतलब यह कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि किसी समूह या व्यक्ति को किसी पड़ोसी देश के साथ मिलकर भारत विरोधी गतिविधियों को चलाने की छूट दी जाए। यह या तो भारत की कूटनीतिक मजबूरी है अथवा उसका कथित आदर्शवादी चरित्र जिसकी वजह से भारत को काफी नुकसान उठाना पड़ा है।
यद्यपि पाकिस्तान, भारत से लम्बे समय से छद्मयुद्ध लड़ रहा है, लेकिन पाकिस्तान हमेशा ही भारत को दोषी ठहराता है। पाकिस्तानी उच्चायुक्त बासित ने भारत पर आरोप लगाते हुए कहा कि आपको ऐसा लगता है कि गोलीबारी हमारी तरफ से होती है। हम बताना चाहते हैं कि पिछले साल जुलाई से अब तक भारत ने 57 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया। दरअसल भारत ने प्रत्येक बार पाकिस्तानी सेना की हरकत का जवाब दिया, इसे ही पाकिस्तान भारत की तरफ से संघर्ष विराम तोडऩा मान रहा है। वैसे पाकिस्तान की तरफ से संघर्ष विराम का उल्लंघन करना और फिर भारत पर आरोप जडऩा कोई नयी बात नहीं है। इसलिए कभी-कभी लगने लगता है कि वर्ष 2003 का भारत-पाकिस्तान संघर्ष विराम अब निर्रथक हो गया है। पिछले वर्ष अगस्त में पाकिस्तानी सेना द्वारा 28 से अधिक बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया गया था और इस वर्ष अब तक 13 बार। पिछले वर्ष पाकिस्तान जब इस तरह की हरकतें कर रहा था तक अमेरिकी थिंक टैंक 'द हैरिटेज फाउंडेशनÓ की लीजा कर्टिस ने अपने एक बयान में कहा था कि 'ऐसा संभव है कि पाकिस्तानी सेना जान बूझकर भारत के साथ तनाव बढ़ा रही हो ताकि नवाज सरकार को दिखा सके कि वह भारत-पाकिस्तान सम्बंधों को नियंत्रित कर सकती है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन सम्भवत: नवाज को यह चेतावनी दे रही है कि पिछली सदी के अंतिम दशक की गलती को न दोहराएं।Ó यही कार्य-कारण इस समय की स्थितियों पर भी लागू होता है जिसका सीधा मतलब है भारत और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता में खलल पैदा करना। दरअसल इसके जरिए पाकिस्तानी सेना यह दिखाना चाहती है कि असली बॉस कौन है।
सवाल यह उठता है कि आखिर वह कौन सी वजह है जिसने पाकिस्तान को ऐसी हरकत करने के लिए विवश किया? अथवा वह कौन सा कारण है जिसने प्रधानमंत्री मोदी को अपने कदम पीछे हटाने के लिए विवश किया ? गौर से देखा जाए तो कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान की तरफ से की जा रही गोलाबारी ने मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करना प्रारम्भ कर दिया था क्यों देश ने मोदी को एक सशक्त राष्ट्रवादी नेता के रूप में मोदी से अपेक्षा की है कि वे पाकिस्तान सहित सभी भारत विरोधी शक्तियों को करारा जवाब देंगे। ऐसे में पाकिस्तान की हरकतों को दरकिनार करते हुए परम्परागत विदेश नीति को आगे बढ़ाते रहना उनके लिए जोखिम भरा होगा। इसमें कोई संशय नहीं है कि इस्लामी चरमपंथी एक बार फिर कश्मीर में परेशानियां खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें उन्हें पाकिस्तान का समर्थन हासिल है। प्रधानमंत्री का कश्मीर दौरे के समय पाकिस्तान पर छद्म युद्ध छेडऩे का आरोप, भी इसी तरफ इशारा कर रहा था। हालांकि नवाज शरीफ के लिए भी यह जोखिम भरा कदम था। मोदी के शपथ ग्रहण के लिए भारत आकर उन्होंने ताकतवर पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को चुनौती देने जैसा खतरा मोल लिया। पाकिस्तानी विदेश एवं सुरक्षा मामलों में उनका प्रभाव दोनों देशों के बीच तनाव बनाए रखने पर निर्भर है। पड़ोसी देश से कथित खतरे के बिना आम पाकिस्तानी न तो भारी भरकम सैन्य बजट को स्वीकार करेगा और न ही इस बात को कि आईएसआई सरकार के नियंत्रण के बगैर काम करे। कश्मीर के अलगाववादियों से बातचीत करना भी इसी प्रकार की आवश्यकता का हिस्सा है क्योंकि ये अलगाववादी आईएसआई द्वारा प्रशिक्षित और पोषित हैं, जो उसके लिए कश्मीर मुद्दे को ज्वलंत बनाए रखने का काम करते हैं। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इस समय घरेलू स्तर पर विपक्षी नेता इमरान खान और मुस्लिम धार्मिक नेता ताहिरुल कादरी के सरकार विरोधी प्रदर्शनों से घिरे हुए हैं। दोनों को ही संदिग्ध रूप से सेना का करीबी समझा जाता है। मतलब यह हुआ कि पाकिस्तान का विपक्ष, सेना, आईएसआई और चरमपंथी भारत के साथ सुधार नहीं चाहते। इस स्थिति में प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया निर्णय और पाकिस्तान को दिया गया संदेश पूर्णत: उचित है।