अग्रलेख

Update: 2014-07-05 00:00 GMT

दुनिया की दिशा बदलने का वक्त

  •  डॉ. रहीस सिंह 


आज दुनिया जिस दौर से गुजर रही है और चारों तरफ जिस तरह का वातावरण निर्मित हो रहा है उसे देखते हुए ट्राटस्की के वे शब्द याद आते हैं जो पहले विश्व युद्ध के ठीक पहले की स्थिति को लेकर कहे गये हैं। उन्होंने लिखा है कि 'उस समय की स्थिति सामान्य अफरा-तफरी वाली ही थी, किसी गहरे राष्ट्रवाद की नहीं।Ó तात्पर्य यह कि उस समय असंतोष, टकराव, प्रतिरोध और प्रतिशोध से सम्बंधित जो वातावरण बना था, उसका समाधान खोजने की बजाय दुनिया के देश उसे उकसाने का कार्य और अधिक कर रहे थे। अगर आज की स्थिति पर नजर डाली जाए तो अमेरिका, चीन सहित कुछ यूरोपीय देश जिन नीतियों पर चल रहे हैं वे उन्हीं अध्यायों का हिस्सा लगती हैं जिनकी रचना 20वीं सदी के आरम्भिक दशक में ब्रिटेन और फ्रांस अथवा जापान व जर्मनी ने रचना की थी। इसका मतलब यह हुआ कि हमें 28 जून या 28 जुलाई की उन तिथियों (आस्ट्रिया के आर्कड्यूक फर्डिनेंड की हत्या या जिस दिन घोषित तौर पर युद्ध की शुरूआत हुयी) की महत्ता नहीं मालूम जब 9 मिलियन सिपाहियों का बलिदान और करोड़ों लोगों को अकारण मौत मिली, अपंग हुए या रिफ्यूजी बने थे। आज ताकतवर राज्यों की अराजकता के साथ-साथ आतंकवाद का वायरस और भी खतरनाक हो चुका है जिसने इराक, मध्य-पूर्व के अधिकांश देशों, उत्तरी अफ्रीकी देशों के साथ-साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान को जिस तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे दुनिया के अराजकता की ओर जाने की संभावनाएं पनपने लगी हैं। क्या वैश्विक शक्तियां इन स्थितियों का गम्भीरता से आकलन कर रही हैं या फिर वे इनमें भी अपने उद्देश्यों को तलाशने की युक्तियां तलाश रही हैं?
किसी युद्ध अथवा महायुद्ध को याद करना अच्छी बात नहीं होती क्योंकि वह मानवता की पुस्तक में एक 'काला अध्याय होता है लेकिन सबक लेने की दृष्टि से उसे जानना बेहद जरूरी होता है, विशेषकर तब और जब मानवता संकट में घिरती नजर आ रही हो और दुनिया के ताकतवर देश कभी शांति के नाम पर, तो कभी लोकतंत्र के नाम पर स्वतंत्रताओं व सम्प्रभुताओं का हनन कर रहे हों। इस दृष्टि से अमेरिका सबसे आगे है लेकिन आज अमेरिका से भी अधिक चिंतित करने वाली चीन की महत्वाकांक्षाएं हैं। यूरोप भी इससे बचा नहीं है कि वह अमेरिका के साथ खड़ा है। आज के दौर में कुछ वैसे कार्य अथवा प्रयास, जो प्रथम विश्वयुद्ध के पहले ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान द्वारा किए गये थे, अमेरिका व उसके सहयोगियों के साथ-साथ चीन द्वारा किए जा रहे हैं।
यदि आज पूरी दुनिया पर नजर डाली जाए तो हथियारों के संचय की मानसिकता में परिवर्तन नहीं है, वह ठीक वैसी है जैसी कि किसी युद्ध की तैयारी से पहले होती है। आज केवल ताकतवर देश ही नहीं बल्कि विकासशील देश भी अधिक से अधिक हथियार रखना चाहते हैं भले ही उनके नागरिक भोजन और पानी की प्राथमिक आवश्यकताओं से वंचित रहें। हथियारों के जरिए जुटायी गयी शक्ति ने ही बीसवीं सदी के आरंभ में ताकतवर देशों को पूरी दुनिया पर कब्जा जमाने के लिए प्रतिद्वंद्वी मानसिकता को बढ़ावा दिया था जिसकी परिणति प्रथम विश्वयुद्ध में हुयी थी। आज की स्थिति यह है कि एक तरफ संयुक्त राष्ट्र संघ ''पीस एण्ड डेमोक्रेसी- मेक योर वॉइस हर्ड जैसी थीम पर जोर देता है लेकिन दूसरी तरफ पूरी दुनिया हथियारों की खरीद के लिए बेहद प्रतिस्पर्धी होती जा रही है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2003 से 2010 के बीच विकासशील देशों में हथियारों की खरीद के मामले में सऊदी अरब पहले स्थान पर रहा है और भारत दूसरे तथा चीन, मिस्र और इजराइल इसके बाद। महत्वपूर्ण बात यह है कि 2007 से 2010 की अवधि में निकट पूर्व (अल्जीरिया, बहरीन, मिस्र, ईरान, इजराइल, जॉर्डन, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मोरक्को, ओमान, कतर, सऊदी अरब, सीरिया, ट्यूनीशिया, यूनाइटेड अरब अमीरात और यमन आते हैं) में 51.1 प्रतिशत (91.3 अरब डॉलर) के साथ पहले स्थान पर पहुंच गया। यह वही क्षेत्र है जहां जास्मिन क्रांति हुयी और इसी क्षेत्र में अलकायदा इस्लामी मगरिब (एक्यूआइएम), बोको हराम, अल-शबाब और इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एण्ड द लैवेंट जैसे आतंकी संगठनों ने ताकत प्राप्त की। आज ये संगठन दुनिया की व्यवस्था और शांति को चुनौती दे रहे हैं जिसका समाधान फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। यानि हम फिर से एक अघोषित युद्ध की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन यहां एक प्रश्न यह उठता है कि क्या कभी यह विचार किया गया है कि इन आतंकी संगठनों के पास इतने हथियार कहां से और कैसे आये? अमेरिका और यूरोप की आर्थिक मंदी और एशिया के देशों सहित आतंकी संगठनों तक हथियार पहुंचने में कोई जटिल सम्बंध तो नहीं छुपा हुआ है?
दूसरी तरफ देखें तो हिरोशिमा और नागाशाकी के बाद समग्र नि:शस्त्रीकरण के लिए प्रतिबद्धता जाहिर करने वाले परमाणु क्लब के देशों ने 1945 से लेकर 1998 तक औसतन 38 या 39 परमाणु परीक्षण प्रतिवर्ष किये। इसी का परिणाम है कि दुनिया एक तरफ नि:शस्त्रीकरण और शांति का राग गा रही है वहीं दूसरी तरफ एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के पास 23,000 अथवा एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 23,375 परमाणु बम मौजूद हैं। सवाल यह उठता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही नि:शस्त्रीकरण के प्रयास शुरू हुए, एनपीटी और सीटीबीटी जैसी संधियां भी इसी उद्देश्य से लायी गयीं फिर आखिर दुनिया बारूद के ढेर तक कैसे पहुंच गयी। यह सवाल तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब यह बम की तकनीक और फिसाइल मैटीरियल पी-5 के देशों के पास ही हो। सवाल यह उठता है कि इसका प्रसार हुआ कैसे और क्यों ? पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, ईरान परमाणु कार्यक्रम को विकसित करने में सफल कैसे हो गये?
आज यदि यथार्थवादी चश्मे से देखा जाए तो ब्रिटेन की तरह अमेरिका कुछ कमजोर पड़ रहा है जबकि चीन जापान की तरह शक्ति अर्जित कर स्वयं को एक दैवी ताकत के रूप में पेश करने लगा है। उसके द्वारा अभी कुछ समय पहले जारी किए गये नक्शे से इसकी अनुभूति होती है। अफ्रीकी देशों में वह घुसपैठ पूरी कर चुका है, कुछ लातिन अमेरिकी देशों में उसकी पहुंच पक्की हो चुकी है और एशिया के तमाम देश उससे भय खा रहे हैं। वह कर्ज देने के मामले में विश्व बैंक के समकक्ष पहुंच गया है या उससे भी आगे निकल चुका है। धन का लालच देकर वह देशों में घुसता है और फिर उनके प्राकृतिक व भौतिक संसाधनों को अपनी अर्थव्यवस्था से जोड़ देता है। इस षड्यंत्र को जब तक उन देशों के लोग समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
बहरहाल नवसाम्राज्यवादी विशेषताएं दुनिया को पुन: वहीं लाकर खड़ा कर रही हैं जहां उसने विश्वयुद्धों की विभीषिका को देखा और झेला था। लीग ऑफ नेशंस की तरह संयुक्त राष्ट्र्र संघ ताकतवर देशों के आगे बौना पड़ रहा है। यानि यह वक्त शांति के स्वप्न में चैन की नींद सोने का नहीं है, बल्कि जागने का है ताकि दुनिया को अराजकता व नये विश्व युद्ध की ओर जाने से रोका जा सके।
                                        (जानकार- आर्थिक और वैदेशिक मामले)

Similar News