फ्रांसिस डिसूजा की क्षमा-हिन्दू राष्ट्र मुद्देे के वध-उत्सव का दुष्प्रयास - प्रवीण गुगनानी
दु:ख, शर्म, खेद, विडम्बना और नयन नीचे कि गोवा के उप मुख्यमंत्री ने हिन्दू राष्ट्र वाले मुद्दे पर क्षमा मांग ली और हिन्दू राष्ट्र के मुद्दे का एक आगे बढ़ा कदम कई कदम पीछे आ गया। यद्यपि विचार के उन्नयन क्रम में ऐसे उतार-चढ़ाव आते रहते हैं इसलिए इस क्रम को भी विचार के उन्नयन का ही अंश माना जाना चाहिए तथापि स्वीकार करना ही होगा की सदा कि तरह इस देश में निरीह होते जा रहे राष्ट्रवादियों को बाहुबली राजनैतिक खूंखार किन्तु निश्तेज, संवेदनाहीन शेरों को पुन: शिकार बनना पड़ा। यहां स्वीकारोक्ति देना होगी कि फ्रांसिस डिसूजा तो अपने कहे पर दृढ़ और टिके रहे किन्तु उनकी अपनी पार्टी ही यू-टर्न मार गई। यह भी स्वीकार करना होगा कि उन्हें इस मुद्दे पर भाजपा के समर्थन की भी आवश्यकता नहीं थी उन्हें देश, समाज और विचार का सतत समर्थन मिल रहा था, भाजपा को केवल कुछ दिन मौन रहना था और पहले इस मुद्दे पर समाज और देश की आवाज को सामने आने देना था। फ्रांसिस डिसूजा ने जो कहा वह चतुर्दिक प्रभाव करने वाला वक्तव्य था और 'प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पिछले वर्ष की उस स्वीकारोक्ति का विस्तार ही था कि वे एक हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। एक ईसाई हिन्दू की इस युगीन स्वीकारोक्ति कि 'भारत पूर्व से हिन्दू राष्ट्र है पर पीछे हटने के स्थान पर न्यायालय की शरण में जाना चाहिए था उन राजनैतिक दलों के विरुद्ध जिन्होंने इस विषय पर चर्च का आव्हान करते हुए एक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर हमला किया, चर्च के फादर से निवेदन करते हुए और साम्प्रदायिकता फैलाई। इस देश के एकाधिक उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय से सिद्ध हो चुकी यह अवधारणा कि हिन्दू एक अ-साम्प्रदायिक शब्द है के आलोक में फ्रांसिस डिसूजा की व्यक्तिगत और धार्मिक स्वतंत्रता के हनन और साम्प्रदायिता पूर्वक चर्च से राजनैतिक दलों के सार्वजनिक संवाद पर इस देश का तथाकथित बुद्धिजीवी मीडिया और उसके पूर्वाग्रही एंकरों का दायित्व बोध विलोपित क्यों हुआ? कई सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं और इतिहास जिनका जवाब भी मांगेगा और जिम्मेदारियों और दायित्वों पर अनावश्यक बैठे लोगों की एकाउंटिंग भी करेगा! भाजपा के टीवी बहसबाज भी इस बहुप्रतीक्षित, संवेदनशील, महत्वाकांक्षी पर बिना तैयारी के आये और पूर्वाग्रही टीवी एंकरों के शिकार हो गए। आज आवश्यक हो गया है कि देश, समाज और विचार के मुद्दों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों, पूर्वाग्रही टीवी एंकरों, और तथाकथित बुद्धिजीवियों की बात को ही नहीं बल्कि देश, देहाती और राष्ट्रवादी स्वरों को भी मीडिया मुखर करे और स्थान दे, समय की मांग तो यही है। टीवी के समक्ष चार व्यक्तियों का बैठ जाना और थोथा चना बाजे घना की तर्ज पर प्रत्येक राष्ट्रवादी विचार का वध-उत्सव आयोजन बंद किया जाना चाहिए या फिर इस क्रम को कम से कम बहिर्मुखी होकर समाज की आवाज को सुनने और उसे मुखर करने के सामाजिक और पेशा आधारित दायित्वों को सदाशयता से निभाना चाहिए।
हुआ यह कि गोवा की भाजपा नीत सरकार के मंत्री दीपक धवलीकर ने कह दिया कि प्र.म. नरेन्द्र मोदी को लोग समर्थन करेंगे तो भारत हिन्दू राष्ट्र बन सकता है। इतना कहने पर जब मीडिया और विपक्षी राजनैतिक दलों ने धवलीकर को घेरना प्रारम्भ किया तो उनके बचाव में गोवा के मुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा उतर आये। फ्रांसिस डिसूजा ने बेहद बौद्धिक और साहसिक वक्तव्य देकर अपनी मिट्टी का कर्ज उतारने का सराहनीय प्रयास किया कि मैं एक ईसाई हिन्दू हूं और यह राष्ट्र पहले से ही एक हिन्दू राष्ट्र है! डिसूजा के इस वक्तव्य के बाद तो जैसे मीडिया, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने तलवारें ही खींच ली।
इस मुद्दे पर कांग्रेस सहित सभी विपक्षी नेताओं ने परम्परा से एक कदम आगे जाकर राजनीति को शर्मसार किया और बाकायदा सार्वजनिक तौर पर गोवा चर्च को परामर्श दे डाला कि चर्च डिसूजा के ईसाई हिन्दू होने पर स्पष्टीकरण मांगे और उन्हें धर्म भ्रष्ट घोषित कर दे। सेक्युलर तो सदा की तरह हावी होने का प्रयास करते दिखे किन्तु इस मुद्दे पर टीवी और अन्य बहसों चर्चाओं में भाजपा के नेता रक्षात्मक भूमिका में आकर बैकफुट पर सरकते दिखने लगे तो आश्चर्य हुआ। शह पाकर गोवा चर्च के एक फादर ने सार्वजनिक बयान दिया कि हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न देखने वाले इन दोनों नेताओं पर सरकार को कार्यवाही करना चाहिए और इस देश से इन्हें निष्कासित कर दिया जाना चाहिए!
प्रश्न यह है कि यह हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा है क्या? इस देश के प्रधानमंत्री निर्वाचित हो चुके नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष ही सार्वजनिक सभा में स्वयं को हिन्दू राष्ट्रवादी घोषित किया था। नरेन्द्र मोदी ने समय-समय पर उनकी स्वयं की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को भी देश के सामने रखा और बताया है उनके लिए धर्मनिरपेक्षता या किसी अन्य सिद्धांत का एक ही मतलब है- नेशन फस्र्ट - राष्ट्र सर्वोपरि। यह हिन्दू राष्ट्र का विचार कोई नया नहीं है बल्कि पांच हजार वर्षों के इतिहास से प्रवाहित होकर हम तक आता हुआ इस देश की मिट्टी का मूल विचार है। यह इस देश के आदर्श पुरुष स्वामी विवेकानंद के मुखारविंद से इस प्रकार उच्चारित होता हुआ भी आया है कि 'हिंदू होने का मुझे अभिमान है। हिंदू शब्द सुनते ही शक्ति का उत्साहवर्धक प्रवाह आपके अंदर जागृत हो तभी आप सच्चे अर्थ में हिंदू कहने लायक बनते हैं। आपके समाज के लोगों में आपको अनेक कमियां देखने को मिलेंगी किन्तु उनकी रगों में जो हिंदू रक्त है उस पर ध्यान केन्द्रित करो। गुरु गोविंदसिंह के समान बनो। हिंदू कहते ही सब संकीर्ण विवाद समाप्त होंगे और जो जो हिंदू है उसके प्रति सघन प्रेम आपके अंत:करण में उमड़ पड़ेगा। अब इस देश ने मोदी को स्पष्ट बहुमत के साथ प्र.म. बनाकर उनकी हिन्दू राष्ट्रवादी होने की स्वीकारोक्ति को प्रमाणित भी कर लोकतांत्रिक ठप्पा भी लगा दिया।
हिन्दू शब्द के इस अर्थ से संभवत: सेक्युलरों को उनके इस शब्द पर फैलाए वितंडावाद के अर्थ अनर्थ समझ में आ जायेंगे- 'कृहिन्सायाम दुस्य्ते या सा हिंदूÓ अर्थात जो अपने मन वचन कर्मणा से हिंसा से दूर रहे वह हिंदू है। यहां हिंसा की परिभाषा को भी समझें- जो मनसा, वाचा, कर्मणा से अपने हितों के लिये दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है। लोकमान्य तिलक ने इसी सन्दर्भ में कहा है असिंधो सिन्धुपर्यंत यस्य भारत भूमिका पितृभू पुण्यभूश्चेव स वै हिंदू रीति स्मृत: -अर्थात जो सिंधु नदी के उद्गम से लेकर हिंद महासागर तक रहते हैं व इसकी सम्पूर्ण भूमि को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि मोक्षभूमि मानते हैं वे हिंदू हैं। समय-समय पर इस देश की न्याय पालिका ने भी दसियों प्रकरणों में कहा है कि हिन्दू साम्प्रदायिक शब्द नहीं है यह मात्र एक जीवन पद्धति है। तो क्या न्यायालय द्वारा हिन्दू शब्द का समझाया गया यह अर्थ भी इस देश के ये तथाकथित राजनैतिक दल नहीं मानेंगे! मोदी ने स्वयं को हिन्दू राष्ट्रवादी कहकर इस देश के मूल विचार को ही आगे बढ़ाया है और फ्रांसिस डिसूजा ने नरेन्द्र मोदी का ही अनुसरण किया है तो इसमें गलत क्या है? और इस देश को अपनी मातृभूमि और पितृभूमि मान लेने भर की योग्यता से हिन्दू हो जाने वाली अहर्ता या शर्त में अनैतिक क्या है? हम क्यों फ्रांसिस डिसूजा की आलोचना होने दें या करें? पुराणों, शास्त्रों की बातों को ये तथाकथित नव बुद्धिजीवी और सेक्युलर नजर अंदाज कर भी दें तो वे संयुक्त राष्ट्र संघ की इस परिभाषा से भारत के हिन्दू राष्ट्र होने को विलग करके बताएं। यूएनओ द्वारा दी गयी राष्ट्र की परिभाषा इस प्रकार है- 'एक ऐसा क्षेत्र जहां के अधिकांश लोग एक सामूहिक पहचान के प्रति जागरूक हों और एक सामूहिक संस्कृति साझा करते हों। इस परिभाषा के अनुसार राष्ट्र के लिये आवश्यक घटक हैं- एक भौगोलिक क्षेत्र जिसमें कुछ लोग रहते हों, उस क्षेत्र के (अधिकांश) निवासियों की एक साझा संस्कृति हो, उस क्षेत्र के (अधिकांश) निवासी अपनी विशिष्ट सामूहिक पहचान के प्रति जागरूक हों, और वहां एक पूर्ण स्वतंत्र राजनैतिक तंत्र स्थापित हो। अब ये सेक्युलर बताएं कि इस परिभाषा से फ्रांसिस डिसूजा, या नरेन्द्र मोदी या संघ के हिन्दू राष्ट्र के विचार किस प्रकार भिन्न हैं?
किन्तु यहां यक्ष प्रश्न यह भी है कि परम्परागत सूडो सेक्युलरों या छद्म धर्म निरपेक्षतावादी तो फ्रांसिस और धवलीकर के विरोध में दिखे ही साथ-साथ भाजपा के कुछ नेता भी इन दोनों नेताओं के बयान से कन्नी काटते दिखने लगेे। भाजपा को तो प्रसन्न और गौरवान्वित होना चाहिए था कि कण्व ऋषि से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक के स्वप्नों को साकार करने की ओर कदम बढ़ाता उसका एक लाल फ्रांसिस डिसूजा उसके आंचल में पल रहा है! भाजपा को इस हिन्दूराष्ट्र की बहस को अविलम्ब राष्ट्रव्यापी आकार देना चाहिए और यदि उसे कहीं असहज स्थिति का सामना करना पड़े तो अपनी मातृ संस्था संघ का वैचारिक और सांगठनिक अवलंबन लेकर नरेन्द्र मोदी की इस स्वीकारोक्ति को राष्ट्रीय स्वीकारोक्ति में बदल देना चाहिए कि 'मैं एक हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ। स्मरण रहे कि इस देश में ऐसा कहने कि नव परम्परा यहीं मुरझा न जाए कि 'मैं एक ईसाई हिन्दू हूं। यदि नरेन्द्र मोदी को इस देश की जनता से मिला स्पष्ट बहुमत का जनादेश भी भाजपा में आत्मविश्वास नहीं भर पाया तो हिन्दू राष्ट्र और इस जैसे न जाने कितने ही अन्य विषय दशकों के लिए पुन: इतिहास के पन्नों में शब्द बनकर रह जायेंगे!