अग्रलेख

Update: 2014-07-28 00:00 GMT

    उनको अपनी पटकथा लिखने के लिए चाहिए था रमजान का महीना

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

दिल्ली में अनेक राज्यों ने अपने-अपने भवन बनाये हुये है। कई राज्यों के एक नहीं दो-दो भवन हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र सरकार के भी दो भवन हैं। एक महाराष्ट्र भवन और दूसरा नव महाराष्ट्र सदन। इन भवनों में आमतौर पर सम्बंधित राज्यों के अधिकारी, विधायक या सांसद जब दिल्ली में सरकारी/गैर सरकारी काम के लिये आते हैं, तो ठहरते हैं। इन भवनों में मुहैया करवाई जाने वाली सुविधाओं और सेवाओं के लेकर आमतौर पर विवाद उठता रहता है। ठहरने वाले अतिथियों से किराया भी प्राय: बहुत कम लिया जाता है, क्योंकि अतिथि अक्सर सरकारी काम से दिल्ली आते हैं। वैसे भी सांसदों और विधायकों से ज्यादा पैसा मांगना तो मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने के बराबर है। किस्सा यह है कि नव महाराष्ट्र सदन में ठहरे अतिथियों को वहां की हर चीज से शिकायत थी। पंखे धीरे चलते हैं से लेकर रोटी अच्छी नहीं बनती। इसलिये कुछ अतिथियों ने जिसमें सांसद भी थे सदन में बाकायदा एक प्रेस कान्फ्रेंस की और सदन की रसोई में रोटी किस प्रकार की बनती है, इसको दिखाने के लिये वे पत्रकारों को सदन की रसोई में ले गये। अतिथियों में से एक ने रसोई में काम कर रहे एक कर्मचारी को वह रोटी खाने के लिये कहा जो वह सदन में आये अतिथियों को परोसता है । कर्मचारी ने आनाकानी की तो उसने जबरदस्ती रोटी उसके मुँह में ठूँस दी। पंचतंत्र की इस कथा का पहला अध्याय यहां समाप्त हो जाता है।
एक अंग्रेजी अखबार ने खोजबीन की तो पता चला कि जिस कर्मचारी के मुंह में रोटी ठूंसी गई थी वह मुसलमान था। जिस सांसद ने रोटी ठूंसी थी वह हिन्दू था। नई कहानी की पटकथा के दो पात्र तो बिलकुल सटीक फिट बैठते थे। तेल और रुई का बन्दोबस्त इस खोज से ही हो गया था। लेकिन अभी दियासलाई की खोज बाकी थी। लेकिन जब कोई पटकथा को पूरी करने के लिये आमादा ही हो तो वह दियासलाई भी ढूंढ ही लेगा। लेकिन इस पटकथा में उस अखबार को दियासलाई खोजने के लिये बहुत दूर जाना नहीं पड़ा। बिल्ली के भागों छींका टूटा। यह तो रमजान का महीना चल रहा था। इस महीने में बहुत से मुसलमान व्रत रखते हैं जिसे फारसी भाषा में रोजा कहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि जिस दिन रोटी जबरदस्ती मुंह में ठूंसी गई थी, उस दिन वह मुसलमान कर्मचारी व्रत रखे हुये था। अब कुल मिला कर डाक्यूमैंटरी बनी कि एक हिन्दू सांसद ने एक मुसलमान के मुंह में रमजान के दिनों में जबरदस्ती रोटी का टुकड़ा ठूंस कर इस्लाम का अपमान किया है। यानि कुल मिला कर जो साधारण बदसलूकी का मामला था वह हिन्दुओं द्वारा इस्लाम के अपमान में बदल गया। पंचतंत्र की इस कथा का यह दूसरा अध्याय भी यहां पर पूरा हो गया।
अखबार में पटकथा छपी और वह भी एक अंग्रेजी के अखबार में तो उसका संसद में पढ़ा जाना निश्चित ही था। लेकिन इस पटकथा को सुन कर सचमुच सभी की सोई हुई नकली पंथनिरपेक्षता जाग उठी। कहा भी गया है एक पंथनिरपेक्षता जो भारतीय संस्कृति का प्राण है और दूसरी नकली पंथ निरपेक्षता जो राजनैतिक पार्टियों की जान है। इतना हल्ला मचा कि मछली बाजार का दृश्य उपस्थित हो गया। सभी लोग खतरे में पड़े इस्लाम को बचाने के लिये कटिबद्ध हो गये। शिव सेना का वह सदस्य जिसने रसोई के कर्मचारी के मुंह में रोटी का टुकड़ा ठूंसा था, उसने माफी मांग ली। उसने कहा मुझे क्या पता कि वह कर्मचारी मुसलमान था? बात उस सांसद ने ठीक ही कही थी। किसी के मुंह पर तो लिखा नहीं होता कि वह मुसलमान है या अहमदिया? यदि लिखा भी हो तो क्या किसी को सपना आयेगा कि आजकल अरब के पंचांग में रमजान का महीना चल रहा है? लेकिन सांसद कहां मानने वाले थे। उनका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। वे इस्लाम को खतरे में पड़ता नहीं देख सकते थे। यहां आकर पंचतंत्र का तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ।
अब चौथा अध्याय। जिस अंग्रेजी अखबार ने यह पटकथा प्रचारित प्रसारित की थी उसने बीच बाजार में अपनी बाकायदा पीठ थपथपाई। देखा मेरी पटकथा कितनी हिट हो रही है? यदि इस पटकथा पर कोई छोटा-मोटा दंगा भी हो जाता तो अखबार अपनी खबर को साल की सर्वश्रेष्ठ खबर घोषित कर देता।
यह कथा सुनाने के बाद आचार्य विश्वनाथ ने उस राजा के मूर्ख पुत्रों से पूछा- एक साधारण बदसलूकी के मामले को देश के उन अखबारों ने जो निष्पक्ष पत्रकारिता का ढोंग करती नहीं थकतीं और उन विद्वानों एवं जन-जन की इच्छाओं को पहचान लेने का दावा करने वाले प्रतिनिधियों ने मजहबी रंग क्यों दिया? राजा के वे मूर्ख पुत्र भी अब तक चतुर सुजान बन चुके थे । उन्होंने उत्तर दिया कि वे सभी लोग या तो आम जन चेतना से कट चुके थे या फिर वे शुद्ध रूप से वोटों के लालच में बदसलूकी के साधारण मामले को हिन्दू-मुसलमान का विवाद बना कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे थे।
इसके बाद इस कथा का पाँचवां और अंतिम अध्याय शुरु हुआ। पता चला कि उधर श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री इस घटना से अत्यन्त व्यथित हो गये। वैसे वे यदा कदा व्यथित होते रहते हैं। लेकिन जब वे व्यथित होते हैं तो ट्वीट यानि चीं-चीं करने लगते हैं। इस बार भी उग्र हो गये। उन्होंने कहा यदि कोई शाकाहारी के मुंह में जबरदस्ती मांस ठूंस दे तो लोगों को कैसा लगेगा? यदि उन्हें इस घटना का उत्तर ही देना था तो वे कह सकते थे कि यदि कोई मुसलमान उस हिन्दू के मुंह में जिसने व्रत रखा हुआ हो तो आपको कैसा लगेगा? लेकिन रोटी इत्यादि उमर अब्दुल्ला की नजर में तुच्छ चीज है। जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बात करेगा तो मांस तक तो जायेगा ही। लेकिन शायद उनका भाव यह था कि यदि किसी शाकाहारी हिन्दू के मुंह में कोई मुसलमान मांस डाल दे तो आपको कैसा लगेगा? वैसे तो देश को उमर अब्दुल्ला का आभारी होना चाहिये कि उन्होंने मांस का जिक्र करते हुये यह नहीं बताया कि किस पशु का मांस मुंह में डाल दिया जाये? यदि वे यह भी कर देते तब भी उनका कोई क्या बिगाड़ सकता था?
अब एक ही खतरा अभी भी बना हुआ है। कहीं अंग्रेजी अखबारों की शैली को देखते हुये कल कोई उर्दू का अखबार यह ललकार न लगा दे कि क्या मुसलमान मर चुके हैं कि एक दीनी मुसलमान का रमजान का रोजा एक हिन्दू द्वारा जबरदस्ती खुलवाने के बाद भी वे चुपचाप बैठे हुये हैं? इससे पटकथा तो पूरी हो जायेगी लेकिन दो समुदायों में खाई और गहरी हो जायेगी। लेकिन मुझे पूरी आशा है कि यदि कोई उर्दू अखबार ललकार छाप भी दे तो सामान्य मुसलमान उमर अब्दुल्ला की तरह उत्तेजित नहीं होगा क्योंकि अब तक वे इतना तो समझ ही गये हैं कि कौन दरारों को चौड़ा कर उन्हें अपने राजनैतिक हितों के लिये केवल और केवल इस्तेमाल कर रहा है। जहां तक नव महाराष्ट्र सदन के एक रसोइये के साथ बदसलूकी का सवाल है उसकी सभी निन्दा करते हैं लेकिन किसी के खेत से गोभी का फूल चुरा लेने की सजा मौत तो नहीं हो सकती? ये नकली सेक्युलर यही मांग रहे हैं ।

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