अग्रलेख

Update: 2014-06-07 00:00 GMT

अमेरिका को एहसास करा दी भारत की हैसियत

  • डॉ. रहीस सिंह


दुनिया के तमाम राजनीतिक विश्लेषकों और वैश्विक विषयों के जानकारों को शायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि जिस अमेरिका ने 2005 में नरेन्द्र मोदी को वीजा देने से इनकार कर दिया था वही अमेरिका अब उन्हें वाशिंगटन आने का निमंत्रण देगा या दूसरे शब्दों में कहें तो निवेदन करेगा। इस तरह का असर केवल अमेरिकी प्रशासन पर नहीं बल्कि अमेरिकी कार्पोरेट और अमेरिकी मीडिया पर दिख रहा है जहां एक ओर नरेन्द्र मोदी को भारत आर्थिक परिदृश्य बदलता हुआ देख रहा है तो दूसरा उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखा जा रहा है जो विश्व व्यवस्था (वल्र्ड ऑर्डर) में बदलाव लाने की क्षमता रखता है। सवाल यह उठता है कि आखिर वह अमेरिका जिसने अब तक भारत के साथ शायद कभी भी बराबरी का व्यवहार नहीं किया बल्कि वह भारत के साथ एक वरिष्ठ सत्ताधारी की तरह पेश आता रहा और पिछले दस वर्षों का तो नजारा कुछ ऐसा रहा जैसे कि उसने भारत की रीजेंसी प्राप्त कर ली हो, वही आज अचानक दोनों घुटने टेकने की स्थिति में क्यों दिख रहा है?
लगभग पिछले दस साल से अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जितना सम्भव हो सका दुष्प्रचार किया जिसमें अमेरिकी मीडिया और भारत की तत्कालीन यूपीए सरकार ने पूरा सहयोग दिया। महत्वपूर्ण बात यह रही कि नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी प्रशासन या उसकी कुछ संस्थाओं द्वारा की गयी टिप्पणियों पर प्रत्युत्तर में कोई टिप्पणी नहीं की। ऐसा उन्होंने किसी भयवश नहीं किया था बल्कि यह उनके व्यक्तित्व की विराटता थी जिसका एहसास अब अमेरिका को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को हो रहा है। यह उनके व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि सरकार बनने के बाद दस दिन के भीतर ही अमेरिका को भारत की हैसियत का एहसास हो गया और वह दबंगई छोड़ आवेदन-निवेदन की मुद्रा में आ गया। पिछले दस वर्षों की स्थिति के यह ठीक विपरीत है क्योंकि पिछले दस वर्षों में भारत की कमजोर सरकार और बेहद कमजोर नेतृत्व ने भारत को बेहद कमजोर राष्ट्र के रूप में पेश किया। फलत: अमेरिका भारत का इस्तेमाल तो करता रहा लेकिन उसके 'कोर इंटरेस्ट के मुद्दे कभी साथ नहीं दिया। अब स्थिति बदल गयी है। यही वजह है कि राष्ट्रपति ओबामा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वाशिंगटन आने के लिए निमंत्रण भेजा जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। यह वार्ता सितम्बर के अंतिम सप्ताह में होनी है। बराक ओबामा-नरेन्द्र मोदी की इस मुलाकात को दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों के बीच सम्बंधों में आयी खटास दूर करने के लिए एक नये अध्याय के रूप में देखा जा रहा है।
अमेरिका की तरफ से मोदी को निमंत्रण देने की उत्सुकता से जुड़ी दो बातें महत्वपूर्ण लगती हैं। पहली यह कि अमेरिकी प्रशासन अब प्रायश्चित की मुद्रा में है। दूसरी-अमेरिका यह नहीं चाहता कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाला भारत अब चीन और रूस के साथ रणनीतिक साझीदारी को उस सीमा तक आगे बढ़ाए जिसमें अमेरिकी हित प्रभावित हों। इसके अतिरिक्त एक बात और भी हो सकती है। 2008 के मेल्टडाउन के बाद अमेरिका और यूरोप की स्थिति बेहद खराब है और अब पूंजीवाद के गढ़ में पूंजीवाद पर 'कैपिटलिज्म ईटिंग दिअर चिल्ड्रेंस जैसा आरोप लग रहा है जिससे बचने के लिए जरूरी है कि अमेरिका भारत जैसे बाजार और निवेश के क्षेत्रों निर्मित स्पेस के प्रवेश पाने के लिए भारत सरकार से अनुमति मांगकर अपने युवाओं को जीविका की व्यवस्था करना आरम्भ कर दे। हालांकि अमेरिका इनमें किसे वरीयता देना चाहेगा और भारत सरकार किसे, यह अभी सुस्पष्ट नहीं है। वैसे जिस तरह से अमेरिकी कार्पोरेट और बाजार एजेंसियों का दबाव अमेरिकी प्रशासन पर बन रहा है उससे उधर से तो आर्थिक मुद्दों पर गले लगने की संभावना अधिक है।
अमेरिका की सामरिक-रणनीतिक आवश्यकता पर गौर करें तो स्पष्ट तौर पर उसके लिए चीन और रूस दो ऐसे देश होंगे जो पिछले काफी समय से सामरिक या रणनीतिक मोर्चे पर कहीं भी अमेरिका को छोडऩा नहीं चाहते, फिर वह चाहे मसला ईरान का हो, फलस्तीन का हो, श्रीलंका का हो, सीरिया का हो या अन्य। यूक्रेन में रूसी हस्तक्षेप और दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागीरी अमेरिका के लिए अस्तित्व की चुनौती से कम नहीं है। ट्रांस-पेसिफिक क्षेत्र में तो अमेरिका की चिंता इतनी बढ़ चुकी है कि उसने जापान में ग्लोबल हॉक (अत्याधुनिक ड्रोन) तैनात कर दिए हैं और 'शांग्रिला डायलॉगÓ (सिंगापुर) में चीन पर दक्षिण पूर्व एशिया में अस्थिरता पैदा करने का आरोप भी लगाया है जो दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए किया गया है। अमेरिका ब्रिक्स के रूप में दुनिया के सबसे अधिक संभावनाओं वाले मंच अथवा रिक के रूप में भारत-रूस-चीन (रणनीतिक) त्रिकोण की सम्भावनाओं को बेहद गम्भीरता से देख रहा है। वह यह भी जान रहा है कि जापान भारत का स्वाभाविक मित्र बनेगा क्योंकि नरेन्द्र मोदी शिंजो अबे की मित्र सूची में सबसे ऊपर हैं। यही नहीं अरब दुनिया के इस्लामी राष्ट्र भी नरेन्द्र मोदी के साथ आधारभूत आर्थिक साझेदारी करेंगे, जैसी कि उनकी तरफ से इच्छा जतायी जा चुकी है। रही बात यूरोपीय देशों की तो यह यूरोपीय संघ का ही दबाव था कि अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी के प्रति अपना रवैया बदलना शुरू किया और नैंसी पावेल को नरेन्द्र मोदी से मिलने के लिए विवश किया था।
तात्पर्य यह हुआ कि बाहरी दुनिया नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत के साथ साझेदारी में बेहतर भविष्य देख रही है। भारत के पड़ोसी देशों के रवैये में बदलाव शपथ ग्रहण में शामिल होने के बाद से ही शुरू हो गया था और प्रधानमंत्री द्वारा सबसे पहले भूटान की यात्रा के निर्णय से उनमें भारत सरकार के प्रति और भी विश्वास बढ़ेगा। 8 जून को चीन के विदेश मंत्री वांग यी राष्ट्रपति के विशेष दूत के रूप में भारत आ रहे हैं जिनका उद्देश्य भारत की नयी सरकार के साथ संपर्क स्थापित करना है। लेकिन वांग की यात्रा का छुपा हुआ एजेंडा भारत-चीन मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान तथा भारत-चीन रणनीतिक व सहयोगपूर्ण साझेदारी की संभावनाएं तलाशना है। उधर रूस जल्द ही प्रधानमंत्री मोदी के साथ वार्ता कर सकता है। रूस के उप प्रधानमंत्री दिमित्री रोगोजिन, जो कि मॉस्को में भारतीय सम्बंधों के लिए सबसे अहम व्यक्ति हैं, के नये नेतृत्व के साथ वार्ता के लिए भारत आने की इसी माह में उम्मीद है। रूस के नरेन्द्र मोदी के साथ बहुत अच्छे सम्बंध रहे हैं और अब रूस परमाणु ऊर्जा तथा रक्षा क्षेत्र में भारत के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करने की इच्छा रखता है। यानि हमारा परम्परागत मित्र, जो पिछले नेतृत्व द्वारा अमेरिकापरस्ती के कारण उपेक्षित रखा गया, अब भारत के साथ नयी रणनीतिक साझेदारी स्थापित कर सकता है।
आज अर्थव्यवस्था कहीं अधिक निर्णायक विषय बन चुका है। मुझे लगता है कि अमेरिकी और यूरोपीय विश्लेषकों ने अपने नेतृत्व को यह बता दिया होगा कि अब शक्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है। 19वीं-20वीं सदी में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए जो भूमिका यूरोप और अमेरिका ने निभायी थी, 21वीं सदी में वह एशिया के पास आ चुकी है। शक्ति हस्तांतरण में अब अमेरिका और यूरोप के तमाम आर्थिक विश्लेषक और कार्पोरेट यह उम्मीद करने लगे हैं कि भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। अमेरिकी कम्पनियों और एजेंसियों ने तो अभी से मोदी सरकार के प्रति उत्साह दिखाना शुरू कर दिया है। यूएसआईबीसी सदस्य कम्पनियां बड़े सौदों के लिए भागीदारी कर रही हैं और वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा उनकी सरकार के साथ मिलकर काम करने की प्रबल इच्छा व्यक्त कर चुकी हैं। यही परिवर्तन अमेरिका को भारत के करीब आने के लिए विवश कर रहा है।
यही परिवर्तन और आवश्यकताएं अब अमेरिका को भारत के करीब आने के लिए विवश कर रही हंै। लेकिन भारत को अमेरिका के साथ आगे की साझेदारी करने से पहले कुछ आधारभूत मुद्दों पर गम्भीरता से होमवर्क करना होगा। इस दृष्टि से भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील से जुड़े एग्रीमेंट 123, हाइड एक्ट, एंड-यूज़ मॉनीटरिंग एग्रीमेंट (निगरानी करार) और भारत की यूपीए सरकार द्वारा सिविल न्यूक्लियर डील से जुड़े उत्तरदायित्व कानून में विदेशी आपूर्तिकर्ता की जिम्मेदारी तय करने वाली धारा-17 में रियायत का गलियारा...जैसे विषय ज्यादा महत्व के हैं। इसके साथ ही यह देखने की भी जरूरत भी होगी कि अमेरिका-चीन 'लव एण्ड हेट की वास्तविकता क्या है और अमेरिका दक्षिण एशिया, मध्य एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ-साथ हिन्द महासागर रिम को लेकर किस तरह की महत्वाकांक्षा रखता है। जो भी हो उसे भारत की हैसियत का एहसास कराते रहना आवश्यक होगा, जिसकी शुरूआत हो चुकी है।
                                          (जानकार- आर्थिक और वैदेशिक मामले)

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