शिया-सुन्नी युद्ध बनाम 'पेट्रोल वार'
- मुजफ्फर हुसैन
कुवैत जो अब एक स्वतंत्र राष्ट्र है कभी सऊदी अरब का ही भाग था। शताब्दियों पूर्व वह आज की तरह रेगिस्तान का ही एक हिस्सा था। मीलों की यात्रा के पश्चात कोई नखलिस्तान यानी हरियाली वाला प्रदेश दिखलाई दे तो यह उनके लिए ईश्वर का चमत्कार ही होता था। समुद्र के किनारे अरबी घोड़े भी दिखलाई पड़ते थे। अकाल के समय अरबवासी समुद्र से मछलियां पकड़कर उन पर अपना जीवन निर्वाह किया करते थे। समुद्र के किनारे काले और चिकने कीचड़ में उनके घोड़ों के पांव फंस जाते थे तो वे आकाश की ओर हाथ उठाकर कहते थे कि हे परवरदिगार हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ है कि हमारे घोड़ों के पांव इस चिकने कीचड़ में फंस जाते हैं। बेचारे उन अनपढ़ अरबों को क्या पता था कि जिस कीचड़ की वे शिकायत कर रहे हैं वही एक दिन उनके लिए वरदान बनने वाला है। क्रूड ऑयल जमीन से निकलकर समुद्र के पानी पर तैरने लगता था जिसकी चिकनाहट में घोड़ों के पांव फंस जाया करते थे। आज जो उनके लिए चिकना और काला कीचड़ था वही आज खनिज तेल के रूप में है जिसे प्राप्त कर अरबी दुनिया के लोग सबसे अमीर और साधन सम्पन्न बन गए हैं। लेकिन इस पेट्रोल ने आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ा है, क्योंकि उनकी अनिवार्यता जो काले सोने के रूप में पुकारी जाती है दुनिया वालों के लिए सबसे महंगा खजाना है। इस खजाने का प्रवाह थम जाए तो दुनिया का चलना बंद हो जाए।
जिस पेट्रोल ने अरबी दुनिया को सम्पन्नता दी वही पेट्रोल आज उनके यहां अभिशाप का कारण बन गया है। जब अरबी क्रोध में आता है तो कहने लगता है इन तेल के कुओं में एक दिन हम स्वयं ही आग लगा देंगे, क्योंकि उसी कारण बारम्बार युद्ध होते हैं। पश्चिमी राष्ट्र तो केवल इनके पीछे होते हैं वास्तविक सामना तो अरब देशों में से किसी न किसी को करना पड़ता है। अरब और अजम की लड़ाई इस्लाम से पूर्व की लड़ाई है। ईरान को अरबी जनता अजम के नाम से पुकारती है जिसका अर्थ होता है गूंगा। ईरान कृषि प्रधान और सभ्य देश है। जब इस्लाम आया तो वहां की जनता शिया बन गई इसलिए सुन्नी-शिया संघर्ष भी इसका ही एक रूप है। इस्लामी जगत में कोई भी टकराव हो लेकिन वास्तविकता तो यह है कि उन सबके पीछे केवल और केवल तेल की ही राजनीति होती है। इस प्रकार के झगड़े एक साधारण बात है लेकिन भय इस बात का है कि समय-समय पर होने वाला संघर्ष किसी दिन अणु हथियारों से दुनिया को नष्ट कर देने वाला अंतिम विश्व युद्ध न बन जाए।
मध्यपूर्व यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम की जन्मस्थली है। इनके विवाद कहीं न कहीं धर्म से जुड़े हुए हैं इसलिए वास्तव में तो जब कभी संघर्ष होता है उसमें धर्म आधारित राजनीतिक लपटें अधिक दिखलाई पड़ती हैं। आतंकवाद इसी का एक भाग है। अरबों में चाहे क्षेत्रीय युद्ध हो अथवा तो पंथ संबंधी टकराव या फिर नेतृत्व की स्पर्धा-इन सबके पीछे अरबों के पुराने चले आने वाले कबीला युद्ध की ही छाया दिखलाई पड़ती है। अब तो विश्व राजनीति इस अखाड़े का एक भाग बन गई है।
यदि बहुत पुराने इतिहास को कुरेदा नहीं जाए तब भी 1979 में सद्दाम हुसैन ने जब इराक की सत्ता संभाली तब से 2003 में उनके पतन तक इराक की जनता ने जो यातनाएं सहन कीं उसके पश्चात ओसामा बिन लादेन के संगठन
अलकायदा के जिहादी एवं अमरीका के नेतृत्व में नाटो की सेना के बीच में इराक को जो कुछ सहन करना पड़ा, लगता है वह अब भी जारी है। इराक में इस समय जो रक्तपात जारी है उसके लिए उत्तरदायी सुन्नी संगठन इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड लेवांत जिसका संक्षिप्त नाम (आईएसआईएल) है उसे ठहराया जा रहा है। इन्हें इराक और सीरिया के जिहादी कहा जा सकता है। उन्होंने इराक के उत्तर में सीरिया की सरहद पर कब्जा जमा लिया है। इस प्रकार सीरिया का उक्त संगठन इराक के उत्तरी भाग को हड़प लेना चाहता है। वे चाहते हैं कि सीरिया और इराक की सीमा पर अलशाम नाम का एक अलग देश बना लिया जाए। शाम सीरिया का पुराना नाम है जो अरबी में बहुतायत से प्रचलित है, लेकिन इसके बीच सबसे अधिक कष्ट तो उन 40 भारतीयों को हुआ है जिनका अपहरण कर लिया गया है। स्थिति में कोई विशेष अंतर तो नहीं आया है लेकिन भारतीयों की रिहाई हो गई है जो हमारे लिए संतोष की बात है।
इराक की सबसे बड़ी तेल रिफाइनरी बेज पर इसी आईएसआईएस का कब्जा है। रिफाइनरी पर अवैध कब्जा हो जाने से तेल के दामों में भारी वृद्धि हुई है, 120 डॉलर तक वह पहुंच गया है, जो विश्व की अर्थव्यवस्था के लिए खतरा माना जा रहा है। भारत में भी तेल का संकट गहराएगा इसके स्पष्ट लक्षण दिखलाई पड़ रहे हैं। इराक में पिछले तीन दशकों से अस्थिरता का वातावरण बना हुआ है, सद्दाम को फांसी दिये जाने के पश्चात अमरीका को लगता था कि वह अब इस क्षेत्र में स्थायी शांति कायम कर सकेगा लेकिन फिलहाल तो यह सपना अधूरा ही लगता है। पाठकों को यह याद दिला दें कि तेल की अस्थिरता ही विश्व की अर्थव्यवस्था को डांवाडोल बनाने के लिए उत्तरदायी है। तेल उत्पादन में सऊदी अरब का नम्बर अव्वल है। वहां अमरीका का शिकंजा मजबूत है और सऊदी शासक का शासन भी अन्य अरबी देशों की तुलना में ठीक है इसलिए दुनिया में इतना शोर नहीं मचता है लेकिन सऊदी के आसपास के तेल उत्पादक देश पिछले अनेक वर्षों से किसी न किसी बहाने अस्थिर रह रहे हैं, इसलिए विश्व की ताकतें सऊदी और इराक के मामले में हमेशा सतर्क रहती हैं। दुनिया का 11 प्रतिशत तेल उत्पादक देश केवल इराक है, लेकिन इस्लाम के नाम पर अब मध्यपूर्व में जो अनिश्चितता की आंधी आई हुई है उससे दुनिया बड़ी दुखी है। सबसे अधिक खतरे की बात तो यह है कि पूरा अरबस्तान किसी न किसी आतंकवादी देश की छाया तले जी रहा है।
सऊदी में आतंकवादियों की दाल नहीं गलती लेकिन हम देख रहे हैं कि इराक, सीरिया, यमन इसके शिकार हैं। पिछले दिनों कुछ अरब देशों में अरब वसंत की जो लहर चली उसके यहां की व्यवस्था को पतझड़ में बदल देने में कोई कसर नहीं रखी। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जहां तक क्रूड ऑयल का सवाल है इराक का हाथ कोई तेल उत्पादक देश नहीं पकड़ सकता है। वह सस्ता होने के कारण विश्व में अधिक उपयोग में लाया जाता है। इसलिए अमरीका और यूरोप इसके पीछे हर स्थिति में खड़े हो जाते हैं। यही रणनीति अलकायदा की भी है। ओसामा तो अब नहीं रहा लेकिन उसके चेले चपाटे अपना अंकुश इराक पर बनाए रखना चाहते हैं। अमरीका ने सद्दाम को फांसी देकर बहुत बड़ा संदेश दे दिया। वहां अमरीका परस्त सरकार भी कायम हो गई लेकिन ओसामा का ही संगठन और अन्य आतंकवादी नेता उसे अपना अड्डा बनाकर विश्व राजनीति में प्रासंगिक बने रहना चाहते हैं। इराक में भले ही अभी शिया सरकार बनी हो लेकिन वास्तविकता यह है कि शियाओं के बहुमत में होने के बावजूद इराक में सुन्नी सरकारें ही कायम होती रही हैं। इस बार बनी शिया सरकार को उन्हें उखाड़ फेंकने का अंतिम उद्देश्य है ताकि मध्यपूर्व में वे ताकतवर बन सकें। ईरान की शिया सरकार और इराक के शिया नेता भला किस प्रकार यह सब सहन कर सकते हैं इसलिए यह संघर्ष कभी बंद नहीं होगा। युद्ध बंद हो जाने के बाद भी शिया-सुन्नी विवाद ठंडा पडऩे वाला नहीं है। वर्तमान संघर्ष का मुख्य मुद्दा यह है कि यदि लड़ाई लम्बी चली तो क्या फिर से पुराने दिन नहीं लौट जाएंगे? लड़ाई न हो यह सभ्य दुनिया की सरकारें चाहती हैं लेकिन ओसामा की संतानें और उनके समर्थक तो यही मानते हैं कि यदि उन्होंने तलवार म्यान में रख दी तो उनके हाथ से सत्ता सरक जाएगी। अभी तो वे कहीं के भी सत्ताधीश नहीं बने हैं लेकिन उनका संघर्ष ही उनके अस्तित्व की सबसे बड़ी गारंटी है। इस संघर्ष का परिणाम क्या आएगा यह तो कहना फिलहाल कठिन है? क्योंकि वहां न तो कोई समझदार नेता है और न ही आतंकवादियों के समक्ष कोई लक्ष्य। बस वे तो यही चाहते हैं कि दुनिया में आर्थिक संकट बना रहे ताकि वे अपनी बंदूक दिखाकर लोगों को आतंकित करते रहें।
इस संकट के कारण दुनिया के अनेक देशों में आर्थिक मंदी पैदा हो रही है। खनिज तेल इतना आवश्यक हो गया है कि सभी देशों की मुद्रा का अवमूल्यन होता जा रहा है। हमारा रुपया भी गिर रहा है। विश्व की अर्थव्यवस्था की मुख्य धुरी अब खनिज तेल है इसलिए विश्व में मंदी आती है तो मिश्रित अर्थव्यवस्था के देशों को बड़ा धक्का लगता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत भी इस मंदी से बच नहीं सकेगा।