अनुच्छेद 370 पर बहस तो शुरु हो गई
- जयकृष्ण गौड़
चुनाव के दौरान जम्मू की विशाल रैली में कहा था कि अनुच्छेद ३७० से जम्मू कश्मीर के लोगों को कितना लाभ या हानि हुई है, इस पर चर्चा तो करो। यह सब जानते हैं कि भाजपा और पूर्व के जनसंघ के एजेण्डे मेें संविधान की अस्थाई अनुच्छेद ३७० को हटाने की न केवल मांग की वरन् इसके लिए सत्याग्रह किया। डॉ. मुखर्जी ने इसके लिए अपने जीवन का बलिदान दिया। इस संदर्भ में हमें इतिहास के पृष्ठों को पलटना होगा। जब 3 जून १९४६ को लार्ड माउन्ट बेटन के दबाव में कांग्रेस के पं. नेहरू प्रभावित नेतृत्व ने देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया। तब कश्मीर के राजा हरिसिंह ने कहा था कि 'मैं भी एक कश्मीरी हूंू और शेख अब्दुल्ला को अच्छी तरह जानता हंू उनके विगत जीवन और आधुनिक जीवन की हलचलों के सूक्ष्म अध्ययन से मेरी धारणा की सार्थकता प्रकट होगी। महाराजा हरिसिंह जम्मू-कश्मीर को शेख अब्दुल्ला के हाथों में सौंपने को तैयार नहीं थे। जब मुस्लिम कांफ्रें स में पाकिस्तान के निर्माता जिन्ना से कश्मीर के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि कश्मीर तो मेरी जेब में है। देश का विभाजन होते ही पाकिस्तान के कबाइलियों ने श्रीनगर पर काबिज होने के लिए हमला कर दिया। उस समय भी रा.स्व. संघ के स्वयंसेवकों ने भारतीय सेना के लिए हवाई अड्डा तैयार किया और उनको हर तरह की सहायता की। इसमें वेदप्रकाश और सूरज प्रकाश जैसे स्वयंसेवकों ने अपना बलिदान दिया। उस समय भी देश का दुर्भाग्य यह रहा कि भारतीय सैनिकों ने जब हमलावरों को खदेडऩा प्रारंभ किया, तब उनके कदमों को नेहरू सरकार ने रोक दिया। इस तरह कश्मीर के एक तिहाई भाग पर पाकिस्तान काबिज हो गया। इसके बाद नेहरूजी की नीति के कारण कश्मीर का मामला राष्ट्रसंघ में उलझ गया। 22 जून, १९५३ की रात को शेख अब्दुल्ला की जेल में डॉ. मुखर्र्जी की मृत्यु हो गई। जनसंघ के निर्माण के बाद पहला राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह डॉ. मुखर्जी के नेतृत्व में हुआ। सारे देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे की गूंज सुनाई दी। डॉ. मुखर्जी के बाद जनसंघ के नेता और कार्यकर्ता यह नारा गुंजाते रहे कि जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है इस नीति के आधार पर ही जनसंघ और भाजपा का सैद्धान्तिक एजेन्डा रहा। यदि आज नरेन्द्र मोदी की सरकार अस्थाई धारा ३७० के बारे में बहस कराना चाहती है तो इसमें किसी को आपत्ति करने का कोई कारण नहीं है। इस बारे में दो प्रकार के विचार प्रवाह हैं, एक ओर कथित सेक्युलर और कश्मीर के अलगाववादी और उमर अब्दुल्ला की सरकार है जो कश्मीर के मामले को इसलिए उलझाये रखना चाहते हैं कि इससे कश्मीर घाटी के मुस्लिम नेता नाराज हो जायेंगे। इस नाराजगी को ही पृथकतावादी नीति कह कर अनुच्छेद ३७० को बनाये रखने की पैरवी की जाती है। ये कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और कश्मीर के फारूख, उमर अब्दुल्ला धमकी दे रहे हैं कि अनुच्छेद ३७० को खत्म किया तो आग लग जायेगी, इस धमकी को बार-बार दोहराया जाता है। इस अस्थाई अनुच्छेद से पैदा हुई गंभीर समस्या से जूझते रहो, चाहे कश्मीर को अलग दर्जा देने से वहां का नागरिक अपने को कश्मीरी कहता है। वह भारतीय राष्ट्रीयता में समरस होने को तैयार नहीं है। इस संवैधानिक प्रावधान के कारण वहां की सरकार के कानून चलते हैं। वहां कोई अन्य क्षेत्र का भारतीय नागरिक जमीन नहीं खरीद सकता। इस प्रकार कश्मीर घाटी जैसा टापू बनी हुई है, जो भारत की बजाय पाकिस्तान के निकट दिखाई देती है। यह क्षेत्र आतंकवादियों की ऐशगाह बना हुआ है। भारत की सहायता से कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार फल-फूल रहा है।
जब हम अस्थाई धारा (अनुच्छेद) ३७० और कश्मीर समस्या की चर्चा करते है तब यह केवल कश्मीर घाटी के इने गिने मुस्लिमों की समस्या है। जम्मू और लद्दाक की जनता भारत की राष्ट्रीयता, संस्कृति के साथ समरस है, वे इस संविधान की अस्थाई धारा को समाप्त करना चाहते है। यह सवाल जम्मू के हिन्दुओं और लद्दाख के बौद्धों का हमेशा रहा है कि जम्मू-कश्मीर भारत का सेक्युलर राज्य है तो वहां का मुख्यमंत्री अभी तक गैर मुस्लिम क्यों नहीं बना, जबकि भारत के तीन मुस्लिम देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति रह चुके हैं। सेक्युलरी एक तरफा नहीं हो सकती। कश्मीर घाटी में भी वंशवादी राजनीति है, शेख अब्दुल्ला, फारूख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला सत्ता सुख भोग रहे हैं। हालांकि इस चुनाव ने कश्मीर की वंशवादी राजनीति का मायाजाल तहस-नहस कर दिया है। नेशनल कांफे्रंस के फारूख अब्दुल्ला पीडीपी के प्रत्याशी से पराजित हो गये है, जम्मू क्षेत्र में भी भाजपा का प्रत्याशी विजयी हुआ है। जिस तरह केन्द्र में मां-बेटे की कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया। उसी तरह कश्मीर में भी बाप-बेटे, अर्थात फारूख अब्दुल्ला और बेटे उमर अब्दुल्ला की सरकार को नकार दिया है, जम्मू क्षेत्र के सांसद और मोदी सरकार के राज्यमंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने यह कहकर इस बहस को आगे बढ़ाया कि इस अस्थाई संविधान के प्रावधान की उपयोगिता के बारे में बहस होना चाहिए। डॉ. जितेन्द्र सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने बिना सोचे समझे बयान दिया है। इस कथन से कथित सेक्युलरी कौए कांव-कांव करने लगे हैं। इनका कथन यह रहा कि भाजपा ३७० समाप्त करने का एजेन्डा पूरा करने की पहल कर रही है। यह स्थिति पृथकतावादी है। इनसे यह सवाल पूछा जा सकता है कि देश की एकता अखंडता को क्या ३७० के लिए बलिदान करना उचित है। इस संवैधानिक प्रावधान के बारे में जानकारी होना आवश्यक है। जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में यह उपबंध है, इसे संविधान सभा की सिफारिश से बदला जा सकेगा।
चाहे फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला हों या पीडीपी के मेहबूबा हों इनका तर्क यह है कि अनुच्छेद ३७० को हटाने से कश्मीर घाटी में आग लग जायेगी। यह भी चेतावनी दी गई है कि यदि इस प्रावधान को हटाया गया तो जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा। देश की अखंडता को वैसी ही चेतावनी दी जाएगी जिस तरह शेख अब्दुल्ला ने अपने राजनैतिक हित के लिए पं. नेहरू पर दबाव बनाया था, मधुर संबंध होते हुए पं. नेहरू को शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करना पड़ा, क्योंकि उसकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों की जानकारी पं. नेहरू को मिल गई थी। इतिहास के इस घटनाक्रम की गहराई से अध्ययन की आवश्यकता है कि पं. नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच मधुर संबंध किस कारण से थे। भारत सनातन राष्ट्र है, इसके समृद्ध इतिहास के साथ ऐसे घटनाक्रम का भी सरोकार रहा है जिसमें व्यक्ति ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए राष्ट्रहित को भी दांव पर लगा दिया, जयचंद, मीर जाफर आदि की गद्दारी का भी इतिहास है। यदि भारत एकजुट रहता तो कोई भी विदेशी स्वतंत्रता का चीरहरण करने की हिम्मत नहीं कर सकता।
पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के मधुर संबंधों में फंसकर राष्ट्रहित की अनदेखी कर एक परिवार के हाथों में कश्मीर को सौंप दिया। जिस तरह एक राष्ट्रघाती गलती ने कश्मीर के मामले को राष्ट्रसंघ में उलझा कर की गई, दूसरी गलती शेख अब्दुल्ला को कश्मीर सौंप कर हुई है। इसके लिए भी पं. नेहरू जिम्मेदार हंै। अब कथित सेक्युलर नेता मोदी सरकार के राज्यमंत्री के कथन को लेकर हायतोबा कर रहे हैं, इसे पृथकतावादी कहा जा रहा है। उन्हें इस बारे में नरेन्द्र मोदी को मिले जनादेश को भी समझ लेना चाहिए। भाजपा को स्पष्ट जनादेश भारत की जनता ने दिया है। इसका सीधा आशय यह भी है कि जिन सैद्धान्तिक बिन्दुओं के लिए जनसंघ से लेकर भाजपा तक संघर्ष करती रही, उसमें यह एजेन्डा भी रहा है कि अनुच्छेद ३७० को समाप्त करना, देश में समान कानून लागू करना और श्रीराम जन्मू भूमि पर भव्य राम मंदिर का निर्माण करना। यह तर्क दिया जा सकता है कि वाजपेयी सरकार भी भाजपानीत सरकार थी, उसके एजेण्डे में ये तीन सैद्धान्तिक बिन्दु नहीं थे। इस सच्चाई को सब जानते है। अटलजी के नेतृत्व में जो एनडीए सरकार थी, उसमें भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं था। सहयोगी दलों के दबाव में काम करना पड़ा। भाजपा नेतृत्व का कहना रहा कि जब भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलेगा, तब इस एजेण्डे को लागू करने का अवसर मिलेगा। अब लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट जनादेश मिला है। हालांकि नरेन्द्र मोदी ने विकास के मुद्दे पर जोर दिया। लेकिन मोदी और अन्य भाजपा नेता जानते हैं कि राष्ट्र की एकता अखंडता के लिए जम्मू-कश्मीर का अस्थाई अनुच्छेद ३७० को समाप्त करना आवश्यक है। इसी संदर्भ में यह उल्लेख करना होगा कि जब मोदी सरकार के राज्यमंत्री ने अनुच्छेद ३७० के बारे में बहस करने की बात कहीं, तब कथित सेक्यूलर जमात हो-हल्ला करने लगी। इस संबंध में रा.स्व. संघ के प्रवक्ता राम माधव की यह प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। यह राज्य अब्दुल्ला परिवार की पैतृक सम्पत्ति नहीं है। इसके बाद उमर अब्दुल्ला यह कहने लगे कि संविधान की पीठ गठित कि ये बिना अनुच्छेद ३७० को हटाया नहीं जा सकता। भाजपा को स्पष्ट जनादेश नीतिगत एजेन्डे को पूरा करने के लिए भी मिला है। देखना यह है कि अनुच्छेद ३७० के बारे में सार्थक चर्चा के बाद मोदी सरकार क्या पहल करेगी। इस पर जो बहस प्रारंभ हुई है, वह अब रूक नहीं सकती। छिछोरी बहस की बजाय राष्ट्रहित की दृष्टि से सार्थक बहस हो।
(लेखक- वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्रवादी लेखक है)