अच्छे दिनों की अपेक्षाएं
- राजनाथ सिंह 'सूर्य'
एक टीवी साक्षात्कार में कार के नीचे कुत्ते के पिल्ले के दबने पर पीड़ा सम्बन्धी जो अभिव्यक्ति की गई थी, उसे मुसलमानों से संदर्भित कर जो दुष्प्रचार नरेंद्र मोदी की छवि बिगाडऩे के लिए किया गया, वह चुनावी अभियान के अंतिम दौर में पहुंचने तक उनकी जाति की रिसर्च में जिस तरह के झूठ के सहारे उजागर करने की कोशिश हुई, उससे एक ही बात स्पष्ट होती है कि भारत में सक्रिय राजनीतिक व्यक्तियों की सामूहिकता का अतीत भले ही उज्जवल रहा हो वर्तमान घिनौना, छलावायुक्त, भुलावा देकर भुनाने की विश्वसनीयता से परिपूर्ण है। ऐसे में नरेंद्र मोदी की देश को चलाने के लिए सबका साथ की बात कितनी सार्थक साबित होगी यह कहना कठिन है। गुजरात के मुख्यमंत्री का दायित्व संभालने के कुछ ही महीने बाद गोधरा रेलवे स्टेशन पर हुए जघन्य हत्याकांड की प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात में जो दंगा हुआ, यद्यपि उसके संदर्भ में न्यायालय की समीक्षा सामने आ चुकी है, लेकिन नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर, खून का प्यासा, और हीन बताने के लिए कांग्रेस अधिवेशन में चाय बेचने के लिए स्थान देने तथा किसी इलाके में आने पर बोटी-बोटी काट डालने की धमकी देने वाले के साथ खड़े होने की जुर्रत जिन लोगों ने दिखायी, वे सभी मोदी के डेढ़ दशक के अतीत पर झूठी कहानियों से अपने एक दशक या अर्धदशक के साथ ही वर्तमान कारगुजारियों पर परदा डालने के प्रयास में असफल रहे। भारतीय लोकतंत्र में जनमानस की पैठ का इससे बड़ा और सबूत क्या हो सकता है। कुछ समय पहले एक सिने गीत सुनने को मिला था 'यह पब्लिक है सब जानती है। जनता ने कथनी से करनी पर परदा डालने का जैसा परदाफाश कर कथनी के अनुरूप करनी के स्वरूप को पहचाना है, वह भविष्य में अच्छे दिन आने के प्रति विश्वास पैदा करने में सफल रहे हैं। इसलिए अनेक कुत्सित और घृणात्मक प्रचार की आंधियां भी अवाम की आंख में धूल झोंकने में सफल नहीं हो सकी। भारतीय समाज के एक वर्ग को किसी के सत्ता में आने पर उद्वासित होने का भयादोहन देश के किसी हिस्से को, मोदी के सत्ता में आने पर, विशिष्ट आस्था की आबादी होने के कारण देश से अलग हो जाने की धमकी तक ले जाया गया और दुष्टतापूर्ण घृणात्मक प्रचार को देश के गृहमंत्री द्वारा किसी व्यक्ति के सत्ता में आने पर महिलाओं के साथ बर्ताव की जिस ओछी अभिव्यक्ति तक पहुंचाया गया, उससे सबका साथ का मोदी का सपना साकार होने का विश्वास कर पाना कठिन है।
देश के किसी एक समस्या से नहीं घिरा है। समस्याओं के कई घेरों से बिधा हुआ है। किसी भी समस्या का समाधान उसके निराकरण में विश्वास से ही संभव है। नरेंद्र मोदी देश ही नहीं दुनिया के एकमात्र व्यक्ति हैं जिनको देश विदेश दोनों ही जगह राक्षस के रूप में प्रस्तुत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। नरेंद्र मोदी ने इन प्रयासों से बिंध कर अपनी ऊर्जा को नष्ट करने के बजाय गुजरात के अवाम का विश्वास अपने विकास के कृतित्व से किया। वही कृतित्व तब देशव्यापी अनुकूलता और उनकी विश्वसनीयता का कारण बना जब वे अपनी पार्टी के द्वारा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हुए। उन पर जितने भी प्रहार किये गये उनका ओछापन निरंतर बेनकाब होकर हमलावरों को ही घायल करने का काम करता रहा। क्यों? क्योंकि जिस प्रकार 2002 की घटनाओं के बाद उन्होंने अपने ऊपर हमलों को तरजीह देने के बजाय गुजरात के विकास से विश्वास जीता, उनके चुनावी अभियान का भी वैसा ही स्वरूप रहा है। दुनिया के राजनीतिक नेताओं में नरेंद्र मोदी एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनके खिलाफ घृणात्मक प्रचार की आंधी उनके समर्थन की सुनामी में बदल गई। निश्चय ही इसका श्रेय नरेंद्र मोदी की अपनी शैली, और दृढ़ता तथा निश्छलता को दिया जाना चाहिए लेकिन भारतीय अवाम में छलक पर दुष्प्रचार छलावे से सत्ता पाने और भ्रष्टाचार से उसका दोहन करने वालों के प्रति जो जागरूकता इस निर्वाचन में प्रगट हुई है, उसे कुछ दशक पूर्व निहित स्वार्थ में छिन्न-भिन्न करने वालों के हाथों जो गति प्राप्त हुई है, उसकी यदि पुनरावृत्ति हुई तो यह देश फिर से न केवल हजार वर्ष की आधुनिक गुलामी का शिकार हो जायेगा, अपितु जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, खान-पान, रहन-सहन की विविधती के बावजूद एकात्मता की जो कड़ी कमजोर होते जाने के बावजूद अब तक टूटी नहीं है, वह टूट जाएगी। और भारत के उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर के बीच का देश होने की अवधारणा विलुप्त हो जायेगी। इसके लिए जो ताकतें निरंतर प्रयासरत हैं, वे पटखनी खाने से खामोश भले हो गई हों हौसला पस्त नहीं हुई है। वे अवसर की तलाश में है। जो जागरूकता अवाम ने उनके बहकावे में न आने की चुनाव के समय दिखाई है उसे सतत बनाये रखने की आवश्यकता है। कान से अधिक आंख पर भरोसा करना होगा।
देश की सबसे बड़ी समस्या है आस्था का अभाव। इस आम चुनाव के अभियान से पूर्व उसके लिए यह विश्वास कर पाना संभव नहीं था कि कोई ऐसा भी नेतृत्व है जिस की कथनी को करनी में बदलने का भरोसा किया जाय। नरेंद्र मोदी ने इस अनास्था को तोड़कर आस्था की पैठ बनाई है। यह पैठ इस हद तक है कि बहुत से लोग उनके पद संभालते ही सभी समस्याओं के तत्काल समाधान की उम्मीद लगा बैठे हैं। जो तत्काल क्या पांच वर्ष में भी पूरी तरह करणीय नहीं है उसकी भी अपेक्षा है। मोदी ने साठ महीने मांगे हैं, ये साठ महीने मई में ही शुरू और समाप्त नहीं होने, समस्याओं की विविधताओं को जातीय, वर्गीय, सांप्रदायिक आंकाक्षाओं को जगाकर जितना उत्तेजित किया जा चुका है वह 'मेरे सामने 120 करोड़ का हित है की नीति पर चलने में बाधा बनकर उभारने का प्रयास होगा। केंद्रीय भ्रष्टता कुशासन तथा सत्ताविहीनता ने क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का बल प्रदान किया है, उसका सम्यक समाधान बड़ी भारी चुनौती है। अभी से यह कहा जाने लगा है, क्या मोदी इनसे निजात दिला पायेंगे। अवाम को विश्वास है कि अवश्य ही। यह विश्वास ही मोदी की पूंजी है। इसे उन्होंने बहुविधि भ्रमात्मक प्रहारों को नाकाम करते हुए अर्जित किया है। उनको बदनाम करने वाले चक्रवाती तूफान तक प्रभाव डालने में असफल रहे हैं। फिर भी अपेक्षाओं का अंबार प्रतीक्षा की अवधि को घटा देता है। लोगों को बदलाव के साथ बदले की अपेक्षा है। 1977 की जनता सरकार ने बदलाव की अपेक्षा बदले को तरजीह दिया था। मोदी इस स्थिति के प्रति सावधान हैं यह उनके अभियान के अंतिम दौर की अभिव्यक्तियों से स्पष्ट है। उन्होंने गुजरात में अपने आचरण से सिद्ध भी कर दिया है कि जो विकास का एजेंडा उनकी प्राथमिकता है, उस पर अडिग हैं। लगभग एक वर्ष तक देश की राजनीति में जो कुछ घटित हुआ है उसका सम्पुट एक पुराने सिनेमा के एक गीत की दो पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है-
चाहे कितना घना हो अंधेरा
किसके रोके रूका है सवेरा।
अच्छे दिन आने वाले हैं।