मोदी के सामने जनाधार खोते विरोधी
- राजनाथ सिंह 'सूर्य'
प्रधानमंत्री पद के लिए भारतीय जनता पार्टी के संभावित प्रत्याशी के रूप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम की चर्चा शुरू होने के समय से अब तक भारतीय राजनीति में निश्चयात्मक परिवर्तन हो चुका है। जिन्होंने उस समय भविष्यवाणी की थी कि यदि भाजपा ने नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया तो लोकसभा में उसकी जितनी सीटें हैं, वे भी घट जाएंगी वहीं अब यह आंकलन पेश करने पर बाध्य हो गए हैं कि भाजपा पूर्ण बहुमत के करीब पहुंच गई है। जिनकी भविष्यवाणी थी कि मोदी को आगे करने से बहुमत न पाने की स्थिति में उसे सहयोगी दल नहीं मिलेंगे, उनका अब यह आंकलन सामने आ रहा है कि तटस्थ दल चुनाव के बाद भाजपा के ही सहयोगी बन सकेंगे। इस एक वर्ष के दौरान जहां मोदी को राक्षस, जहर की खूनी खेती करने वाला, गांधी के हत्यारोपी की विचारधारा का पोषक, गुंडा, सांप्रदायिकता का वाहक, नपुंसक, एक और पाकिस्तान बनाने वाला तथा किसी क्षेत्र में आने पर बोटी-बोटी काट डालने की धमकी देकर जनमत को अपने पक्ष में करने की कोशिश में नाकाम होते खीझ कर और अधिक तल्ख अभिव्यक्तियों में उलझते जाने में उनके विरोधियों ने अपना जनाधार खोने का काम किया है, वहीं सकारात्मक राजनीति पर अडिग रहकर मोदी ने अवाम का अभूतपूर्व विश्वास जीता है। ऐसा विश्वास जिसकी कल्पना उनके प्रति अनुकूलता रखने वालों को भी नहीं रही होगी। आश्चर्य तो यह है कि इन अभिव्यक्तियों की निंदा करने के बजाय ''सेक्युलर दल'' अमित शाह के इज्जत के लिए मतदान का बटन दबाने की-अभिव्यक्ति को सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाला करार दे रहे हैं। देश जिन समस्याओं, महंगाई, भ्रष्टाचार, विकास गति में ठहराव, मुद्रास्फीति, विदेशों में असहायता की छवि और नीति और नेतृत्व विहीन सत्ता से मस्त और क्षुब्ध है, उसे नरेंद्र मोदी जैसे एक राज्य के मुख्यमंत्री से आशा क्यों है? क्योंकि उन्होंने लोगों में इन समस्याओं से मुक्त होने की आस जगाई है। यह आस इसलिए विश्वसनीयता में बदल गई है क्योंकि मोदी जो वायदे कर रहे हैं उसे गुजरात में कर दिखाया है। उनकी कथनी और करनी में समरूपता के कारण ही उनकी विश्सनीयता स्थापित हुई है।
यों तो जातीय क्षेत्रीय और सांप्रदायिक विद्वेष उभारकर वोट बैंक की राजनीति ''युग धर्म बन गया है लेकिन इस निर्वाचन में तो उसे उभारने की सारी सीमाएं तोड़ दी गई हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दो वर्ष पूर्व, देश की संपदा पर अल्पसंख्यकों का पहला ''हक'' की अभिव्यक्ति को इतना बड़ा राजनीतिक अंगवस्त्र पहनाने की होड़ शुरू हो गई मानो इस देश का पचासी प्रतिशत मतदाता कोई अहमियत ही नहीं रखता। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में बहुसंख्यकों के प्रति ऐसी हीन अवधारणा का उदाहरण पाना संभव नहीं है। लेकिन भारत के तमाम ''सेक्युलर'' होने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों ने बहुविध प्रकार से प्रधानमंत्री के कथन 'देश की सम्पदा पर अल्पसंख्यकों का पहला हक'' प्रतिपादित किया है और उसे उत्तरोत्तर सोपान पर चढ़ाया है। उसने पचासी प्रतिशत को अपनी औकात के बारे में सचेत कर दिया। मोदी की लोकप्रियता के परवान चढऩे तथा उनके कथन की विश्वसनीयता का यह एक बड़ा कारण बना है क्योंकि जिस एक घटना को लेकर वर्षानुवर्ष उन्हें देश और दुनिया में राक्षस साबित करने की अविरल मुहिम जारी है, न केवल आरोपों की काल्पनिकता से उसकी कलई खुल गई बल्कि इसलिए भी कि मोदी ने अपने विकास संकल्प को मूर्त रूप देकर उनका मुंह बंद करने के लिए विवश कर दिया है। इसलिए बिना आधार और सबूत के केवल शोर के सहारे भ्रमित करने की मुहिम का उल्टा असर मुहिम चलाने वालों को भारी पड़ रहा है। भारत के प्रथम निर्वाचन से अब तक निर्वाचनों को जिन्होंने भी साक्षात देखा है, उनका यह मानना है कि किसी एक व्यक्ति के प्रति देश में इतनी अधिक अपेक्षा और विश्वसनीयता कभी भी नहीं रही है। जिन लोगों को इस विश्वसनीयता के मतों में परिवर्तित होने में अभी भी संदेह है, उन्हें आशंका है कि इस अकल्पनीय जनसमर्थन में प्रगल्भित होकर मतदाताओं में पैठ बनाने की प्राथमिकता से भाजपा कार्यकर्ता कहीं भटक न जाय। इसलिए भाजपा में जब भी थोड़ी सी ढुन फुन उभरती है, वह उन्हें घंटनाद की तरह सुनाई पड़ता है।
पिछले दिनों एक राजनीतिक समीक्षक ने जो अपने को 'सेक्युलर खेमे का प्रवक्ता समझते हैं, एक टीवी चैनल की चर्चा में आह भरते हुए कहा कि अब किसी विश्लेषण से कोई फायदा नहीं है, मोदी 16 मई को (मतगणना के दिन) प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं। उनकी यह आह देश के रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी द्वारा की गई उस अपील से मेल खाती है जिसमें उन्होंने कांग्रेस की असहायता को स्वीकार्यते हुए सभी ''सेक्युलर दलों की एकजुटता का आह्वान किया है। ए.के. एंटोनी जो कि स्वयं कुछ अन्य कांग्रेसी नीतिकारकों की तरह चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, का यह आह्वान पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उसकी भावी आशा राहुल गांधी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता। जहां आंकलनकर्ताओं ने भाजपा के बहुमत के करीब पहुंचने की संभावना व्यक्त की है, वहीं नरेंद्र मोदी का 272 से अधिक अविश्वसनीय समझा जाने वाला आह्वान अब उलट से अधिक के आह्वान को विश्वसनीयता प्रदान करने की ओर बढ़ा रहा है। नरेंद्र मोदी के विरोध में बढ़ता गाली गलौज पूर्व अभियान जहां मोदी की बढ़ती लोकप्रियता का परिणाम माना जा रहा है, वहीं ऐसी अभिव्यक्ति करने वालों की सीमा बढ़ती ही जा रही है। यह आश्चर्य की बात है कि जो दल अपने को अवाम से तादात्म रखने का दावा करते हैं, वे अवाम की आकांक्षाओं का संज्ञान लेने से क्यों मुंह मोड़ते रहते हैं। यों तो राजनीतिक सत्ता के भारतीय संस्करण के प्रारम्भ होने से ही नीति और नियत में चूक और खामी सत्ता की बढ़ती निरंकुशता से उत्पन्न उत्पीड़क कारण अवाम को शालते रहे हैं लेकिन पिछले एक दशक में जब देश को एक विख्यात अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री तथा ''पदमोह से ''स्पर्शविहीन सोनिया गांधी का नेतृत्व मिला, उसकी इन्तहा हो गई। क्षेत्रीय दलों के आचरण और उनके सुप्रीमो के आचरण ने भी लोगों को सचेत किया है। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चाहे अण्णा हजारे का हो, बाबा रामदेव या श्री श्री रविशंकर का सभी ने समाज में एक संचेतना पैदा की है, जिसने ''सेक्युलरिज्म की आड़ में किए जा रहे सारे अनैतिक आचरण को नाकाम कर दिया है। संभवत: यह पहला चुनाव है जिसमें सेक्युलरिज्म के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास को पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। देश के बहुमत मतदाताओं को पंद्रह प्रतिशत की चाटुकारिता के परिणामों से सचेत किया है।
लोकसभा का वर्तमान निर्वाचन जिस आशा की जागृति का माध्यम बना है उससे यह संभावना भी बलवती हुई है कि नरेंद्र मोदी के नारे ''भारत प्रथम संविधान एकमात्र धर्मग्रन्थ की सार्थकता भी लोगों को समझ में आने लगी है। लोगों में यह आशा भी बलवती हुई है कि प्रतिष्ठा हानि से जूझ रहे भारत की विश्व में प्रतिष्ठा स्थापित होगी, आंतरिक कलह और हिंसा का दौर खत्म होगा, विकास की ऐसी राह निकलेगी जो रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या का समाधान करेगी तथा वैमनस्यता के कलंक से भारत को मुक्त कर एकजन, एक संविधान और एकराष्ट्र की भावना को प्रबलता मिलेगी। एक समीक्षक ने ठीक ही कहा है कि मोदी की कसौटी होगी इन अपेक्षाओं पर खरा उतरने की। उनके प्रति समर्थन का सैलाब, अपेक्षाओं की सीमारहित आकांक्षा भी है। नरेंद्र मोदी के लिए वही चुनौती है न कि यह निर्वाचन। क्योंकि इसमें तो उनके मुकाबले सभी ने पराजय की स्थिति का आंकलन कर खीझ पर उतर आए हैं।