मोदी की लहर और मनमोहन का पराभव
- प्रो. उदय जैन
14 के लोकसभा चुनाव के मध्य में हम पहुंच चुके हैं, जबकि पांचवें चरण का मतदान समाप्त हो चुका है और चुनावी महाभारत में शब्दभेदी बाण छोड़े जा रहे हैं। सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेता एक-दूसरे पर तंज कस रहे हैं और अपने नए-नए लड़ाकों को युद्ध के मैदान में उतारा जा रहा है। कांग्रेस ने अपने प्रधानमंत्री की मुंह दिखाई नहीं की है, क्योंकि पार्टी के व्यूह रचनाकारों को लगता है कि वे पार्टी की चुनावी उपलब्धियों को चमकाने वाले न होकर उसे धूमिल करने वाले सिद्ध होंगे।
हिन्दुस्तान के राजनीतिक इतिहास में यह पहला अवसर है, जबकि 10 साल तक देश पर शासन करने वाला प्रधानमंत्री अपने ही लोगों के बीच बेगाना बना हुआ है तथा लगता है पार्टी के लिए भार माना जाने लगा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। जयप्रकाश के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के बाद भारी जनअसंतोष के दिखाई देने वाले दावानल के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी कांग्रेस की स्टार प्रचारक रहीं। भले वे चुनाव हार गई हों। ठीक यही बात 2004 और 2009 के चुनाव में देखने को मिली, जबकि एक तरफ भाजपा के स्टार प्रचारक स्वयं वाजपेयी थे तथा कांग्रेस की तरफ से प्रमुख प्रचारक राहुल गांधी, डॉ. मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी थे। फिर आज क्या हो गया है कि प्रधानमंत्री को चुनावी मैदान में उतरने को हारा हुआ दांव माना जा रहा है। शायद कांग्रेस के रणनीतिकारों की सोच ठीक हो। क्योंकि पूरे देश में यूपीए सरकार के विरूद्ध असंतोष और गुस्सा लोगों में इतना ज्यादा है कि यदि डॉ. मनमोहन सिंह जनता के बीच गए तो जनता में यह संदेश जाएगा कि कैसा बिना रीढ़ की हड्डी वाला प्रधानमंत्री है जो स्वयं तो ईमानदारी के ऊंचे प्रतिमान अपनाकर ईमानदार रहा, परंतु साथी मंत्रियों के अरबों रु. के घोटालों पर मौन बैठा रहा, आंखें मूंदे रहा...। और इसकी रही सही कसर प्रधानमंत्री के विश्वसनीय सहयोगी रहे उनके मीडिया सलाहकार संजय बारू की पुस्तक द एक्सीडेंटल प्रारंभ मिनिस्टर- द मेकिंग एण्ड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह के प्रकाशन ने पूरी कर दी। जिससे स्पष्ट हो गया है कि किस तरह सत्ता के दो केंद्र होना अंतत: एक ईमानदार और विद्वान व्यक्ति को कमजोर बनाता है और उसके पराभव का कारण बनता है। तब यह अपनी सफलता का श्रेय दूसरों को देता है, लोकसभा का चुनाव लडऩे से इंकार करता है, प्रमुख नियुक्तियां होने देने की छूट देता है और खुले तौर पर अपमानित होने के बाद भी (राहुल गांधी द्वारा) पद पर बना रहता है और अपने ही साथी मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर आंखें मूंदने की जिल्लत उठाता है। संजय बारू की यह पुस्तक भीष्म पितामह की याद दिलाती है जिन्होंने रक्षा की शपथ ली थी और अन्याय तथा असत्य का साथ दिया था। पुस्तक से यह भी स्पष्ट होता है कि किस तरह चीजों और दबावों पर झुकने से सर्वोच्च शक्तिशाली प्रधानमंत्री कार्यालय की साख गिरी। 12 राज्यों में हुए इस पांचवें चरण के मतदान में मतदाताओं ने जमकर वोट दिए और 2009 की तुलना में 5 प्रतिशत से लेकर 15 प्रतिशत ज्यादा मतदान हुआ। निश्चित ही इसका श्रेय आंदोलनों से उपजी जनचेतना और परिवर्तन की चाह को जाता है। इस उपलब्धि में चुनाव आयोग की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही कि उसने नए मतदाता बनाने, मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए जोरदार प्रयत्न किए। कितना मीठा आश्चर्य है कि मतदान के इस दौर में पश्चिमी बंगाल में 83 प्रतिशत, मणिपुर में 80 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 70 प्रतिशत, राजस्थान में 64 प्रतिशत, कर्नाटक में 68 प्रतिशत, किंतु मध्यप्रदेश में 55 प्रतिशत मतदान हुआ। अन्य राज्यों की तुलना में म.प्र. में कम मतदान हमें यह सोचने को बाध्य करता है कि अधिक मतदान करने कराने का हमारा उत्साह, सभी उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों का जोश कम तो नहीं हो रहा है या हम चुनाव के दौर में उठने वाली अफवाहों से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि लगभग 6 महीने से लगातार होने वाली जनसभाओं और महंगाई, भ्रष्टाचार और विकास की अनदेखी से उपजी जनता की हताशा से नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की जो लहर पैदा हुई है, जो अब आंधी का रूप ले चुकी है उसका सामना करने के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने को मजबूर होना पड़ा है और वे कह रही हैं कि यह विचारधारा की लड़ाई है। निश्चित ही यह विचारधारा का संघर्ष है, विकास की अवधारणा का संघर्ष है, राष्ट्र को बनाने और उसकी दिशा निर्धारण का संघर्ष है।
यह चुनाव सिद्ध करेगा कि भारत दुनिया की आर्थिक और सैनिक महाशक्ति बनेगा या वह लुंज-पुंज राष्ट्र बना रहेगा। हम शांति और अहिंसा की पूजा तो करें, किंतु शक्ति की अर्चना भी करें। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि राष्ट्रवादी शक्तियों के प्रतीक नरेन्द्र मोदी के विरोध में तुष्टिकरण में विश्वास करने वाली ताकतें एक साथ आ रही हंै। इसलिए जब कोई यह कहता है कि प्रदेशों में सपा, बसपा और कांग्रेस आपस में लड़कर सत्ता प्राप्त करती हैं, वे ही दिल्ली में जाकर आपस में हाथ मिला लेती हैं, तो वह गलत कहां है? इसलिए भुलावे के इस मकड़ जाल को तोड़ फेंकना होगा और एक पार्टी और सहयोगी दलों को स्पष्ट बहुमत में विजयी बनाना होगा। क्योंकि बहुत से सियार शेर की खाल का लिबास पहनकर सामने खेल बिगाडऩे को प्रकट हो रहे हैं। यह देश खंडित लोकसभा (हंग पार्लियामेंट) की गड़बड़ झाला से मुक्ति चाहता है। वह स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चाहता है। अन्यथा देश कमजोर होगा। इसलिए आजकल बड़ी बच्चों जैसी जुमलावली का प्रयोग हो रहा है। गुजरात के विकास मॉडल को चाय मॉडल या टॉफी मॉडल कहा जा रहा है। गुजरात आप जाएं तो सही, कुछ दिन तो वहां गुजारिये। क्या गुजरात के पैटर्न पर कश्मीर या म.प्र., उड़ीसा या पूर्वोत्तर राज्यों में टूरिज्म का विकास नहीं हो सकता?
कुल मिलाकर कहें तो थोथी/झूठी बातों, विवादित बयानों एवं भड़काने वाली ऐसी भाषाशैली का इस बार के चुनाव प्रचार में खूब उपयोग हुआ और हो रहा है, जो कि मूल मुद्दों एवं ज्वलंत समस्याओं से ध्यान भटका कर नेताओं को मीडिया एवं संचार माध्यमों में त्वरित प्रचार पाने का सबसे बड़ा हथियार बन गया। इस पूरे खेल में सभी नेता व दल हमाम में नंगे की भांति एक जैसे ही हंै, लेकिन मूल रूप से इस भद्दे प्रचार, ओछी हरकतों एवं भड़काऊ भाषाशैली के कारण जो छला गया वह मतदाता ही है। अब हम चुनाव के उस दौर में पहुंच चुके हैं, जबकि सरकार बनाने के कयास लगाना प्रारंभ हो चुके हैं। 16 मई को जबकि चुनाव परिणाम घोषित होंगे। देश में लगभग 15,000 करोड़ रु. का सट्टा लग चुका होगा। कहा जाता है कि सट्टा बाजार के आंकलन बड़े सटीक बैठते हैं। आज की स्थिति में सट्टा बाजार मोदी की तूफानी लहर का आगाज कर रहा है। जहां मोदी के प्रधानमंत्री बनने का भाव मात्र 20 पैसे है, जबकि राहुल गांधी का 80 पैसे। हमें लगता है 16 मई आते-आते ये भाव 10 पैसे और 1 रु. क्रमश: हो जाएगा। कहीं पर भी तीसरे मोर्चे या आआपा का नाम नहीं है। सटोरियों के आज की स्थिति में जो विभिन्न दलों को सीटें मिलने का अनुमान है उसके अनुसार भाजपा को 220 सीटें तथा एनडीए के सहयोगियों को 30 सीटें मिलने का अनुमान है। अर्थात उन्हें 272 का जादुई आंकड़ा पाने के लिए 22 सीटों की कमी है। सट्टा बाजार आज की स्थिति में कांग्रेस को 100 सीटें और यूपीए के अन्य सहयोगियों को 30 सीटें जीतने की संभावना जता रहा है। अभी चुनाव के चार दौर और बाकी हैं। भाजपा प्रयत्न कर सकती है कि वह अंतिम दौर में जोर लगाकर स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लें और कांग्रेस तथा तीसरा मोर्चा अपनी स्थिति सुधार लें। अब दिल्ली कितनी दूर है? विभिन्न राजनीतिक दलों के केंद्रीय कार्यालय अपने-अपने आंकलन में जुट गए हैं और बहुमत जुटाने के गणित के कठिन प्रश्नों को हल करने की कवायद में लग गए हैं।
(लेखक- अर्थशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषक हैं)