अग्रलेख

Update: 2014-03-01 00:00 GMT

क्यों नहीं छूटता पूंजीवादियों से मित्रता का मोह

  • डॉ. रहीस सिंह 

वैश्वीकरण में इस चरण में आकर इस बात का आकलन करने की जरूरत महसूस हो रही है, कि दुनिया अंतर्राष्ट्रीयतावाद के करीब पहुंच रही है या कट्टर राष्ट्रीयतावाद के किनारे? आकलन तो इस बात का भी होना चाहिए कि क्या शीतयुग की ताकतों ने अपना खेल खेलना बंद कर दिया है या अभी भी बदले हुए स्वरूप में वह किसी न किसी रूप में चल रहा है? एक और बात, क्या दुनिया पुन: दो धु्रवों में विभाजित होने की ओर जा रही है ? यदि ऐसा है तो फिर इसका समाधान क्या हो सकता है और यदि ऐसा नहीं है तो फिर यूक्रेन जैसे देश में, जहां लम्बे समय से शांतिपूर्ण विकास की धारा बह रही थी, अकस्मात इतना बड़ा विस्फोट क्यों हुआ?
पिछले कुछ वर्षों के वैश्विक समीकरणों पर गौर करें तो थोड़ी देर के लिए यह अवश्य महसूस होता है कि रूस, अमेरिका और उसके सहयोगियों के बढ़ते कदमों को रोकने की कोशिश में है। सीरिया और ईरान के मामले उसकी विजय का संकेत भी देते हैं। लेकिन क्या रूस यूक्रेन में भी वही इतिहास दोहरा पाएगा या फिर वहां पश्चिमी पूंजीवादी ताकतें उस पर भारी पड़ेंगी? दरअसल पिछले कुछ दिनों से यूक्रेन का इंडिपेंडेंट स्क्वायर भी तहरीर स्क्वायर के इतिहास को दोहराता दिख रहा है। देश के 4.5 करोड़ लोगों का गुस्सा सरकारी भवनों को क्षति पहुंचाने से लेकर सड़कों पर हिंसात्मक प्रवृत्तियों तक में दिख रहा है, राजनीतिक शक्तियां अपना उद्देश्य सिद्ध कर रही हैं जबकि रूस के साथ-साथ यूरोप तथा अमेरिका इस खेल को कुछ आयाम देने में अपनी मेधा खर्च कर रहे हैं। राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच बर्खास्त हो चुके हैं और स्पीकर ओलेक्जेंडर टर्चयोनोफ अंतरिम राष्ट्रपति बनने में कामयाब हो चुके हैं। इस पूरे घटनाक्रम को लेकर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के बौद्धिक वर्गों में एक भुनभुनाहट सी है कि यह सब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की महत्वाकांक्षा का परिणाम है क्योंकि वे इस पूर्व सोवियत गणराज्य को अपना पिट्ठू बनाकर रखना चाहते हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या पूंजीवादी ताकतें इस खेल से पूर्णत: अनभिज्ञ हैं या वे दूर-दूर तक इस ग्रेट गेम से कोई नाता नहीं रखतीं ? क्या यूक्रेनवासी यह जानते हैं कि यूरोपीय यूनियन में शामिल होने मात्र से वे पूंजीवादी संसार के योग्य खिलाड़ी बन जाएंगे? या कोई अन्य ताकते हैं जो उन्हें उकसा रही हैं?
यूक्रेन की संसद द्वारा अंतरिम राष्ट्रपति नियुक्त किए जाने के पश्चात ओलेक्जेंडर टर्चयोनोफ ने कहा, ''मैं यूक्रेन को आधुनिक यूरोपीय देश बनाना चाहता हूं। अगर मैं राष्ट्रपति पद के माध्यम से ऐसा कर सकता हूं तो मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करूंगा। प्राय: जोश में ऐसे ही शब्द बोले जाते हैं और किसी आंदोलन के दौरान देश की जनता इसे सुनना भी पसंद करती है। लेकिन क्या एक अंतरिम राष्ट्रपति यह सब करने में सक्षम हो पाएगा ? दरअसल यह पूरा मामला राजनैतिक और रूस व पश्चिमी यूरोप की महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा हुआ है। वैसे भी यह सोचने योग्य बात है कि स्थिरता हासिल कर चुका यूक्रेन आखिर अचानक हिंसात्मक क्यों हो उठा? इसे समझने के लिए देश के अंदर और बाहर मौजूद कुछ कारणों को जरूर समझना होगा जो स्थितियों को स्पष्ट करने में सक्षम हैं। पश्चिमी देशों का कहना है कि रूस यूक्रेन को फ्रैटनरल रिलेशन में बांधकर उसे अपनी कठपुतली बनाना चाहता है और उसके द्वारा घोषित फ्रैटरनल असिस्टेंस कमोबेश उसी तरह का हथियार है जिसका इस्तेमाल 1968 में प्राग्वे में और 1979 में अफगानिस्तान में अपने सैनिक आक्रमण का औचित्य साबित करने के लिए किया गया था। पश्चिमी देश यह मानते हैं कि भ्रातृत्व का प्रयोग किसी भी राज्य को सोवियत संघ की कठपुतली बनाने के लिए किया जाता था, फिर चाहे वह शांति से सम्भव हो या हिंसा से। आज भी उद्देश्य वही है।
यूक्रेन में टकराव यूक्रेन के यूरोपीय संघ अथवा रूसी नेतृत्व वाले यूरोपीय संघ में शामिल होने सम्बंधी मुद्दे को लेकर हुआ। राष्ट्रपति यानुकोविच पहले यूरोपियन यूनियन के साथ संधि करने वाले थे, लेकिन बाद में व्लादिमीर पुतिन के इशारे पर उन्होंने यू-टर्न ले लिया। जबकि विपक्ष यह चाहता था कि यूक्रेन सरकार रूस से पुरानी मित्रता को नजरअंदाज कर ईयू के साथ समझौता करे। चूंकि यानुकोविचत अपने निर्णय पर अडिग रहे इसलिए यूक्रेनियंस सड़क पर आ गये। यूक्रेन को वाया ईयू यूरोप की मुख्यधारा में शामिल करने की इच्छा को हिंसात्मक तरीके से व्यक्त किया जाने लगा। सामान्यतौर यह माना जा सकता है कि यूक्रेन के ईयू में शामिल होने से उसे मुक्त बाजार, विशाल पूंजी और उदार तंत्र के साथ जुडऩे का अवसर प्राप्त होगा। इसके बाद यूक्रेन अपने आपको पश्चिमी यूरोप के देशों की तरह रूपांतरित कर ले जाएगा। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। आज यूरोप के कई देश अपने आर्थिक उदारता के महासागर में डूब-उतरा रहे हैं, जिन्हें उबारने के लिए पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों द्वारा खेल-खेले जा रहे हैं। इसलिए यह सवाल भी स्वाभाविक है कि रूस को छोड़ ईयू के साथ जुडऩे से उसे व्यापार में जो नुकसान होगा क्या उसकी भरपाई हो पाएगी? अगर यूक्रेन की सरकार रूस को छोड़कर ईयू के साथ जाती है तो पहले कदम पर उसे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ेगा क्योंकि रूस उसे जो आर्थिक मदद देने वाला है, वह रोक दी जाएगी। लेकिन इस विषय पर यूक्रेनियन विपक्ष और यूक्रेनी जनता बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रही है। आखिर क्यों ?
महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिटेन जैसा देश यूरोपीय संघ से बाहर होना चाहता है। ब्रिटेन की यूके इंडिपेंडेंस पार्टी और फ्रांस के नेशनल फ्रंट इन देशों को ईयू से बाहर होने की मांग कर रहे हैं। जनवरी 2013 ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यह घोषणा कर चुके हैं कि 2015 में होने वाले चुनावों में जीत हासिल होने पर कंजरवेटिव सरकार बनी तो 2017 में वह यूरोप में अपने भविष्य को लेकर एक बाध्यकारी जनमत सर्वेक्षण कराना चाहेगी। अभी बीते कुछ दिन पूर्व ही स्विटजरलैंड इस बात को लेकर जनमत करा चुका है कि ईयू की तरफ से होने वाले आप्रवासन का वह कोटा तय कर देगा। यदि ईयू में प्रवेश पा जाने मात्र से किसी भी देश को प्राप्त होने वाले अनुलाभों की फेहरिस्त बहुत लम्बी हो जाएगी तो फिर ब्रिटेन, फ्रांस और स्विट्जरलैंड जैसे देश उससे अलग क्यों होना चाहते हैं ? यह सही है कि पूर्व सोवियत संघ के प्रभाव वाले पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों का यूरोपियन यूनियन में विलय रूस के लिए चिंता की बात हो सकती है क्योंकि ईयू पर अमेरिका का प्रभाव है और अमेरिका रूस के खिलाफ जिस तरह की भू-रणनीतिक तैयारियां कर रहा है, वे रूस के लिए चुनौती हैं। इसलिए पूर्व सोवियत संघ का घटक रहे पूर्वी यूरोप के छह देशों-आर्मेनिया, अजरबेजान, बेलारूस, मोलदोवा, जार्जिया और यूक्रेन यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के बाद यूरोपीय यूनियन की सीमाएं रूस को छूने लगेंगी जो रूस के लिए एक खतरा साबित होंगी।
जो भी हो, दुनिया के तमाम या खासकर उन देशों में, जो राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था के जरिए विकास की गाड़ी आगे बढ़ा रहे हैं, यह भ्रम तेजी से फैलाया जा रहा है कि वे जब तक पूंजीवादी देशों की उंगली नहीं पकड़ते तब तक समृद्धता का फल उन्हें प्राप्त नहीं होगा। ऐसे प्रचारों के समय उन्हें यह नहीं बताया जाता कि वर्ष 2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ क्या हुआ, 2010-11 में यूरो जोन के ग्रीस, पुर्तगाल, आयरलैण्ड, स्पेन.....जैसे देशों का क्या हुआ? इन देशों ने जहां एक तरफ सरकारी ऋणों को इतना बढ़ाया कि दिवालिए होने की कगार पर पहुंच गये और दूसरी तरफ जर्मनी जैसा देश सही अर्थों में इनका नियंता बन गया। परिणाम यह है कि आज वे अपनी स्वतंत्र मौद्रिक व राजकोषीय नीति का निर्माण नहीं कर सकते, अपने सामाजिक न्याय सम्बंधी कार्यक्रमों को आगे नहीं बढ़ा सकते। क्या इस तथ्य की अनदेखी कर यूक्रेन जैसे देश को यह सपना देखना चाहिए कि यूरोपियन यूनियन की उंगली पकड़ते ही उसकी तस्वीर और तकदीर, बदल जाएगी? 

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