चाय की प्याली से उठा तूफान
- मुजफ्फर हुसैन
महानगर मुंबई में विज्ञापन की दुनिया में एक क्रांतिकारी घटना उस समय घटी थी, जब चाय की प्रसिद्ध कंपनी लिपटन ने समाचार पत्रों में एक विज्ञापन दिया था। विज्ञापन में कहा गया था कि अमुक तिथि को मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया के निकट समुद्र से एक ऐसी वस्तु बाहर निकलने वाली है, जिसे देखकर दुनिया दंग रह जाएगी। यह वस्तु ऐसी होगी, जिसे अपनाने में हर कोई गर्व करेगा। इसका नशा आपके दिल और दिमाग पर छा जाएगा। हर मुंबइया इसे अपनाकर बड़प्पन महसूस करने लगेगा। वह ऐसी वस्तु होगी कि एक बार जो उसे अपना लेगा, कभी नहीं छोड़ेगा। क्योंकि वह बहुत शीघ्र ही समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक यानी स्टेट सिम्बोल बन जाएगा। उन दिनों महानगर मुंबई में छुट्टी के दिन लोगों के घूमने फिरने का सबसे आकर्षक स्थान था गेट वे ऑफ इंडिया। सामान्य हिन्दुस्तानी आज भी अपनी भाषा में उसे पालवा ही कहते हैं। पालवा चौपाटी यह दो जुड़वां नाम थे, जो अब भी प्रचलित है। अनेक सप्ताह तक प्रतीक्षा के बाद वह दिन आया और गेट वे पर भारी भीड़ एकत्रित हो गई। लोग अपनी आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। घोषित समय के अनुसार एक बहुत बड़़ा बलून किसी विशाल होड़ी पर रखे बॉक्स में से बाहर आया और धीरे-धीरे आकाश की ओर बढऩे लगा। उस पर लिखा था लिपटन चाय सबसे बढिय़ा, सबसे स्फूर्तिदायक... इस विज्ञापन से कुछ लोग बड़े खुश हुए और कुछ ठगा सा महसूस करने लगे। पुरानी पीढ़ी तो अब शेष नहीं है, लेकिन अनेक लोग आज भी उस घटना को याद करके लिपटन चाय के उक्त विज्ञापन की दाद देते हैं। लिपटन के उस पीले पैकेट पर एक विदेशी महिला और उसके पास खड़े उसके बच्चे की तस्वीर भी छपी रहती थी। कहीं ऐसा न हो कि उस चित्र का भी लोग अपने ढंग से अर्थ निकाल ले? मुंबई में उन दिनों चाय ने जिस तरह से धूम मचाई वैसी ही धूम इन दिनों चाय ने आगामी आम चुनाव को लेकर मचा रखी है।
कारण यह है कि इस समय भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के शक्तिशाली उम्मीदवार बनकर उभरे हैं। उनका भूतकाल चाय की बिक्री से जुड़ा हुआ है। चाय बेचकर खून पसीने की कमाई से अपना जीवन निर्वाह करना एक आदर्श और कड़वी सच्चाई का सबूत है, इसलिए यदि उन्होंने यह काम करके अपना जीवन बनाया है, तो निश्चित ही हम भारतवासियों के लिए यह गर्व का विषय है। जब से उनकी यह छवि विकसित होने लगी है, तो कुछ नेताओं और पार्टियों को अपना भविष्य खतरे में नजर आने लगा है। ऐसा लगने लगा कि यह व्यक्ति को सर्वहारा मजदूर बनकर हमसे सत्ता छीन सकता है। इसलिए उसका विरोध करने में ही वे अपना भला समझने लगे। गुजरात के नेता अहमद भाई पटेल और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता इसका विरोध करने के लिए मैदान में आ गए हैं। चाय और मोदी जी की गरीबी कहीं पटेल और ममता जी की पार्टी को दिल्ली जाने से नहीं रोक दे, इसलिए उन्होंने चाय विरोधी आंदोलन को जोरों से प्रारंभ कर दिया है। वे यह तो नहीं कह सके कि उन्होंने चाय तो नहीं बेची, लेकिन इस बात का पता लगा लिया कि उनका तो चाय का केंटीन था। केंटीन में भी तो चाय बनानी ही पड़ती है और वही काम करना पड़ता है, जो रास्ते पर जाकर करना पड़ता है। बल्कि मालिक के नाते दो काम और अधिक करने पड़ते हैं। इतना कह देने के बाद भी यदि वे मोदी का रिश्ता चाय से तोड़ देने में सफल हो जाते तो संभवत: उनके लिए समाधान होता।
यहां हम उनको यह याद दिला देते हैं कि इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व रेमजे मेकडान्ल्ड को भी इसी दौर से गुजरना पड़ा था, लेकिन चाय बड़ी करामाती होती है, उसके बनाने, बेचने और पिलाने से आदमी प्रधानमंत्री हाउस में पहुंच सकता है तो फिर बंगाल की नेता और अहमद भाई को झोपड़पट्टी में न सही पर्लियामेंट स्ट्रीट में तो चाय बेचना शुरू कर ही देना चाहिए, उन्हें स्पर्धा भी करनी पड़े, तब भी पीछे नहीं हटना चाहिए, क्योंकि लोग जब सिंगल चाय में गुलाम हो जाने का व्यंग कसते हैं तो फिर केंटीन का मालिक बन जाना तो निश्चित ही प्रगति का चिन्ह है। वे आवाज लगाकर अपनी सेल्समैनशिप दर्शा सकते हैं, आओ हमारी होटल में चाय पियो जी गर्म-गर्म... बिस्किट खाओ जी नरम-नरम?
हमारे देश में अब लोकतंत्र है, इसलिए चुनाव तो आते जाते रहेंगे, लेकिन 2014 का आम चुनाव चाय के लिए फिर से याद रखा जाएगा, क्योंकि इस समय यह अन्तर्राष्ट्रीय पेय भारत के लोकप्रिय नेता नरेन्द्र मोदी से जुड़ गया है। मोदी जी ने चाय बेची या नहीं अब यह सवाल गौण हो गया है। आने वाले दिनों में समाज शा के किसी विद्यार्थी के लिए डाक्टरेट लेने का विषय हो सकता है। इस समय तो भारतीय जनता पार्टी से भी उनकी बड़ी पहचान चाय बन गई है। अपने देश में लोग सांझ सवेरे कहीं न कहीं मिलते रहते हैं। कुछ गपशप होती है, कुछ सट्टे और मटके की बातें हो जाती हंै और कुछ इसे अपनी धर्म परायणता का प्रतीक भी बना लेते हैं। चौराहे पर प्याऊ लगाकर पानी पिलाना, अपनी टोली को जुटाकर गीत संगीत की महफिल जमाना और चुनाव के समय अपने दस बीस साथियों के साथ गर्मा-गरम चर्चा करते रहना हमारे यहां की प्रतिदिन की घटनाएं हैं। रात्रि भोज के पश्चात पान की दुकान पर भी ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं। धार्मिक अवसरों पर हमारे यहां भंडारे की भी प्रथा है, लेकिन वह भीड़ इस जमघट से अलग होती है।
चाय में पानी, पत्ती, शक्कर और दूध तो होता ही है, लेकिन फिर भी उसके असंख्य प्रकार है। कोई पानी कम चाय मांगता है, तो कोई लंबा पानी, कोई मीठी तो कोई फीकी, कोई काली तो कोई दूध वाली। जिस प्रकार चाय की असंख्य कम्पनियां हंै, उसी प्रकार चाय पीने वालों की भी असंख्य तादाद। चाय समाज में इतनी लोकप्रिय हो गई है कि उस पर अनेक मुहावरे बन गए हैं। किसी को कम आंकना है, तो कहा जाता है पानी कम चाय है। किसी को क्रोध अधिक आता है तो कहा जाता है कड़क चाय है। चाय को चाहत से जोड़ दिया गया है, तभी तो घर पर आमंत्रित करने के लिए कहा जाता है, हमारे यहां चाय पर अवश्य आइये। ठीक उसी प्रकार से रिश्वत देनी हो तो बड़ी खूबसूरती से कह दिया जाता है, इसे चाय पानी दे देना।
नरेन्द्र मोदी अत्यंत दूरदर्शी और बेबाक नेता हंै कि उन्होंने अपने को चाय से जोड़ दिया। संभवत: वे अपने बचपन में कृष्ण मेनन से प्रभावित रहे होंगे, क्योंकि राष्ट्र संघ में सबसे लंबा भाषण देने वाले कोई नेता हुए हैं तो वे कृष्ण मेनन थे। कहते हैं लगातार कश्मीर के मामले पर मेनन 36 घंटे तक बोलते रहे, केवल वे बीच-बीच में चाय की चुस्कियां लेना नहीं भूलते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि चाय किसी टानिक से कम नहीं है, भूली बात का स्मरण कराने की उसमें शक्ति भी है। जाने अनजाने में नरेन्द्र मोदी ने ऐसी वस्तु को अपना मोनोग्राम बना लिया कि लोगों ने उनकी पहचान को ही चाय से जोड़ दिया है। यह पहचान अब चर्चा और वाद में बदल गई है, क्योकि मोदी के नाम की चाय पर अब अनेक प्रयोग हो रहे हैं। देश के जाने माने नेता इसे स्वीकार कर रहे हैं कि मोदी ने चाय की प्याली में नहीं, बल्कि चाय की प्याली ने चुनाव में तूफान बरपा दिया है।
चाय की प्याली समाज के भिन्न वर्गों की पहचान बन गई है। कम मीठी चाय बुद्धिजीवी पीते हैं, बिल्कुल फीकी बीमार पीते हैं, जो चाय की चुस्कियां लेते हैं वे चिंतक की श्रेणी के लोग होते हैं। जो तेजी के साथ गटगटाते हैं वे जल्दबाज होते हैं। जो अधिक चाय पीते हैं वे दकियानूस होते हैं और जो बिल्कुल नहीं पीते वे संत और महात्मा की श्रेणी वाले होते हैं। चाय की इस विविधता के प्रतीक नरेन्द्र मोदी न बन जाएं वरना अनेक राजनीतिक दल अपने कार्यालयों पर यह बोर्ड लगाने के लिए मजबूर हो जाएंगे कि .... कृपया चाय पीकर दफ्तर में प्रवेश न करें?