अग्रलेख

Update: 2014-02-25 00:00 GMT

न्यायालय के निर्णय पर इतनी हायतौबा क्यों?

  •  जयकृष्ण गौड़

लोकसभा चुनाव के करीब दो माह शेष है, इसलिए चुनावी माहौल पूरे यौवन पर है। हर छोटे-बड़े दल अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए दूसरों पर आरोप लगा रहे हंै। कौन किसका सेनापति है यह भी स्पष्ट है। भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी को प्रस्तुत किया है। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात को विकास के मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया है। कांग्रेस के चुनावी अभियान की बागड़ोर शहजादे राहुल गांधी के पास है। वे कांग्रेस को नया स्वरूप देना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस का बार-बार नवीनीकरण हो रहा है। अंग्रेज की कोख से पैदा हुई कांग्रेस में चाहे आजादी के पूर्व राष्ट्रवादी नेतृत्व का वर्चस्व रहा। गांधीवादी नेतृत्व और विचार से भी कांग्रेस प्रभावित रही। आजादी के बाद नेहरूजी और उनके बाद इंदिराजी के हाथों में कांग्रेस और सरकार रही। बाद में राजीव गांधी प्रधानमंत्री हुए। अब विदेशी मूल की सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल कांग्रेस और यूपीए सरकार के प्रमुख हैं। सवाल यह है कि राहुल किन विचारों के साथ कांग्रेस का नवीनीकरण करना चाहते हैं। चुनाव के समय जो घटनाएं होती हैं या जिन बातों को मुद्दा बनाकर लोगों को प्रभावित किया जाता है। हाल ही में राजीव गांधी की हत्या में शामिल होने वाले तीन आरोपियों की सुप्रिम कोर्ट ने फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। इस निर्णय को आधार बनाकर तामिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने इन तीनों को रिहा करने का निर्णय किया। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय पर रोक लगा दी है। इस घटनाक्रम की पृष्ठ भूमि को जानना होगा। सन् १९८७ में श्रीलंका में भारतीय सेना भेजने का निर्णय राजीव गांधी ने लिया। प्रधानमंत्री और श्रीलंका के राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धन के बीच हुए एक समझौते के अनुसार शांतिसेना के नाम से भारत की सेना श्रीलंका भेजी गई। श्रीलंका के उत्तरी और पश्चिमी भागों में रह रहे तमिल भाषी लोगों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं वंशीय भावनाओं के प्रति वहां की सरकारें संवेदनशील नहीं थी। तमिलों के आक्रोशित विचारों में से उग्रवादी लिट्टे पैदा हुए। तमिलों को यह आभास हो रहा था कि श्रीलंका की सरकारें उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक का व्यवहार करती हैं। श्रीलंका के तमिलों और तमिलनाडु के तमिलों के बीच खून के रिश्ते सदियों से हैं। ऐसी स्थिति में तमिलों पर श्रीलंका में हो रहे अत्याचार से भारत के तमिल भी प्रभावित होते हैं। श्रीलंका की ओर से यह आरोप भी लगाये गये कि भारत की ओर से लिट्टों को सहायता मिलती है।
श्रीलंका में भारतीय शांति सैनिकों की कार्रवाई के बाद भी वहां की स्थिति सामान्य नहीं हुई। लड़ाई में ११०० भारतीय सैनिक शहीद हुए। इस नाजुक स्थिति के बारे में १९८८ में एर्णाकुलम में हुई भाजपा की कार्यकारिणी में पारित प्रस्ताव में कहा गया था कि श्रीलंका की स्थिति के संदर्भ में सरकार के दु:साहसपूर्ण और नासमझी भरी नीति की कीमत भारत को अपने सैनिकों का रक्त बहाकर तथा धन का नुकसान करके चुकानी पड़ रही है। इसके साथ ही हमने सिंहलियों तथा तमिलों दोनों का विश्वास खो दिया है परिणामस्वरूप श्रीलंका संभावित लेबनान बनने के कगार पर आ गया। १९८८ में राजीव सरकार ने मानहानि विरोधी विधेयक भी प्रस्तुत किया। इसका विरोध मीडिया में हुआ। १९९० में वी.पी. सिंह सरकार बनी। श्रीलंका से शांति सेना हटाने का निर्णय लिया गया। भाजपा द्वारा रामजन्म भूमि अभियान में आडवाणी जी की यात्रा को बिहार में रोका गया। भाजपा द्वारा वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद इस सरकार का पतन हुआ। यह राजनैतिक घटनाक्रम चलता रहा।
२१ मई, १९९१ को जब राजीव गांधी तमिलनाडु के श्री पेरंबुदूर में चुनावी सभा कर रहे थे, तब लिट्टे की सक्रिय सदस्य धनु जो आत्मघाती दस्ते की मानवबम थी, उसने ढीली पोशाक पहनी हुई थी। कमर के चारों ओर विस्फोटक पदार्थ की पट्टी बांध रखी थी। उसने भीड़ में से आगे आकर राजीव गांधी को माला पहिनाते हुए स्वयं को विस्फोट के साथ उड़ा दिया। इसी विस्फोट में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी की भी हत्या हो गई। उस समय १९९१ के मध्यावधि चुनाव तक चंद्रशेखर कार्यवाह प्रधानमंत्री थे। उनकी सरकार से चार महीने बाद ही कांगे्रस ने समर्थन वापिस ले लिया था।
१९९१ के मध्यावधि चुनाव का पहिला दौर समाप्त हो गया था, दूसरे दौर के चुनाव प्रचार में राजीव गांधी की हत्या हो गई। सहानुभूति लहर का असर दूसरे दौर के चुनाव परिणाम में भी दिखाई दिया। इस चुनाव में भाजपा को १२१ सीटें मिली। राजीव गांधी की हत्या के मामले में जिन आरोपियों को फांसी की सजा दी गई थी, उनकी दया याचिका ग्यारह वर्षों से राष्ट्रपति के यहां लंबित रहने से फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। तमिलों को वोट बैंक की दृष्टि से प्रभावित करने के लिए तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने इन तीन हत्यारों के साथ अन्य चार हत्या की साजिश में फंसे दोषियों को भी तीन दिन में रिहा करने का निर्णय लिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार के निर्णय पर रोक लगाते हुए जवाब मांगा है। अगली सुनवाई छह मार्च को होगी। कांग्रेस ने जयललिता के खिलाफ प्रदर्शन किया। मुंबई एवं अन्य शहरों में जयललिता के निर्णय के खिलाफ पुतले जलाये गये। यह पूरी न्यायिक प्रक्रिया है, इसका भी चुनावी लाभ लेने की कोशिश कांग्रेस कर रही है। यूपीए सरकार के वरिष्ठ मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि भाजपा प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी इस मामले में प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते। इस प्रकार की बयानबाजी और जयललिता सरकार के निर्णय से यही जाहिर होता है कि राजीव गांधी की हत्या के २२ वर्ष बाद भी कांग्रेस उस जघन्य मामले को उभारकर सहानुभूति के वोट प्राप्त करना चाहती है। यदि ऐसा नहीं है तो शहजादे राहुल गांधी ने यह क्यों कहा कि यदि प्रधानमंत्री की हत्या के मामले में न्याय नहीं मिलता तो सामान्य व्यक्ति को न्याय कैसे मिलेगा। राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी थे, इसलिए उन्हें हत्यारों की रिहाई के मामले में दु:ख होना स्वाभाविक है। लेकिन उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा हत्या के षड्यंत्र में शामिल नलिनी से मिलने गई और उसके जीवनदान की इच्छा व्यक्त की। स्वयं सोनिया गांधी ने भी इस मामले में फांसी देने का विरोध किया। अब शहजादे राहुल गांधी न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर रहे हैं। जयललिता सरकार के निर्णय को लेकर कांग्रेसी देश में प्रदर्शन कर रहे हैं, जब कि सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय पर रोक लगा दी है। कानून के शासन का अर्थ यही है कि सबके लिए समान कानून। इसमें कोई बड़ा, कोई छोटा नहीं हो सकता। क्या कांग्रेस 22 वर्ष बाद भी हत्या से उसकी सहानुभूति का राजनैतिक लाभ प्राप्त करना चाहती है। जयललिता सरकार के निर्णय और विरोध दोनों राजनैतिक लाभ के लिए हैं। जयललिता का आधार तमिल जनता है। तमिल हत्यारों के रिहा होने से उन्हें तमिल जनता की संवेदना का लाभ मिलेगा। उनके निर्णय का विरोध भी कांग्रेसी इसलिए कर रहे हैं, कि उससे सहानुभूति का राजनैतिक लाभ मिल सकता है। यही स्थिति आतंकी अफजल गुरू को फांसी देने के मामले में रही। कश्मीर की मुस्लिम जनता ने अफजल गुरू को फांसी का विरोध इसलिए किया था कि वह कश्मीरी मुस्लिम था। इस स्थिति से यह सवाल चर्चा का हो सकता है कि क्या क्षेत्रीय भावना को राजनैतिक दृष्टि से भुनाना चाहिए। राजीव गांधी के हत्यारों का मामला शुद्ध कानूनी है, फिर इतना हो-हल्ला और बयानबाजी क्यों? विरोध करने वाले क्या न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करना चाहते हैं। यही सवाल जयललिता से है, उन्हें इन हत्यारों को रिहा करने की जल्दी क्यों ? उनका सरोकार केवल तमिल जनता से है, इस मामले में राष्ट्रीय दृष्टि क्या हो? इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है।
यही स्थिति आंध्र के एक हिस्से को तेलंगाना राज्य बनाने से उपजे विरोध और समर्थन की है। अलग राज्य होने से तेलंगाना का तेजी से विकास होगा। छोटे राज्यों की स्थिति बड़े राज्यों से बेहतर है, इस बारे में चर्चा होने की बजाय, यह चर्चा महत्व की हो गई है कि इस २९ वें राज्य के निर्णय से राजनैतिक लाभ किसे कितना मिलेगा। आज तक टीवी चैनल ने तो तेलंगाना राज्य से राजनैतिक लाभ हानि किसे कितनी होगी, इसका जनमत संग्रह कर चर्चा की। राजनैतिक नेतृत्व यह मानकर चलता है कि क्षेत्रीय भावना का शोषण कर राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ति की जा सकती है। राजनैतिक दृष्टि से चुनावी रणनीति बनाने की पहल होती है लेकिन राष्ट्रीय एकात्मता का ध्यान नहीं रखा गया तो अलगाव की स्थिति भी पैदा हो सकती है। क्षेत्रीय भावना को राजनैतिक दृष्टि से भुनाने से कई प्रकार के संकट और समस्याएं पैदा हुई हैं। तमिल, बंगाली, पंजाबी, कश्मीरी, गुजराती आदि की क्षेत्रीय अस्मिता होती है, लेकिन इससे ऊपर राष्ट्रीय अस्मिता है। चुनावी लाभ-हानि का आंकलन भी राष्ट्रीय दृष्टि से होना चाहिए। हम सब भारत माता के पुत्र हैं, बंधु भाव से ही एक संगठित राष्ट्र के रूप में हम खड़े दिखाई देंगे। राजनीति ने समाज में भी भेदभाव की रेखाएं खींची हंै, नये राज्य का गठन हो या न्यायिक मामला हो, इनमें क्षेत्रीय भावना के साथ राष्ट्रहित की दृष्टि हो। कानून को भी अपना काम करने देना चाहिए। चाहे आतंकी हो या देशद्रोही हो, इनको जिन्दा रहने का अधिकार मिलना राष्ट्रहित की दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता।

 

                               (लेखक - राष्ट्रवादी लेखक और वरिष्ठ पत्रकार है)

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