तीसरा मोर्चा अवसरवादी कुनबा
- बलबीर पुंज
देश के सामने इन दिनों पांचवीं बार 'तीसरा मोर्चा नामक राजनीतिक प्रहसन चल रहा है। विगत पांच फरवरी को 11 राजनीतिक दल 'गैर भाजपा, गैर कांग्रेस मोर्चा खड़ा करने के लिए लामबंद हुए। चार वामपंथी दलों; सीपीआई-एम, सीपीआई, आरएसपी, फारवर्ड ब्लॉक के साथ सपा, जदयू, अन्नाद्रमुक, जनता दल-एस, झारखंड विकास मोर्चा, असम गण परिषद, बीजद शामिल हैं। मोर्चा गठित होने के पांच दिन बाद ही विगत दस फरवरी को आयोजित बैठक से सपा, बीजद, अगप के गायब रहने से साफ है कि हर बार की तरह इस बार भी यह अव्यवहारिक और अवसरवादी गठबंधन भारतीय राजनीति में नाकाम साबित होने वाला है। वस्तुत: यह गठबंधन कांग्रेसी कुशासन से मुक्त होने के लिए छटपटा रही जनता ने पहले से जो निश्चय कर रखा है, उसे भ्रमित करने का कुप्रयास है।
इस मोर्चे के वास्तुकार माक्र्सवादी पार्टी के महासचिव प्रकाश करात हैं, जिनकी पार्टी ने अपने 34 साल के अनवरत राजकाल में पश्चिम बंगाल के उद्योगधंधों को जहां बंदी के कगार पर पहुंचा दिया, वहीं सर्वहारा की पार्टी होने का दावा करने के बावजूद आम आदमी ही कंगाली और बदहाली का शिकार बना। सन् 2011 के विधानसभा चुनाव में हिंसा के बल पर खड़ा साम्यवादियों का अभेद्य किला तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी ने तोड़ डाला। कुल 294 विधानसभा सीटों में 227 पर जीत हासिल कर तृणमूल कांग्रेस ने माक्र्सवादियों को सत्ता से बेदखल तो कर दिया, किंतु आम आदमी आज भी त्रस्त है। एक ओर माक्र्सवादी 'तीसरे मोर्चेÓ के गठन में लगे हैं तो दूसरी ओर ममता बनर्जी तेलगूदेशम पार्टी के साथ मिलकर 'संघीय मोर्चा खड़ा करने की संभावनाएं तलाश रही हैं। स्वाभाविक तौर पर केंद्रीय राजनीति में उनकी भी निगाह प्रधानमंत्री पद पर टिकी है, जिसके सबसे बड़े दावेदार सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव हैं। दोनों सन् 2012 में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर लामबंद हुए थे। ममता राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के विरोध में थीं, जिसका मुलायम सिंह ने समर्थन भी किया था। किंतु ऐन वक्त पर मुलायम पलटी मार गए। क्या ममता उन्हें माफ कर पाएंगी?
प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में मुलायम सिंह के सामने अपने राज्य में ही प्रबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में बसपा प्रमुख मायावती हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव में 224 सीटें जीत कर सपा प्रमुख की महत्वाकांक्षाएं भले ही बढ़ी हों, किंतु उत्तरप्रदेश की सत्ता पर सपा के सवार होने के बाद पहले से बदहाल राज्य की माली हालत और बिगड़ी है। लोक लुभावन चुनावी वादों और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के दम पर सत्ता पर लौटी सपा के राज में पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल है, सांप्रदायिक सौहार्द खतरे में है। किसी भी झगड़े फसाद में प्रशासन को यह अलिखित आदेश है कि वह अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ कार्रवाई नहीं करे। इस तुगलकी व्यवस्था के खिलाफ स्वाभाविक तौर पर लोगों में आक्रोश है, जिसकी परिणति मुजफ्फरनगर और शामली दंगों में हुई। जानमाल को व्यापक क्षति पहुंची। ऐसी अराजकता के सृजनहार से देश क्या उम्मीद लगा सकता है?
तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक सन् 1972 में द्रमुक से टूटकर अस्तित्व में आई। दोनों ही पार्टियां तब से राज्य में एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हैं। केंद्र में ये पार्टियां एक मंच पर आ भी जाएं तो यह जुगलबंदी कब तक चल पाएगी? इसी तरह आंध्रप्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस और तेदेपा कट्टर विरोधी दल हैं। 'संघीय मोर्चा खड़ा करने की जुगत में लगी तेदेपा केंद्र में किसे लेकर आगे बढ़ेगी?
जमीनी स्तर पर देखा जाए तो यह तीसरे मोर्चे की कवायद अवसरवादी दलों का गठजोड़ है, जो संकट में फंसी कांग्रेस को उबारने और भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकने का कुप्रयास मात्र है। 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व भी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने कई दलों के साथ मिलकर भाजपा की राह रोकने की कोशिश की थी। तब तो यह काठ की हांडी चढ़ भी नहीं पाई थी, क्योंकि उस बारात में अनेक दूल्हे सेहरा बांधे कतार में खड़े हो गए थे। प्रधाঅनमंत्री की कुर्सी किसे मिले, इसे लेकर ही मोर्चा टूट गया।
यह पांचवीं बार है, जब तीसरे-चौथे मोर्चे के गठन की कवायद चल रही है, किंतु यह स्थापित सत्य है कि ऐसा अवसरवादी गठबंधन कभी भी कामयाब नहीं हो पाया है। सन् 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल, अगप, तेदेपा और द्रमुक ने 'राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया था। नवंबर, 1990 में आंतरिक कलह के कारण यह सरकार गिर गई। इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, किंतु वह 1991 तक ही सरकार चला पाए।
सन् 1996 में जब कांग्रेस और भाजपा सरकार बनाने लायक संख्या बल नहीं पा सके तो कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा एक बार फिर 'संयुक्त मोर्चा के नाम से सामने आया। जनता दल, तेदेपा, अगप, द्रमुक, तमिल मनीला कांग्रेस, सपा और भाकपा, इन सात दलों ने मिलकर सरकार बनाई। कांग्रेस ने बाहर से इसे समर्थन दिया था। देवेगौड़ा और आईके गुजराल इस अवसरवादी गठजोड़ से प्रधानमंत्री भी बने, किंतु उनका क्या हश्र हुआ; जगजाहिर है।
संयुक्त मोर्चा की सरकार का अस्तित्व केवल दो साल ही टिक पाया। इन दो सालों में देश को दो प्रधानमंत्रियों से दो-चार होना पड़ा। पहले प्रधानमंत्री देवेगौड़ा बने, जिनके बारे में उनके समर्थकों की भी यही राय थी कि उनकी मानसिकता हासन के उपायुक्त से ऊपर नहीं उठ सकी। अप्रैल, 1997 में कांग्रेस का देवेगौड़ा से मोहभंग हो गया। उनके बाद दूसरे प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल छिटपुट दलों की अनर्गल मांगों व शर्तों के कारण कुछ कर पाने में असमर्थ रहे।
तीसरे मोर्चे के प्रमुख वास्तुकार माक्र्सवादी हैं, जो कल तक संप्रग सरकार में शामिल थे। बिना किसी जवाबदेही के सत्तासुख भोग चुके माक्र्सवादियों ने अपने पूंजीवादी तकियाकलाम के कारण संप्रग सरकार-से हाथ खींच लिया था। परमाणु समझौते के कारण जब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को सदन में विश्वासमत साबित करना था, तब भी मोर्चा गठित करने का प्रयास किया गया था। मायावती वामपंथी खेमे को समर्थन देने को राजी थीं, बशर्ते उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जाता। समाजवादी पार्टी हमेशा-हमेशा माक्र्सवादियों के साथ रही, किंतु इस मुद्दे पर उसनेे पाला बदल लिया था। कांग्रेस के पक्ष में सपा के खड़ा होते ही मोर्चे का समीकरण बदल गया। इसलिए तीसरे मोर्चे की न तो कोई प्रासंगिकता शेष है और न ही जिन राज्यों में ऐसे दलों की सरकारें रहीं या वर्तमान समय में सत्ता पर काबिज हैं, वे कभी सुशासन और खुशहाली दे पाने में कामयाब नहीं हुई हैं। देश का जनमानस कांग्रेसी कुशासन से मुक्ति पाना चाहता है और उसे ऐसे अवसरवादी दलों से कोई उम्मीद नहीं है।
तीसरे मोर्चे का गठन वस्तुत: प्रजातंत्र का मखौल उड़ाना है। गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा के विकल्प के तौर पर गठित तीसरे मोर्चे की एक वैकल्पिक नीति भी होनी चाहिए थी। तीसरे मोर्चे में सभी मुख्तार हैं, जो चुनाव परिणामों के आने तक अपने पत्ते नहीं खोलते। आने वाले लोकसभा का ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका फैसला तो जनता को ही करना है। किंतु वर्तमान तीसरे मोर्चे में शामिल ग्यारह दलों की कूबत 15वीं लोकसभा में मात्र 92 सीटों की ही है। इस दम पर केंद्र में सरकार गठित करने का दावा तो हास्यास्पद ही है।
लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।