अग्रलेख

Update: 2014-02-10 00:00 GMT

फिर चली बात युवाओं की

  • गिरीश उपाध्याय

हमारे देश में युवाओं और महिलाओं को कुछ खास मौकों पर खासतौर से याद किया जाता है। ऐसा अक्सर उनके भले के लिए नहीं बल्कि अपने फायदे के लिए होता है। यह फायदा चाहे व्यक्ति के लिए हो, संस्था के लिए हो या फिर किसी व्यवस्था के लिए। लोकतंत्र में चुनाव के दिनों में तो ऐसा हमेशा ही होता है। चूंकि चुनाव के दिन फिर आ रहे हैं इसलिए सभी राजनीतिक दलों को महिलाओं और युवाओं की याद आ रही है। एक तरफ अवसरों की असमानता, शिक्षा की अव्यावहारिकता, बेरोजगारी और अवसाद जैसी समस्याओं के चलते युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है वहीं चुनावी मौसम में हमारे नेताओं को इस पीढ़ी में भविष्य की सारी संभावनाएं नजर आ रही हैं। कोई भी दल हो, यह कहने से नहीं चूक रहा कि उसे युवाओं को अवसर देना है, उन्हें आगे लाना है। कांग्रेस ने तो राहुल गांधी की बगल में कई युवा चेहरों को खड़ा करते हुए एक विज्ञापन अभियान ही चला दिया है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी भी मानकर चल रहे हैं कि उनकी नैया के खेवनहार युवा ही हैं। आने वाले दिनों में युवा पीढ़ी को लेकर और नए-नए नारे, नई-नई योजनाएं और नई नई तस्वीरें मीडिया में देखने को मिल सकती हैं.... तैयार रहिएगा...
कांग्रेस के युवा चेहरे
जब पूरे देश में युवाओं को आगे लाने की बात चल रही हो तो अपना मध्यप्रदेश कैसे पीछे रह सकता है। कांग्रेस के खेमे से मीडिया में पिछले दिनों यह खबर आई कि राहुल गांधी विदिशा संसदीय क्षेत्र में लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के मुकाबले इंदौर जिले के राऊ से विधायक जीतू पटवारी को चुनाव लड़वा सकते हैं। जीतू पटवारी ने इस मामले में पूछे जाने पर एक आम कांग्रेसी की तरह परंपरागत जवाब देते हुए कहा कि पार्टी का जो भी आदेश होगा उन्हें मंजूर होगा। दरअसल कांग्रेस युवाओं के बहाने एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है। युवाओं को अधिक संख्या में मैदान में उतारने से एक तो इस पूरी पीढ़ी के हिमायती होने का दावा किया जा सकता है, दूसरे यदि वे चुनाव हार भी जाते हैं तो कहने को रहेगा कि नया चेहरा था, अनुभव की कमी थी सो जीत नहीं पाया, अगली बार देखेंगे। लेकिन इस पूरी कवायद में इतना तो हो ही जाएगा कि स्थापित नेता की उसके ही इलाके में थोड़ी बहुत घेराबंदी हो जाए। नए चेहरे का कुछ पता नहीं होता, दिल्ली में 'आपÓ के प्रयोग ने यह साबित भी कर दिया है। और कुछ भले ही हो या न हो पर इतना तो तय होता ही है कि उसके खिलाफ वैसा कोई पूर्वाग्रह या दुराग्रह नहीं होता जैसा स्थापित चेहरों के प्रति होता है।
200 चेहरे, हजार सवाल
कांग्रेस में युवाओं को आगे लाने की बात को लेकर हाल ही में एक चैनल पर बहस के दौरान कांग्रेस के युवा विधायक जीतू पटवारी यह रहस्योद्घाटन कर गए कि राहुल गांधी ने तय किया है कि इस बार 200 सीटों पर 45 से कम उम्र वालों को टिकट दिया जाएगा। जीतू पटवारी को राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड का हिस्सा माना जाता है और यदि उन्होंने यह सूचना दी है तो निश्चित रूप से इसका कोई न कोई पुख्ता आधार रहा होगा। अगर कांग्रेस या राहुल गांधी सच में ऐसा करने जा रहे हैं तो आने वाला लोकसभा चुनाव बहुत दिलचस्प होगा। ढेर सारे नए चहरे होंगे और उनके पीछे खड़े होंगे वे नेता तो अब तक युवाओं के नाम पर खुद को आगे बढ़ाते आए हैं, अपनी राजनीति जमाते रहे हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि युवाओं को आगे लाने की इस कवायद में उन पुराने नेताओं का कांग्रेस क्या करेगी जो अब भी दम मार रहे हैं या मैदान छोडऩे को तैयार नहीं हैं। वैसे इस मामले पर एक और अंतर्विरोध खुद कांग्रेस के भीतर ही पिछले दिनों मध्यप्रदेश में नजर आया जब दिग्विजयसिंह को राज्यसभा में भेजे जाने पर अपेक्षाकृत कम उम्र के सज्जनसिंह वर्मा ने सवाल उठा दिए। सवाल ही नहीं उठाए उन्होंने तो एक तरह से पार्टी के फैसले की ही खुलकर आलोचना कर दी। सज्जन ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का हवाला देते हुए परोक्ष रूप से दिग्विजयसिंह को भी नसीहत दे डाली कि जब आडवाणीजी इस उम्र में राज्यसभा में बैठने को तैयार नहीं हैं तो फिर दिग्विजयसिंह क्यों लोकसभा चुनाव लडऩे से बच रहे हैं। सज्जन ने राज्यसभा में भेजने के लिए प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और महिला कांग्रेस अध्यक्ष शोभा ओझा जैसे 'युवाÓ नामों की पैरवी कर डाली। अब यह समझ में नहीं आता कि कांग्रेस के मैदानी कार्यकर्ताओं की सोच क्या राहुल गांधी की सोच से अलग है।
मायासिंह की साफगोई
मध्यप्रदेश के नए मंत्रिमंडल के गठन और विभागों के वितरण के बाद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा था कि महिला एवं बाल विकास विभाग के लिए उनके ध्यान में मायासिंह के अलावा कोई दूसरा नाम आया ही नहीं। एक तरह से यह मायासिंह पर जताया गया भरोसा था कि वे हमेशा विवादों में रहने वाले इस विभाग को कुछ ठीक करेंगी। हाल ही में मायासिंह ने अपने इरादे साफ भी कर दिए। आमतौर पर इस विभाग के मंत्री और अधिकारी विवादास्पद मुद्दों को टालते या उनसे बचते आए हैं। लेकिन मायासिंह ने कुपोषण जैसे मसले पर बहुत ही साफगोई से बात की और अपने अफसरों को फटकार लगाते हुए कहा कि दस साल से हम सरकार में हैं फिर भी महिलाओं व बच्चों के कुपोषण की खबरे लगातार आ रही हैं। यदि ऐसा हो रहा है तो फिर सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों का क्या मतलब है। भाजपा की राजनीति में मायासिंह का प्रचलित नाम 'मामी है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह मामा के रूप में बच्चियों के संरक्षक बने हुए हैं, अब विभाग की मंत्री के रूप में मामी के तेवर संकेत दे रहे हैं कि इस विभाग में जो चल रहा था कम से कम वैसा तो नहीं चल पाएगा।
व्यापमं की पोल
व्यावसायिक परीक्षा मंडल की पोल इतनी बड़ी है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों की भरती परीक्षाओं से लेकर सरकारी नौकरियों की भरती परीक्षाओं में होने वाले गड़बड़झाले ने पूरे प्रदेश की राजनीति को झकझोर के रखा है। विपक्षी दल कांग्रेस के हाथ में ऐसा मुद्दा आ गया है जिसके ठंडा होने के आसार फिलहाल तो नजर नहीं आ रहे। नित नए खुलासे सरकार के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। हाल ही में जो संकेत मिले हैं वे बताते हैं कि व्यापमं में यह घुन तो कई सालों से लगा हुआ है। एसटीएफ की कार्रवाई एक ओर कई लोगों को मुश्किल में डाले हुए हैं वहीं अब उस पर पक्षपात के आरोप भी लगने लगे हैं। ये आरोप सभी आरोपियों से समान व्यवहार न किए जाने को लेकर हैं। ऐसे में विपक्ष को पूरे मामले की जांच सीबीआई को सौंपे जाने की मांग पर दबाव बनाने का भी मौका मिल रहा है। मामले में कार्रवाई करते हुए पैसे देकर प्रवेश पाने वाले कई छात्रों को गिरफ्तार किया गया है और अनेक छात्रों के प्रवेश निरस्त हुए हैं। लेकिन बड़ा सवाल उन छात्रों का है जिनका हक इन पैसे और रसूख वालों ने मार लिया। कानून से भले ही इन्हें सजा भी मिल जाए लेकिन क्या इससे उन छात्रों के साथ न्याय हो सकेगा जो व्यवस्था के इस भ्रष्टाचार के चलते मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने के अपने हक से वंचित रह गए।
अब बदलेंगे ढांचा
सरकार के लिए कलंक का सबब बने व्यापमं घोटाले के बाद इस संस्थान का पूरा ढांचा और यहां की कार्यप्रणाली बदली जा रही है। नई सरकार के गठन के बाद अफसरों के साथ हुई अपनी पहली बैठक में मुख्यमंत्री ने पूरे प्रकरण को शर्मनाक बताते हुए व्यापमं के ढांचे में बदलाव को लेकर उच्चस्तरीय समिति बनाई थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को दे दी है और अब वे ही फैसला करेंगे कि आने वाले दिनों में प्रदेश की यह महत्वपूर्ण सरकारी संस्था किस तरह काम करेगी। व्यापमं के अध्यक्ष देवराज बिरदी की अध्यक्षता वाली समिति ने जो सुझाव दिए हैं उनमें सबसे प्रमुख सुझाव सारी परीक्षाएं ऑनलाइन कराए जाने का है। इसके अलावा परीक्षाओं का बाहरी विशेषज्ञों से ऑडिट कराने, साफ छवि वाले अफसरों को ही प्रमुख पदों पर नियुक्त करने, मंडल के निदेशक और परीक्षा नियंत्रक जैसे पद एक ही व्यक्ति के बजाय अलग अलग व्यक्तियों को सौंपने, संवेदनशील पदों पर होने वाली नियुक्तियों को शार्टटर्म के लिए ही रखने और आंतरिक एवं बाहरी निगरानी का पुख्ता तंत्र विकसित करने जैसे सुझाव दिए गए हैं। इसके अलावा मंडल अब हर परीक्षार्थी का डॉटाबेस भी अलग तरीके से तैयार करेगा जिसमें परीक्षा पास करने वाले उम्मीदवारों की अंकसूची के साथ उसकी अंगुलियों या अंगूठे के निशान भी संबंधित संस्थाओं को सौंपे जाने की व्यवस्था रहेगी।
फिर लहराया खेत में परचम
प्रदेश के लिए एक अच्छी खबर है। खेती को लाभ का धंधा बनाने के अभियान में लगे मध्यप्रदेश ने लगातार दूसरी बार खेती किसानी में अपना परचम लहराया है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2012-13 में कुल खाद्यान्न उत्पादन बढ़ोतरी के मामले में राज्य को कृषि कर्मण अवार्ड देने की घोषणा की है। इस अवार्ड के लिए आन्ध्रप्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा भी प्रतिस्पर्धा में थे। इससे पहले 15 जनवरी 2013 को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह अवार्ड प्रदान किया था। अवार्ड में 2 करोड़ रुपये की राशि के साथ प्रतीक चिन्ह तथा प्रमाण-पत्र दिया जाता है। इस बार भी मुख्यमंत्री 10 फरवरी को राष्ट्रपति के हाथों कृषि कर्मण अवार्ड ग्रहण करेंगे। यह प्रदेश के लिए गर्व का विषय है कि पिछले पांच सालों में खाद्यान्न उत्पादन 128.90 लाख टन से बढ़कर 2012-13 में 287.35 लाख टन हो गया। इस दौरान गेहूं का उत्पादन सबसे ज्यादा बढ़ा है। वर्ष 2007-08 में 67.73 लाख टन गेहूं उत्पादन हुआ था जो 2012-13 में बढ़कर 161.25 लाख टन हो गया। यानी प्रदेश में 'जय किसान का नारा तो मुकम्मल हो ही रहा है।

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