अग्रलेख

Update: 2014-11-13 00:00 GMT

      पराजय के भय से दिखाई एकता

  • राजनाथ सिंह 'सूर्य'

एक बार फिर 'जनता दल' के परिवार के अभिनय का मंचन करने का शिगूफा छोड़ा गया है। इस बार 'समाजवादी' पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने पूर्व परिवार के सदस्यों को दिन का भोजन खिलाया। अभी पिछले महीने मेरठ में राजनीति से बहिष्कृत हो चुके अजीत सिंह ने भी इसी प्रकार का एक आयोजन किया था जिसमें मुलायम सिंह ने न केवल भाग लिया था, बल्कि यह भी कहा था कि उत्तर प्रदेश में ऐसी किसी एकजुटता की जरूरत नहीं है। अचानक क्या हो गया है कि परिवार की एकजुटता की अपरिहार्यता का उन्हें इल्हाम हुआ। शायद यह सोच अभी पिछले सप्ताह दिए गए उस बयान में झलक रहे भय का परिणाम तो नहीं है जिसमें उन्होंने कहा था कि ''नेताओंÓÓ को जेल भेजा जाना अनुचित है। नेता क्यों जेल जा रहे हैं यह अब जगजाहिर है। आय से अधिक सम्पत्ति बटोरना अपराध है और ''नेताÓÓ सम्बोधन से विभूषित लोग चाहते हैं कि उनको इस अलंकरण के कारण अपराध मुक्त माना जाना चाहिए। लालू प्रसाद यादव के बाद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को न्यायालय से दंडित किया गया है लेकिन कितने वर्ष लग गए इस प्रक्रिया में। चाहिए तो यह भी जो ''नेता'' या अन्य शासनाधिकारी हैं उनके मामले का निपटारा एक महीने में हो जाय लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक साल के निपटारे के आग्रह पर सर्वोच्च न्यायालय के अभी-अभी अवकाश लेने वाले मुख्य न्यायाधीश ने जो प्रतिक्रिया की था उससे इसकी संभावना धूमिल मालूम पड़ती है। जिन अनेक नेताओं के खिलाफ पद धारण करने के बाद अपार सम्पत्ति संग्रह का आरोप लंबित है उनमें मुलायम सिंह यादव और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती शामिल हैं। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुप्पा और बंगाल के कई सांसदों की घेरेबंदी हो चुकी है। सत्ता के दुरूपयोग से सम्पत्ति का लाभ राष्ट्रमंडल खेल, संचारवाहिकाओं और कोयला खदानों के आवंटन में जिस वीभत्स रूप में उजागर हुआ है वह किसी भी देश के लिए अत्यंत शर्मनाक घटना हो सकती है। ऐसे काण्डों में लिप्त लोग न्यायिक प्रक्रिया के उलझाव का लाभ उठाकर सार्वजनिक जीवन को जातीयता आदि का सहारा लेकर कितना गंदा कर चुके हैं कि उनके जेल जाने पर लोग आत्मदाह तक कर लेते हैं। मुलायम सिंह यादव को जिन्होंने बार-बार ऐसे किसी प्रस्ताव को ठुकराया है अचानक 'जनताÓ परिवार की एकजुटता के लिए पहल क्यों करनी पड़ी-भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में किसी प्रकार का समझौता न करने वर्तमान सरकार के इरादे से उत्पन्न भय ही शायद प्रेरक बना हो।
मुलायम सिंह यादव के दोपहर भोज में शामिल लोगों की सदैव एक ही मंशा रही है ''तुम्हारे यहां आने पर मुझे क्या मिलेगा और हमारे यहां आने पर क्या लाओगे।ÓÓ परिवार की एकजुटता का रिहर्सल कई बार हो चुका है लेकिन मंचन कभी नहीं हुआ। मूल रूप ''समाजवादीÓÓ परिवार के लोगों को यह रिहर्सल करते देखा गया है। एच.डी. देवगौड़ा हो या शरद यादव उनके लिए राष्ट्रीय जनाधार स्वप्न ही बना रहा है। शरद यादव तो किसी न किसी की कृपा से ही संसद पहुंचते रहे हैं। लालू यादव और नीतीश कुमार ने डूबने की स्थिति में एक दूसरे को पकड़ लिया है। लालू और मुलायम सिंह कभी एक साथ नहीं रहे। जनता परिवार की एकजुटता में नेक नीयती का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस व्यक्ति की अध्यक्षता में जनता दल बना था, उस अजीत सिंह को बुलाया तक नहीं गया। क्यों, क्योंकि मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में किसी और को पनपते नहीं देखना चाहते। जो जनता पार्टी-सबसे पहले जनता नामधारी दल बना था उसे एक प्रमुख घटक भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ जब से केंद्रीय सत्ता संभाली हैै परस्पर सौतिया डाह से ग्रस्त अन्य जनता परिवार में चल पड़े विलाप के दौरान एक-दूसरे के भले लगने भर के प्रदर्शन के अलावा यह कुछ भी नहीं है। जयप्रकाश नारायण ने गैर साम्यवादी दलों को कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और कुनबापरस्तीजन्य तानाशाही से मुक्ति दिलाने को एकजुट किया था। उनके जाते ही उसके दो टुकड़े हो गए। एक जनता पार्टी रह गई, दूसरा भारतीय जनता पार्टी बन गर्ई। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा और चौधरी चरण सिंह के लोकदल को जनता पार्टी में शामिल कर जनता दल बनाया गया। इसके पहले अध्यक्ष अजीत सिंह बने जिसके गर्भ से जार्ज फर्नान्डीस की समता पार्टी निकली जिसके अब नीतीश कुमार डिक्टेटर हैं हालांकि उसका नाम बदलकर अब जनता दल (यू) हो गया है। शरद यादव इस दल के वैसे ही अध्यक्ष हैं जैसे मनमोहन सिंह यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री थे। गैर कांग्रेसवाद के रूप में जो समाजवादी विभिन्न नामों से एकजुट हुए थे वे आज और भी अधिक नामधारी होकर कांग्रेस की गोद में बैठते गए और अपना रूप बदलते गए। जिस साम्यवादी पार्टी ने इनको कांग्रसे की गोद में डालने का काम किया था, उसे अब ये पूछ भी नहीं रहे हैं लेकिन कांग्रेस के साथ जाने के द्वन्द से जूझ रहे हैं। लालू यादव तो समग्र रूप से कांग्रेस के साथ रहना चाहते हैं, नीतीश चाहते हैं कि यह मामला परदे के पीछे ही रहे और मुलायम सिंह दिल्ली की राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहने के लिए कांग्रेस को राज्य सभा चुनाव में मदद का क्रम बनाए हुए हैं।
इसमें शायद ही किसी को संदेह होगा कि जिस जनता परिवार नाटक के रिहर्सल का विचार मुलायम भोजन से उभरा है उसका कभी मंचन भी होगा लेकिन जब भ्रष्टाचार कुशासन और कुनबापरस्ती से देश को सबका साथ और सबका विकास की दिशा पकडऩे वाले नरेंद्र मोदी का विरोध एकमात्र लक्ष्य के रूप में घोषित किया जाता है तो उसके विघटनकारी दुष्परिणाम की आशंका प्रबल हो जाती है। मोदी के अभियान ने जातीय जकडऩ को तोड़ा है और उम्मीद यह की जा रही है कि शीघ्र ही सांप्रदायिक जकडऩ की कडिय़ां भी टूटेंगी। ऐसी परिस्थिति में जातीयता और सांप्रदायिकता की वाहकों के रूप में बहके ''नेताओं'' को अपने लिए जो खतरा दिखाई पड़ रहा है उससे बचाव के रूप में इसे अंतिम प्रयास कह सकते हैं यदि सचमुच यह भोज रिहर्सल तक भी पहुंच सके तो लेकिन उनके द्वारा उत्पन्न माहौल का परिणाम यह हो रहा है कि न केवल कश्मीर घाटी बल्कि गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली में भी पाकिस्तानी होने का गर्व ''मातम'' के दौरान प्रदर्शन किया जा रहा है। रांची में उसकी नग्नता दिखायी जा रही है। चाहे बिहार हो या उत्तर प्रदेश-और अब तो बंगाल भी शामिल हो गया है-पाकिस्तानी हस्तकों को सत्ता का सहयोग प्राप्त हो रहा है। नित्य नये रहस्य का उद्घाटन होने के बावजूद इन राज्यों का प्रशासन राजनीतिक लाभ के लिए देशहित विरोधी तत्वों को कवच प्रदान करने में लगा हुआ है। मुलायम सिंह का दावा है कि वे डाक्टर राम मनोहर लोहिया के ''एकमात्र'' उत्तराधिकारी हैं। नीतीश और लालू यादव, जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति आंदोलन से उपजे हैं। क्या बिहार और उत्तर प्रदेश उन महान नेताओं की आकांक्षा के अनुरूप समग्रता की दिशा में बढ़ रहा है अभी तक तो जो दृश्य है उससे तो यही लगता है कि ''समग्र जनता'' परिवार समस्त व्यक्तिगत परिवार में ही सिमट गया है। दो वर्ष पूर्व मुलायम सिंह ने राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता बनर्जी को कैसे अधर में छोड़ दिया था और उसके पूर्व कई बार माक्र्सवादी पार्टी के नेताओं को कहां हैं मोर्चा कहकर झटका दे चुके हैं। यह भोज झटका का नहीं हलाल का हो सकता है और कुछ नहीं है। सकारात्मक उद्देश्य विहीन मात्र विरोध करने के लिए इकत्रीकरण अब तक दिखावे के अलावा कुछ भी साबित नहीं हुआ है। इस बार शायद उतना भी न हो क्योंकि अभी भी चुनावों में उनकी वही स्थिति होने जा रही है जो कांग्रेस की हो चुकी है। एक के बाद एक ''हटाओ'' मात्र की राजनीति करने के लिए बने मोर्चे 1952 से ही अल्पजीवी साबित होते रहे हैं, वे भी जिनके सूत्रधार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से परे थे। नरेंद्र मोदी का कांग्रेस हटाओ देश बचाओ अभियान ''सबका साथ सबका विकास'' की सकारात्मकता के कारण अधिक विश्वसनीयता प्राप्त कर सका तथाकथित परिवार की एकजुटता का उद्देश्य मोदी को रोको मात्र होने के कारण शायद ही परवान चढ़ सके।ए

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