छोड़ देना चाहिए पश्चिम का मोह
- डॉ. रहीस सिंह
जब दुनिया पूरी तरह से पूंजीवाद की उंगली पकड़कर बाजार की गलियों में चलने के लिए तैयार हुयी थी तो यह उम्मीद जगायी गयी थी कि दुनिया से धर्म, नस्ल या संस्कृति के पारम्परिक सरोकारों का स्थान पूंजीवादी उदारवाद ग्रहण कर लेगा और फिर वह उन रिक्तियों को भरने का कार्य करेगा जो इनके मध्य टकरावों का निर्माण करती हैं। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पंूजीवाद ने तो अपना प्रभाव पूरी तरह से जमा लिया और बाजार कुछ इतनी खुली गलियों का निर्माण कर लिया जिनके किनारों को तलाशना मुश्किल है। खास बात यह है कि बहुत हद तक धर्म भी बाजार के रंग में रंगा लेकिन उसकी परम्परागत प्रकृति बदलाव और कट्टरपंथी उभारों में कमी नहीं आयी परिणाम यह हुआ कि दुनिया आगे बढऩे के क्रम में टकराव की ओर बढ़ती चली गयी। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? बाजार स्वातंत्र्य तथा विज्ञान और तकनीक के इस आधुनिक युग में धर्म के नाम मानवता की हत्या में वृद्धि क्यों ? क्या यह सभ्यताओं या संस्कृतियों का टकराव है या आधुनिक युग की विकृत होती मानसिकता का पर्याय?
पिछले दिनों अमेरिका की एक रिसर्च इंस्टीट्यूट पिउ रिसर्च सेंटर ने दुनिया के 198 देशों को अपनी एक स्टडी के माध्यम से बताया है कि उन देशों की संख्या, जिनमें धर्म की वजह से उच्च या अति उच्च लेवल का सामाजिक टकराव बढ़ा है, पिछले छह वर्षों (वर्ष 2007 से 2012) में शिखर पर पहुंच गयी है। इस स्टडी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 198 देशों में से 33 प्रतिशत देश और टेरिटोरीज वर्ष 2012 में उच्च स्तर के धार्मिक टकराव में शामिल थीं, जिनकी संख्या वर्ष 2011 में 29 प्रतिशत और 2007 के मध्य में 20 प्रतिशत थी। रिसर्च के अनुसार अमेरिका को छोड़कर दुनिया के प्रत्येक प्रमुख क्षेत्र में धार्मिक टकराव बढ़ा है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में इस तरह के टकराव में सबसे तेजी से वृद्धि हुयी है जिसका कारण सम्भवत: वर्ष 2010-11 का अरब स्प्रिंग नाम का वह राजनीतिक विद्रोह है जिसने सत्ता परिवर्तन के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन एशिया-पेसिफिक क्षेत्र का धार्मिक टकराव का बढऩा और विशेषकर चीन का इस मामले में पहली बार 'हाई कैटेगरीÓ पर पहुंचना, ध्यान देने योग्य बात है।
रिसर्च पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि दुनिया भर में धार्मिक शत्रुता के एक जैसे उदाहरण सामने नहीं आए हैं बल्कि उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है। कहीं पर धार्मिक शत्रुता माइनारिटीज और मैजारिटीज के बीच टकराव के रूप में सामने आयी है तो कहीं पर माइनारिटीज के साथ दुव्र्यवहार के रूप में। कहीं पर यह अपने ही धर्म के अनुयाइयों के खिलाफ कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए हमलावर होती दिखी है तो कहीं पर महिलाओं की यूनिफार्म को लेकर। कहीं पर यह शत्रुता एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म के लोगों या उनकी संस्थाओं पर हमले के रूप में दिखी है तो कहीं पर साम्प्रदायिक दंगों के रूप में। इनसे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण उदाहरणों के रूप में लीबिया और सीरिया में कॉप्टिक आर्थोडॉक्स ईसाईयों पर हमला; सोमालिया में कट्टरपंथी आतंकी संगठन अल-शबाब द्वारा अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों के लोगों को धार्मिक नियमों का पालने कराने (यह संगठन सिनेमा, संगीत, स्मोकिंग, दाढ़ी बनाने आदि को गैर इस्लामी मानता है) के लिए हमला, अमेरिका में सिख गुरुद्वारे पर ईसाइयों का हमला; चीन में झिनझियांग में हान चीनियों द्वारा उइगर मुसलमानों पर हमला; तिब्बत में बौद्धों द्वारा 'हुइ मुसलमानोंÓ पर हमला, म्यांमार में राखिन प्रांत में बौद्धों का रोहिंग्या मुसलमानों पर हमला, पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हमला...आदि को देखा जा सकता है। इस प्रकार के धार्मिक टकरावों में मैजारिटीज द्वारा माइनारिटीज के साथ किए गये दुव्र्यवहारों में सबसे ज्यादा वृद्धि हुयी है( 2011 के 38 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 47 प्रतिशत), दूसरे स्थान पर कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए प्रयुक्त हिंसा है (2011 के 33 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 39 प्रतिशत) जबकि तीसरे स्थान पर महिलाओं के धार्मिक यूनिफार्म को लेकर ( 2011 के 25 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 32 प्रतिशत जबकि 2007 में यह संख्या 7 प्रतिशत थी) हुए हमले हैं।
हमलों की प्रकृति को देखने से एक बात साफ पता चलती है कि यूरोप, अमेरिका और कुछ हद तक श्रीलंका में हमलों का स्वरूप संस्थागत अधिक रहा इसलिए वहां इस टकराव का कारण या तो आर्थिक है अथवा राजनीतिक। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा और म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा का कारण धार्मिक विद्वेष अधिक रहा जिसके लिए वहां के कट्टरपंथी समूहों के साथ-साथ राजनीतिक सरकारें कहीं अधिक दोषी हैं। इराक में शिया-सुन्नी टकराव और अल्जीरिया में मुस्लिम-ईसाई टकराव का पक्ष दूसरा है और वहां पर पूरी तरह से नव उपनिवेशवाद और बहुत हद तक अमेरिकी हस्तक्षेप इसका इस धार्मिक टकराव का कारण है। लेकिन सोमालिया आदि में जो धार्मिक उत्पीडऩ हो रहा है वहां पर दबे-कुचले और जीवन के मूलभूत संसाधनों से वंचित लोग इसका शिकार हो रहे हैं, जिसका मूल कारण देश में अक्षम गवर्नेंस की उपस्थिति या गवर्नेंस की अनुपस्थिति, पश्चिमी हस्तक्षेप, कट्टरपंथी समूहों का ताकतवर होना है।
इस रिसर्च स्टडी में कुछ विशेष खामियां और ध्यानाकर्षित करने वाली बातें भी हैं। पहली यह कि इसमें अमेरिका को बहुत हद तक सुरक्षित छोड़ दिया है जो कि पूर्वाग्रहपूर्ण तथ्य है क्योंकि अमेरिका में सिक्खों के गुरुद्वारों पर हमले हुए हैं। दूसरी बात यह कि इसमें बांग्लादेश का नाम नहीं आया है लेकिन इस समय बांग्लादेश में जिस तरह से हिंदुओं के साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है, वह बेहद तकलीफदेह है। उल्लेखनीय है कि बीती 5 जनवरी को बांग्लादेश में हुए जनरल इलेक्शन का बीएनपी और जमाते इस्लामी द्वारा किए बायकॉट आह्वान के बाद भी हिन्दुओं ने इलेक्शन में भाग लिया जिसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। खुद बांग्लादेश के अखबारों ने लिखा है कि ठाकुरगांव, दिनाजपुर, रंगपुर, बोगरा, लालमोनिरहाट, गायबंधा, राजशाही, चटगांव और जेसोर जिलों में जितने बड़े पैमाने पर तथा जिस बेरहमी के साथ हिंदू परिवारों, उनके घर और ठिकानों पर हमले हुए हैं, उससे 1971 में पाकिस्तान समर्थक समूहों द्वारा दिखाई गई बर्बरता की यादें ताजा हो गई हैं। वास्तव में इस संदर्भ में पाकिस्तान से आने वाली खबरों को भी जोड़ कर देखें तो देश के बंटवारे के 66 वर्ष बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की हालत को लेकर लाचारी का आलम नजर आता है। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल नामक संस्था की रपटें बताती हैं कि वहां हिंदू लड़कियों के अपहरण और जबरन विवाह तथा हिंदुओं के अंत्येष्टि स्थलों पर कब्जे की घटनाएं बेलगाम जारी हैं। सबसे अहम बात यह है कि न केवल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय बल्कि भारत की वर्तमान सरकार भी इस मसले पर कुछ भी करने का साहस नहीं दिखा पा रही है। तीसरी बात भारत को भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है। इसमें कर्नाटक के हिन्दू जागरण वेदिके को नैतिक संहिता लागू करने के संदर्भ में हिंसा के लिए उत्तरदायी माना गया है लेकिन भारत की उन इस्लामी इंस्टीट्यूशंस या धर्मसंघों को शामिल नहीं किया गया जो जबरन अपने कोड ऑफ कंडक्ट्स को लागू कराने के प्रयास लगातार कर रहे हैं।
जो भी हो, यह रिपोर्ट इतना तो स्पष्ट कर ही देती है कि पंूंजी और बाजार ने मिलकर धार्मिक समुदायों को हिंसा की ओर धकेला है, उसे नियंत्रित नहीं किया। विशेष बात यह है कि जिन एशियाई देशों ने पूंजीवाद को जिस गति से अपनाया, उसी गति से वहां टकराव बढ़ते दिख रहे हैं ऐसे में सोचने की बात यह है कि इन देशों में जब पूंजी और बाजार की सत्ता पूर्ण शक्ति प्राप्त कर लेगी तब इस तरह के टकराव भी पूर्णता की स्थिति में होंगे। संभव है कि तब तक इसकी तमाम शाखाएं भी विकसित हो चुकी हों और यह भी सम्भव है कि प्रत्येक मनुष्य, मनुष्य के ही खिलाफ खड़ा हो जाए? तब क्या हमें यह विचार करने की जरूरत नहीं है कि हम भारत के लोग अपनी उन परम्पराओं एवं संस्कारों के प्रति पुन: प्रतिबद्ध हों जो सार्वभौम शांति के प्रस्तोता ही नहीं, पैरोकार और संरक्षक भी हैं। लेकिन क्या हम बाजार और पूंजी का मोह छोड़ पायेंगे ? हालांकि यह कार्य बेहद मुश्किल है, लेकिन यदि विश्व गुरु का स्थान हमें प्राप्त करना है तो फिर ऐसा करना अनिवार्य होगा।