अग्रलेख

Update: 2014-01-16 00:00 GMT

 सैफई में उजागर हुई सत्ता की मदांधता

  • राजनाथ सिंह 'सूर्य' 

सत्ता का नशा किसी भी अन्य नशे की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाली होता है। लोक लाज, कर्तव्य पालन सभी कुछ गौण मालूम होने लगता है, जब यह नशा चढ़ता है। यह नशा अहंकारी बना देता है। अहंकारी व्यक्ति को केवल अपनी संतुष्टि का ध्यान रहता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसे तमाम अहंकारियों और उनके विनाश की कथाएं भरी पड़ी हैं। जो गीता विश्व की सर्वाधिक भाषाओं में अनुदित हो चुकी है उसमें भगवान कृष्ण ने कहा है कि अहंकार ही मेरा भोजन है। लेकिन नशा तो नशा है, वह उतरता तभी है जब सभी कुछ उतर जाता है। ऐसी कथा है कि भगवान कृष्ण ने मथुरा छोड़कर द्वारिका बसाई। एक समय ऐसा आया जब यदुवंशियों ने कृष्ण की भी एक न सुनी। नशे में उन्मत्त अपना ही विनाश कर डाला। उत्तर प्रदेश में पिछले डेढ़-दो दशक से सत्ता के नशे का नंगा नाच देखने को मिल रहा है। एक-दूसरे का विकल्प बने समाजवादी और बहुजन समाजवादी बारी-बारी से सत्ता की मदांधता के कारण अवाम द्वारा सत्ताच्युत होते रहे हैं लेकिन उससे सबक सीखने के बजाय फिर से सत्ता में आने पर दूने नशे में मदमस्त दिखाई पड़ते हैं। एक को शौक है स्मारक बनाने और अपनी तथा परिवार की मूर्ति लगवाने का तो दूसरे को शौक है रंगारंग आयोजन का। तीन-तीन बार दोनों सत्ता संभाल चुके हैं और हर बार इस नशे का नया आयाम सामने आता रहता है। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो-जो अपने को जीवित देवी मानती हैं-चढ़ावा लेने में विश्वास रखती हैं। उनकी निजी संपदा कितनी है इसका अनुमान लगाना संभव तो है लेकिन लगाया नहीं जाता है लेकिन उसका अनुमान उनके एक भाई द्वारा-जो नोएडा अथारिटी में सामान्य कर्मचारी थे-चार सौ करोड़ की घोषित सम्पत्ति होने का ब्यौरा देने से लगाया जा सकता है। यह धन उन्हें लोगों ने ''उपहार के रूप में दिया है। सुप्रीमो मायावती नाम के अनुसार माया प्रेमी हैं उनके शासनकाल में इस ''प्रेम का ऐसा सैलाब आया है कि चारों तरफ उनके दरबारियों की सम्पदा ही सम्पदा दिखाई पडऩे लगती है। इन सम्पत्ति बनाने में कुछ जेल में हैं और बड़ी संख्या में जेल जाने की राह पकड़ चुके हैं लेकिन ''जीवित देवी तथा उनके भक्तों की सम्पदा जिसका ठीक-ठीक हिसाब अभी भी होना बाकी है, यथावत है। मायावती को जिन पार्कों और स्मारकों का शौक रहा है उस पर बजट का आधा व्यय होता रहा है और उनका निर्माण उनके मंत्रियों द्वारा आपूर्ति सामग्री से होता रहा है। ऊपर से चमक दमक वाले इन स्मारकों की एक ही वर्ष में क्या स्थिति हो गई इसको समझने के लिए लखनऊ के अंबेडकर स्थल और उद्यान पर एक नजर भर डाल लेना काफी है। जिन्हें अब मरम्मत की दरकार है अन्यथा एक वर्ष के भीतर ही करोड़ों की लागत से बने ये स्मारक खंडहर में तब्दील हो जायेंगे।
इस समय जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता एक युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सुपुर्द कर उनके पिता श्री मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनने के लिए ''भट्टी की तरह धधक रहे हैं, सत्ता नशा पूरे उरोज पर है। सरकारी कर्मचारियों को कर्तव्य निभाने पर तत्काल लात-घंूसे, राइफल के बट से पीटकर फैसला करना अब सत्ता की हनक दिखाने का ''शिष्टाचार बन गया है। संवेदनहीनता सत्ता के आचरण में प्रमुख स्थान हो गया है। किसी अधिकारी को कर्तव्य निर्वाहन के कारण निलंम्बित करना शासन की नीति बन गई है। एक अधिकारी को कर्तव्य निर्वाहन करने के कारण भी निलंबित कर दिया गया है। सुप्रीमो मुलायम सिंह और उनके सत्ताधारी कुनबे की जन्मस्थली सैफई में उसे एक महीने के भीतर ''आल सीजन स्वीमिंग पूल के लिए सिर्फ एक सौ तीन करोड़ रूपया खर्च होने वाला था। सैफई गांव के लिए इस वर्ष के बजट में ''महज तीन सौ तेतीस करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। बोइंग विमान उतरने वाला हवाई अड्डा, लॉयन सफारी, स्टेडियम, अतिथि निवास, रंगशाला और न जाने क्या-क्या सैफई में बन गया है जो समाजवादी पार्टी के सत्ता में रहने पर गुलजार रहता है। इस समय एक पखवारे तक वह गुलजार रहा है जिसका समापन माधुरी दीक्षित, सलमान खान आदि के पदार्पण से हुआ है। एक पखवारे तक सैफई गांव में चलने वाले इस महोत्सव पर राजकीय कोष से ही सारा व्यय हुआ। जब मीडिया ने इस विलासिता और मुजफ्फरनगर के दंगा पीडि़तों की बदहाली का तुलनात्मक ब्यौरा पेश करना शुरू किया तो नशे का जोश कुलाचें भरने लगा। खानदान के सबसे सौम्य समझे जाने वाले व्यक्ति ने मीडिया को देख लेने की चेतावनी तक दे डाली। रामायण की कथा के एक प्रसंग में कहा गया है कि युद्ध में सैनिकों भाई और पुत्रों की बलि चढ़ते रहने के बावजूद रावण की रंगशाला में सांध्यकालीन रंगारंग कार्यक्रम में कोई व्यवधान नहीं पड़ता था। सत्ताधारी का ध्यान जब अवाम की समस्याओं-जिसमें केवल दंगा पीडि़तों का मसला ही नहीं है-की अपेक्षा राग-रंग में डूबे रहने का हो तो फिर द्वारिका के यदुवंशियों की विनाश कथा का स्मरण हो जाता है यहां तो ''कृष्ण स्वयं इस राग रंग का लुत्फ उठा रहे हैं। और जब सुप्रीमो कुनबे सहित राग-रंग में डूबे हों तो सैनिकों और सेना नायकों को खुलकर खेलने से कौन रोक सकता है। राज्य के सत्रह ''जनप्रतिनिधियों को विदेशों में सैर सपाटे के लिए भेज दिया गया इनमें नौ मंत्री हैं। आजम खान नामक वह मंत्री इस दल के नायक हैं जो रामपुर को दूसरा सैफई बनाने पर लगे हैं। उनका ''दुर्भाग्य है कि उनके अपने विभाग-नगर विकास-का कोई अधिकारी रामपुर जाने के लिए तैयार नहीं है। वे एक अवकाश प्राप्त अधिकारी के सहारे काम चला रहे हैं। उनके निजी स्टाफ के सभी सदस्य उनके ''सद्व्यवहार से इतने प्रभावित हुए कि सभी ने एक साथ उनका कार्यालय छोड़ दिया। मायावती के समान अखिलेश यादव भी घोषणावीर बन गए हैं। मायावती ने जितनी घोषणाएं पांच साल में की अखिलेश ने एक वर्ष में उसका रिकार्ड तोड़ दिया है। यह अलग बात है कि जैसे जमीन पर मायावती के स्मारक और पार्क के अलावा कुछ नहीं दिखाई पड़ा वैसे ही अखिलेश के करतब का कमाल सैफई का रंगारंग आयोजन के अलावा बाकी सब छलावा मात्र साबित हो रहा है।
संसद भवन में निजी वाहनों को ले जाने पर रोक के कारण पार्किंग स्थल से मुख्य द्वार तक आवाजाही के लिए वाहनों का प्रबंध किया गया है जिसे ''फेरीÓÓ कहते हैं। उत्तर प्रदेश में राजकीय हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर लखनऊ और सैफई के बीच ''फेरीÓÓ भर के लिए रह गए हैं। सत्ता के इस नशे का यद्यपि हर चुनाव में दोनों ही नशेडिय़ों को बारी-बारी रामचरित मानस की इस उक्ति कि ''एक लख पूत सवा लख नाती-तेहि रावण घर दिया न बातीÓÓ-के अनुरूप ही भोगना पड़ता रहा है लेकिन किसी अन्य विकल्प के अभाव में सत्ता इन्हीं की चेरी बनी रही। उनकी मदान्धता बढ़ते जाने और जनता के सरोकार से अलग होते जाने का यह एक बड़ा कारण रहा है। इसलिए जहां समाजवादी पार्टी इस समय उस 1991 की स्थिति में पहुंच गई है जब सत्ता में होते हुए भी उसे 425 की विधानसभा में महज 31 स्थान प्राप्त हुए थे, वहीं पहली बार विकल्प के रूप में बसपा अब पहली पसंद नहीं रह गई है। लोक सभा का आगामी चुनाव परिणाम इसका सबूत भी दे देगा। लेकिन राजनीति में सुप्रीमो विधा के प्रभाव के बढ़ते जाने के कारण सत्ता से उतरने के बाद भी खुमारी छायी रहती है। मायावती और मुलायम सिंह  से अधिक प्रत्यक्ष उदाहरण मिलना मुश्किल है। यद्यपि देश में अन्य सुप्रीमो भी हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है और शायद आर्थिक नियोजन और प्रशासनिक सुचिता के संदर्भ में सबसे नीचे चला गया है। न्यायालय की दखलंदाजी से बारोहट पर कुछ अंकुश अवश्य लगा है लेकिन असली अंकुश तो मतदाता ही लगा सकता है। एक बार लखनऊ के कॉफी हाउस में पंूजीवाद और समाजवाद पर बहस चल रही थी। पक्ष-विपक्ष, तर्क-वितर्क हो रहे थे जिसके बीच-बचाव करते हुए एक महानुभाव ने दोनों की व्याख्या को बड़े सरल ढंग से कर दिया। उन्होंने कहा-जो अपनी अर्जित पूंजी पर निर्वाह करे वह पूंजीवादी है और जो समाज की पूंजी पर ऐश करे वह समाजवादी है। उत्तर प्रदेश में समाजवाद आ गया है। समाजवादी 1967 तक एक गीत गाते थे-समाज बबुआ धीरे-धीरे आई, न पूरब से आई न पश्चिम से आई, समाजवाद बबुआ किसान से आई, मजदूरन से आई। अब उनका गाना हो गया है ''समाजवाद बबुआ सैफई से आईÓÓ।

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