इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार हम
- संजीव पांडेय
उत्तराखंड की इस त्रासदी को आने वाली पीढिय़ां नहीं भूलेंगी। आने वाले सौ दो सौ साल तक लोग इस त्रासदी को याद करेंगे। इस तरह की त्रासदियां इस देश में आती रही हैं। लोग इसे भूलते रहे है। लेकिन विज्ञान के तमाम साधनों की मौजूदगी के बाद आयी त्रासदी और उसके बाद हुई मौतें इसे ज्यादा याद दिलाएंगी। इस त्रासदी की याद इसलिए ज्यादा आएगी कि यह त्रासदी मानवजनित है। विकास और विज्ञान की दौड़ ने पहाड़ को रूला दिया। धर्म को व्यापार बनाना महंगा पड़ा। देवी और देवता को लोग बेचने लगे। प्रकृति की नाराजगी वाजिब थी। उसकी सहनशीलता को आधुनिक पैसे बनाओ सभ्यता ने छेड़ा। आखिरकार लोग अब पहाड़ पर धर्म के नाम पर मौजमस्ती करने जाने से पहले सोचेंगे।
भारत में धाम की यात्रा की एक परंपरा थी। इस परंपरा में एक उम्र पार करने के बाद लोग धार्मिक कामों के लिए निकल पड़ते थे। लेकिन पैसे की भूख ने सारी परंपरा को बदल दिया। उसी के परिणामस्वरूप उत्तराखंड की त्रासदी की सामने आयी। इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार सिर्फ एक कारण नहीं है। कई कारणों के मिलने के बाद यह भयानक घटना घटी है। इस घटना के लिए मानवीय गलतियां, संसाधनों का अँधाधुंध दोहन, पहाड़ों में बने धार्मिक स्थलों को पिकनिक स्पॉट की तरह इस्तेमाल करना, कारपोरेट जगत का भारी लोभ, सरकारी तंत्र की लापरवाही सारे जिम्मेदार हैं।
इस देश में सरकारी तंत्र घटना होने के बाद जागता है। वो भी जागता नहीं है। वो घटना का इँतजार करता है। इसके बाद सरकारी राहत आने का इँतजार करता है। फिर उसमें से अपना हिस्सा लेने के लिए मारामारी होती है। आज उत्तराखंड में यही हो रहा है। सरकारी अधिकारियों को उत्तराखंड के तबाह गांवों के पुनर्निर्माण की चिंता नहीं है। उन्हें खुशी इस बात की है कि अब निर्माण के लिए जो पैसा आएगा उसमें से अधिकारियों और कर्मचारियों के हिस्से बंटेंगे। अभी भी देहरादून में राहत कार्य में लगे हुए कर्मचारी राहत कार्य के बजाए सरकार से मुफ्त में होटलों से मंगवाए जाने वाले मुफ्त खाने के इंतजार में ज्यादा रहते हैं। उनका परिवार भी आजकल उसी मुफ्त के भोजन के लिए इंतजार में रहता है । बताया जाता है कि मौसम विभाग ने पूर्व चेतावनी राज्य सरकार को दी थी। 14 जून को ही राज्य सरकार को एलर्ट भेजा गया था। भारी बारिश की संभावना के मद्देनजर यात्रा को रोकने लिए कहा गया था। 15 जनवरी को एक और चेतावनी भेजी गई थी। लेकिन अभी तक इस देश का सरकारी तंत्र मौसम विभाग की भविष्यवाणी पर भरोसा नहीं करता। क्योंकि उन्हें लगता है कि आजतक तो मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही हुई नहीं, तो इस बार कैसे सही होती। लेकिन अधिकारियों को पता होना चाहिए कि अब मौसम विभाग आधुनिक तंत्रों से मिली रिपोर्ट पर घोषणा करता है। उसपर विश्वास करते तो शायद इतनी बड़ी घटना नहीं घटती।
मौसम विभाग की भविष्यवाणी की बात छोड़ दीजिए। पहाड़, पहाड़ होते हैं। उतराखंड इसलिए बना था कि उत्तरप्रदेश के मैदानी इलाकों के नेताओं के भेदभाव के शिकार पहाड़ के लोग थे। विकास के लिए अलग राज्य उत्तराखंड बनाया गया। पर विकास का मॉडल गलत चुना गया। विकास के लिए सिर्फ पर्यटन और पनबिजली योजनाओं को माध्यम बनाया गया। लेकिन इसका सीधा उल्टा असर हुआ। यह त्रासदी विकास के इसी मॉडल का परिणाम है। धार्मिक स्थलों के विकास के नाम पर पूरी तरह से कॉमर्शियल गतिविधियां चलायी गई। जब उत्तराखंड बना था तो पूरे प्रदेश में 3 लाख वाहन पंजीकृत थे। आज पूरे प्रदेश में 15 लाख वाहन पंजीकृत है। गर्मियों में इन 15 लाख वाहनों के अतिरिक्त लगभग 5 लाख वाहन बाहरी राज्यों से उत्तराखंड की पहाडिय़ो में घूमते हैं। इससे होने वाले प्रदूषण का जो असर होता है उसका खामियाजा पहाड़ और इसके ग्लेशियर को भुगतना पड़ रहा है।
उत्तराखंड की सीमा चीन के साथ लगती है, इसलिए चीनी सीमा पर होने के कारण सड़क निर्माण इस राज्य में काफी जरूरी है। लेकिन सड़कों को बनाने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया गया। पहले सड़़कों को बनाने का तरीका अलग था। आधा पहाड़ काटा जाता था और उसके साथ लगते कुछ खाली जमीन को भरा जाता था। इससे पहाड़ कमजोर नहीं होते थे। लेकिन आज पहाड़ों को डाइनामाइट से विस्फोट कर तोड़ा जाता है। इस विस्फोट से पहाड़ों में छेद हो गए, सुरंग तक बन गए। इस विस्फोट से सड़क बनाने का खामियाजा पहाड़ों को भुगतना पड़ा। इससे पहाड़ों की नींव ही हिल रही है। अब इस सड़क का निर्माण का क्या फायदा कि चीन सीमा पर जाने वाली सारी सड़कें ही टूट गई। सड़कों पर नियमों को ताक पर रखकर कामर्शियल वाहनों को आने जाने की छूट दी गई। निर्धारित सीमा से ज्यादा भार लेकर ट्रक बेरोकटोक पहाड़ों पर घूमने लगे। इसका असर सिर्फ सड़कों पर ही नहीं बल्कि सड़कों के साथ लगते पहाड़ों पर भी पड़ा।
यह मत भूलें कि पहाड़ों पर विकास के नाम पर बड़े डैम बनाए जा रहे हैं। उत्तराखंड में 150 किलोमीटर के एरिया में लगातार एक-दूसरे से लगते तीन बड़े डैम के कारण गंगा अब सुरंगों में बहती है। इन डैमों को बनाने के लिए बड़े-बड़े विस्फोट किए गए। इससे पहाड़ कमजोर हो गए। गंगा के नेचुरल बहाव को रोका गया। गंगा अब सुरंगों से निकलती है। इसका परिणाम क्या होगा इसे देश के राजनेता और डैम लाबी ने सोचा ही नहीं। लेकिन भूख यहीं नहीं खत्म हुई। बड़े डैमों के बाद डैम लाबी के दबाव में छोटे डैमों की मंजूरी भी राजनेताओं और नौकरशादी ने दे दी।
गंगा और यमुना की धारा सिर्फ उत्तराखंड को जिंदा नहीं रखती, इसकी धाराएं पूरे उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल की कई करोड़ आबादी को पालती पोषती है। लेकिन विकास के समर्थकों को इस आबादी की परवाह नहीं है। इसी गंगा-यमुना के दोआब में भारत की प्राचीन मानव सभ्यता का उदय हुआ। दरअसल भारत में सभ्य मानवीय जीवन का शुरूआत इसी गंगा-यमुना के बीच हुई है। इसमें गंगा और यमुना दोनों नदियों की भूमिका है। इन दोनों नदियों ने भारत की संस्कृति निर्माण में अहम भूमिका निभायी। देश के तीन महान साम्राज्यों का उदय इस गंगा के बेसीन में गंगा के सहयोग से हुआ। मौर्य, गुप्त इसी में शामिल है। दो महान धर्म बौद्ध और जैन धर्म का उदय गंगा की गोद में हुआ। लेकिन यही नदी आज सिर्फ हमारे भूख, लोभ के कारण नाराज हो गई। दस हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में चले गए। गंगा ने आजतक हमें जीवन दिया। गंगा की गोद में सभ्यता का विकास हुआ। लेकिन आज गंगा की गोद में हजारों लोग समा गए। आखिर गंगा की नाराजगी पर अब विचार करने का सही वक्त है।
संजीव पांडेय