महाराष्ट्र में हुई कुछ उथलपुथल
- मा.गो. वैद्य
अजित पवार का यह वक्तव्य निश्चित ही अभिनंदनीय है। लेकिन इसी में राकां के अंतर्गत राजनीति का रहस्य है। अजित पवार ने, राकां के सर्वेसर्वा अपने चाचा शरद पवार को अपने त्यागपत्र की बात बताई और आश्चर्य यह कि शरद पवार ने उन्हें त्यागपत्र देने की अनुमति दी। राकां के अन्य एक प्रमुख नेता और शरद पवार के घनिष्ठ सहयोगी, केन्द्रीय मंत्री, प्रफुल्ल पटेल ने भी यही बताया; और फिर आरंभ हुआ एक महानाट्य। अजित पवार का त्यागपत्र जाते ही राकां के अन्य 19 मंत्रियों ने भी उनके त्यागपत्र पार्टी अध्यक्ष के पास भेजे। मतलब महाराष्ट्र की गठबंधन की सरकार गिरी ही! यह त्यागपत्र मतलब कम से कम 60 विधायकों का, समर्थन पीछे लेना है। फिर निर्दलीय मिलाकर भी कांग्रेस के पास सौ विधायक भी नहीं बचते। सरकार का पतन अटल है। और अजित पवार को यहीं अपेक्षित होगा। लेकिन शरद पवार यह नहीं चाहते। उन्हें केन्द्र की संप्रमो की सरकार में रहना है। उससे दूर नहीं होना। उसी प्रकार महाराष्ट्र में भी कांग्रेस सरकार अपने पूरे कार्यकाल मतलब 2014 तक रहे, ऐसी उनकी इच्छा है। अजित पवार को त्यागपत्र देने की अनुमति देते समय उनके समर्थन में राकां इतनी दृढ़ता से खड़ी रहेगी इसकी कल्पना शायद शरद पवार ने नहीं की होगी। इसलिए इस घटना से वे भी चकित हुए होंगे। गुरूवार को ही वे इस बारे में, त्यागपत्र देने वाले मंत्रियों से भेंट कर उन्हें समझाते लेकिन उसी दिन राकां के एक ज्येष्ठ नेता और महाराष्ट्र विधानसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष बाबासाहब कुपेकर के अंतिम संस्कार में सब को उपस्थित रहना आवश्यक होने के कारण उस दिन यह सभा नहीं हुई। शुक्रवार को दोपहर राकां के सब विधायकों की बैठक लेना तय हुआ।
केवल अजित दादा का त्यागपत्र
इस बैठक में शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, सुप्रिया सुले और पार्टी के अन्य ज्येष्ठ नेता उपस्थित थे। मैं त्यागपत्र के देने के बारे में दृढ़ हूं ऐसा अजित पवार ने अपने भाषण में दोहराया और पार्टी मजबूत बनाने के लिए काम करूंगा ऐसा विश्वास भी दिलाया। तथापि, त्यागपत्र देने के निर्णय पर मैं दृढ़ हूं, ऐसा बताते समय ही चाचा शरद पवार मेरे लिए देवता समान हैं और उनकी बात मैं मानूंगा ऐसा भी कहा। इसका अर्थ क्या निकलेगा इसके बारे में अंदाज व्यक्त होने लगे थे। मेरा अपना अंदाज था कि शरद पवार, अजित पवार को त्यागपत्र देने देंगे, लेकिन जिन अन्य 19 मंत्रियों ने त्यागपत्र दिए हैं, उन्हें त्यागपत्र वापस लेने को कहेंगे और वे मंत्री साहब का कहा मानेंगे। अन्यथा पार्टी में फूट पड़ेगी। अब सब बातें साफ हो गई हैं। केवल अजित पवार त्यागपत्र देंगे यह तय हुआ है अन्य 19 मंत्रियों के जो त्यागपत्र राकां के प्रदेशाध्यक्ष के पास हैं, उन्हें वह वापस लेने के लिए कहा जाएगा। उसी के अनुसार सब हुआ है।
उद्देश्य सफल
शरद पवार का उद्देश्य इस निर्णय से सफल होगा। अजित पवार का स्वाभिमान सुरक्षित रखा गया यह लोगों को दिखेगा और उनका पार्टी में वर्चस्व कम करने का कार्य भी साध्य होगा। दोनों पवार एक ही घराने से हैं, लेकिन पार्टी के अंदर श्रेष्ठत्व के लिए दोनों के बीच संघर्ष असंभवनीय नहीं। महाराष्ट्र के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है। अजित पवार उपमुख्यमंत्री पद से हट गए इस कारण उन्हें तुरंत पार्टी का अध्यक्ष पद मिलेगा ऐसा समझने का कारण नहीं। पार्टी को मजबूत बनाने की उनकी इच्छा कितनी ही तीव्र हो तो भी ऐसा नहीं होगा. विद्यमान अध्यक्ष मधुकरराव पिचड़ को उनका लिहाज रखते हुए हटाया नहीं जाएगा. मतलब अजित पवार सत्ता से भी गए और पार्टी संगठन के सर्वोच्च पद से भी चुके, ऐसी परिस्थिति रहेगी और इसके लिए इस समय तो कोई भी शरद पवार को दोष नहीं देगा या उनकी कन्या सांसद सुप्रिया सुले को पार्टी के प्रमुख पद पर आरूढ करने की उनकी चाल है, ऐसा कोई नहीं कह सकेगा।
आपसी प्रतिस्पर्धा
तात्पर्य यह कि, महाराष्ट्र में इस उथलपुथल से सरकार गिरने का कोई खतरा नहीं। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की कार्यशैली से कांग्रेसजन खुश हैं ऐसा नहीं। लेकिन इस समय वे उनके समर्थन में खड़े रहे। सिंचाई प्रकल्पों के बारे में श्वेत पत्र हो अथवा भुजबल के आरोपित महाराष्ट्र सदन निर्माण कार्य का घोटाला, मुख्यमंत्री कठोर निर्णय ले, ऐसी ही कांग्रेस के विधायकों की इच्छा होगी। इसमें श्वेतपत्र निकालने के लिए शरद पवार ने ही आग्र्रह किया है। मतलब वह पत्रिका जल्द ही निकलेगी, यह निश्चित। कारण सरकार गठबंधन की होने के बावजूद दोनों पार्टिंयों में न सामंजस्य है न समन्वय। लेकिन यह सरकार चलने दें तथाकथित जातीयवादी पार्टिंयां मतलब शिवसेना और भाजपा सत्ता में न आएं, इस पर दोनों का एकमत है। या कहें इसी एक बात पर दोनों का एकमत है। इसके अलावा महाराष्ट्र की राजनीति में कौन आगे रहता है इसके बारे में दोनों में स्पर्धा है। पहले भी थी और भविष्य में भी रहेगी। कुछ ही दिनों बाद नांदेड महापालिका का चुनाव है। दोनों पार्टिंयां एक-दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़ रही हैं। नगर परिषद हो या जिला परिषद, चुनावों में कौन किसे मात दे सकता है इसी रणनीति का प्राधान्य रहता है। इन स्थानीय स्वराज संस्थाओं में पदभार स्वीकारते समय भी स्थानीय स्तर पर 'जातिवादीÓ शिवसेना या भाजपा से हाथ मिलाने में किसी को भी संकोच नहीं होता। दूसरे को कैसे पटकनी दे सकेंगे, यहीं विचार प्रधान होता है और उसी के अनुसार रणनीति बनाई जाती है।
पृथ्वीराज हुए मजबूत
इस उठापठक से सबसे अधिक कोई खुश हुआ होगा, तो वे हैं पृथ्वीराज चव्हाण। वे कार्यक्षम मंत्री नहीं, तुरंत फैसले नहीं ले सकते, आदि मत, राकां की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किए जाते हैं। प्रसार माध्यम भी इस पर शोर मचाते रहते हैं। पृथ्वीराज चव्हाण को वापस केन्द्र में बुलाया जाएगा, ऐसी हवा भी बनाई जाती है। मुझे लगता है कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा। चव्हाण मुख्यमंत्री बने रहेंगे। राकां के अंतर्गत संघर्षों के कारण उनका स्थान मजबूत हुआ है। राज्य की राजनीति में उनका वजन बढ़ा है। वे निश्चित ही इसका लाभ उठाएंगे। हमारे जैसे सामान्य लोगों को भी दिलासा मिली है कि अभी तो सरकार को कोई खतरा नहीं मध्यावधि चुनाव नहीं। हम आशा करें कि, नई शक्ति प्राप्त मुख्यमंत्री, सिंचाई विभाग के क्रियाकलापों पर यथाशीघ्र श्वेतपत्र निकालेंगे और उसमें भ्रष्टाचार करने वाले मंत्रियों को घर की राह दिखाएंगे। इस उठापठक से इतना हुआ तो भी काफी है।
दादा आप तो राष्ट्रपति भवन जाकर भी 'प्रणब दा ही रहे
प्रवीण गुगनानी
अभी हाल ही में घटे घटनाक्रम में हमारे राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी जी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उनके सम्मिलित होने के अवसर पर छपे आमंत्रण पत्र पर से अपने नाम के आगे लगे महामहिम शब्द को हटाने का आग्रह किया। सम्माननीय राष्ट्रपति जी के कार्यालय की ओर से जारी विज्ञप्ति का स्पष्ट आशय यह भी है कि स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारतीय गणराज्य में औपनिवेशिक प्रकार के व्यवहार, आचरण, भाषा और शब्दों का प्रयोग बंद कर दिया जाना चाहिए। कहना न होगा कि आज के घोर आडम्बरी, प्रपंची और जबरदस्त दिखावटी व शानोशौकत वाली राजनीति और राजनेताओं के इस युग में सम्मानीय राष्ट्रपति जी का यह आग्रह या आदेश मरुभूमि के बीच ठंडी हवा के एक पुरसुकून और ताजा हवा के एक झोंके की तरह आया है। हाल ही में निर्वाचित सम्मानीय राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी -जिन्हें हम आदरपूर्वक प्रणब दा के नाम से पुकारते हैं- के सम्बन्ध में राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद ऐसा लगने लगा था कि इन्हें संभवत: अब 'प्रणब दाÓ के नाम से पुकारना और संबोधित करना बंद करना होगा किंतु उनके इस अनूठे, अभिनव किंतु अपनेपन से भरे आदेश के बाद पूरे भारतीय राजनैतिक जगत और आम नागरिकों को लगने लगा है कि ये तो हमारे 'प्रणब दा ही है। प्रणब दा के इस स्नेहिल आदेश के बाद निश्चित ही 'दा शब्द का वजन बढ़ गया है और अब हम उन्हें और भी अधिक प्रेम, स्नेह और अपनेपन से 'प्रणब दा बोल पाएंगे।
सम्मानीय प्रणब दा ने तो अपनी ओर से स्थिति स्पष्ट कर दी कि भारतीय राजनीति, सामाजिक और प्रशासनिक परिवेश से अब औपनिवेशिक शब्दों का व वातावरण का लोप विलोप हो जाना चाहिए किंतु लाख टके का सवाल यह है कि है कि क्या भारतीय राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी औपनेवेशिक, अंग्रेजी या राजसी भाषा, ब्रिटिश व्यवहार, मुगलियाना हाव भाव, राजतान्त्रिक चाल चलन और धरती से चार अंगुल ऊपर उठकर चलने के अपने चाल चलन और व्यवहार को बदलने के लिए तैयार हैं? मुझे लगता है कि भारतीय राजनीतिज्ञ और नौकरशाह अपने राजसी व्यवहार को बदलने की तो छोडिय़े उस पर चिंतन मनन और चर्चा करने को भी तैयार नहीं दिखते हैं। आजकल देश के सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले लोग अपनी शान और बान केवल इस बात में समझते हैं कि सार्वजनिक स्थानों और संस्थानों में उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं, सम्मान और सुविधा प्रदान की जाएं। ऐसे दमघोंटू और अवसादग्रस्त कर देने वाले वातावरण में निश्चित ही प्रणब दा की यह पहल प्रसन्नचित्त और प्रफुल्लित कर देने वाली तो हैं किंतु इस नई पहल का अनुसरण कितने और कौन कौन करते हैं यह उत्तर बहुप्रतीक्षित और बहु अपेक्षित रहेगा!! यह आशा और अपेक्षा भी सदा ही रहेगी कि भारतीय राजनीति के इस अधोन्मुखी कालखंड को उत्तरोत्तर प्रज्ञा और संज्ञा से भर देने के लिए प्रणब दा क्या क्या करते हैं? प्राचीन एतिहासिक महाभारत कालीन नगरी हस्तिनापुर के अवशेषों, खंडहरों तथा कौरवों पांडवों के और घातों, प्रतिघातों, षड्यंत्रों, संधियों, दुरभिसंधियों के विशाल किंतु अविस्मरणीय इतिहास को अपने उदर में छिपाए बैठी इस रायसीना पहाड़ी पर बना हमारा राष्ट्रपति भवन एक स्वयंसिद्ध व जागृत स्थापत्य रहा है। ब्रिटिश व भारतीय स्थापत्य शैली का यह बेजोड़ प्रासाद ब्रिटिश काल में वायसरीगल हाउस कहलाता था और औपनिवेशिक शासन का संचालन गढ़ होता था। आज उसी ब्रिटिश शासकों द्वारा बनाए गए राजप्रासाद के गलियारों से गुजरकर हमारे राष्ट्रपति जी का अपनेपन से भरा सन्देश भारतीय जनता और जनतंत्र को मिलना एक सुखद, सुन्दर, स्वस्थ, समृद्ध सन्देश तो है ही किंतु साथ साथ आश्चर्यजनक भी है !!! स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात जब डा. राजेन्द्रप्रसाद और उनके बारह वर्षीय कार्यकाल के बाद डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तब तो सब कुछ बहुत ही ठीक, व्यवस्थित और उदाहरण परक था किंतु इन दो राष्ट्रपतियों के सत्रह वर्षीय कार्यकाल के बाद स्थितियां और उदाहरण उतने सहज और स्वस्थ नहीं रहे। पल प्रतिपल, दिन प्रतिदिन, साल दर साल और दशक दर दशक इस राष्ट्रपति भवन ने जो राजनीति और आदर्शों के अधोगमन का खेल देखा उसके विषय में -यदि एक डा. अब्दुल कलाम आजाद के कार्यकाल को छोड़ दें तो बाकी की- चर्चा न करना ही अधिक उचित और गरिमामयी रहेगा। डा. राधाकृष्णन जी के कार्यकाल के पश्चात से लेकर वर्ष 1980 से पूर्व जब तक राज्य सरकारों के विषय में राष्ट्रपति भवन को प्रदत्त अधिकारों के विषय में नया कानून नहीं बन गया तब तक तो राष्ट्रपति भवन का उपयोग राज्य सरकारों के सत्ताहरण का एक सहज सुलभ साधन बन गया था। इतिहास साक्षी है कि अस्सी के दशक के पूर्व तक के काले स्याह उदाहरणों के कारण ही स्वतंत्र भारत में राष्ट्रपति की छवि रबर स्टंप की बन गयी थी। अंतरात्मा की आवाज वाले अध्याय ने तो सदा सदा के लिए राष्ट्रपति भवन पर अमिट छाप ही छोड़ दी थी। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि प्रतिभा ताई के राष्ट्रपति भवन से विदा होने की बेला में प्रणब दा भी एक ऐसी भूल कर बैठे थे जो उनके राजनैतिक आकार से बहुत ही छोटी और गंभीर थी। वह भूल थी उनके राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को तय करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष के प्रति आभार प्रकट करने की!! उन जैसे विशाल व्यक्तित्व और अनुभवी राजनेता से यह आशा नहीं थी कि खासतौर से राष्ट्रपति की उम्मीदवारी तय होने के बाद- वे अपनी उम्मीदवारी के लिए राष्ट्रीय राजनीति या जनता के स्थान पर कांग्रेस अध्यक्ष के प्रति आभार या धन्यवाद प्रकट करें। वह क्षण प्रणब दा की गरिमा और प्रतिष्ठा के विपरीत खड़ा क्षण था और उनके प्रति राष्ट्र के विश्वास को डिगाने वाला क्षण भी.. किंतु आज इस महामहिम शब्द को हटाने और भारतीय राजनीति से औपनिवेशिक शब्दों और व्यवहार आचरण को समाप्त करने वाला व्यक्तव्य देते समय उन्होंने न केवल उनके प्रति हमारे विश्वास को डिगाने वाले क्षण का समूल नाश कर दिया है बल्कि देश की आशाओं और विश्वास के अनुरूप ही अपनी पारी को भी प्रारंभ कर दिया हैं। भारत में गठबंधन और जोड़तोड़ की राजनीति के इस विकट कालखंड में राष्ट्रपति भवन की भूमिका किसी भी क्षण अति महत्वपूर्ण और निर्णायक हो सकती है। विभिन्न मतों, विचारों और धुर विरोधियों को भी साथ लेकर सरकार बना लेने के इस महाविकट और राजनैतिक रूप से संक्रमणकाल में यह अवश्यम्भावी ही लगता है कि आने वाला इतिहास हमारे राष्ट्रपति भवन की परीक्षा लेने ही वाला है। किंतु आशापूर्ण सुविधा, प्रसन्नता और तसल्ली इस बात की भी है कि इस संक्रमण काल के लिए एक राजनैतिक पंडित और संवेदनशील व्यक्ति इस परीक्षा को कुशलता से उत्तीर्ण करने और भारतीय राजनीति और जनता दोनों को प्रसन्न कर देने के लिए निर्मल हृदय लिए उद्धत और तैयार बैठा है।