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जनता अपरिपक्व नेतृत्व को पसंद नहीं करती



हाल ही में उत्तर प्रदेश, बिहार में कुछ उपचुनाव हुए, उनमें गोरखपुर, फूलपुर के लोकसभा चुनवा में भाजपा को जीत नहीं मिली, उसको लेकर राजनैतिक सरगर्मी तेज हुई, हारे-थके विपक्ष को कुछ ऊर्जा भी मिली और नकारे गये क्षेत्रीय दल और कांगे्रस गठबंधन की राजनीति में सत्ता का गलियारा तलाशने में जुट गये। गठबंधन की राजनीति ही विविधता के भारत में अनिवार्य है, यह धारणा बन गई थी कि क्षेत्रीय क्षत्रपों के दबाव में ही केन्द्र सरकार चल सकती है। हालत यह हुई कि सपा के जनक मुलायम सिंह कहने लगे थे कि क्षेत्रीय दलों के सहयोग से ही केन्द्र सरकार बनेगी और उनके सहयोगी उनमें भविष्य के प्रधानमंत्री की प्रतिछाया के दर्शन करने लगे थे। यह विचार इसलिए बना कि करीब चार दशक से गठबंधन राजनीति से ही सत्ता प्राप्त करने का सिलसिला चलता रहा। गैर कांग्रेसी गठजोड़ से संविद सरकारे बनी। यहां तक की इंदिरा तानाशाही से त्रस्त विपक्ष ने जेल के अंदर ही जनता पार्टी बनाई और तानाशाही के खिलाफ जनता इस नई पार्टी के गठजोड़ के साथ खड़ी हो गई। जनता पार्टी की मोरारजी भाई की सरकार का आपसी कलह एवं महत्वाकांक्षा के संघर्ष के कारण ढाई वर्ष में ही पतन हो गया। जनता ने दु:खी होकर फिर इंदिराजी को सत्ता सौंप दी। उनके बाद एक दलीय कांग्रेस की सरकार बनी और बोफोर्स घोटाले से पनपे जनआक्रोश ने कांगे्रस की राजीव सरकार को सत्ता से हटा दिया। फिर वी.पी. सरकार की गठबंधन की सरकार बनी, लेकिन रामजन्म भूमि अभियान का नेतृत्व कर रहे आडवाणीजी की गिरफ्तारी के कारण भाजपा के वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापिस लेने से इस गठबंधन सरकार का पतन हो गया। 1990-91 में दो प्रधानमंत्री का आना-जाना हुआ। कांगे्रस ने किस सरकार को बनाया और समर्थन वापिस लेकर किस सरकार को गिराया। विश्वासघात की राजनीति की अगुवाई भी कांगे्रस ने की। इसके बाद कांगे्रस के नेतृत्व में नरसिंह राव की सरकार बनी। यूपीए गठबंधन की इस सरकार ने अल्पमत में रहते हुए, किसी तरह जोड़तोड़ के पांच वर्ष शासन किया। भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गठबंधन की होते हुए भी सबको साथ लेकर चलने के अटलजी के उदार नेतृत्व के कारण करीब 6 वर्ष तक अटल सरकार चली, इस सरकार ने दुनिया के दबाव को नकार कर पोखरण में परमाणु विस्फोट किया इससे दुनिया को यह आभास हुआ कि भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न देश है, लेकिन अटल सरकार भी सहयोगी दलों के दबाव में ऐसे निर्णय नहीं ले सकी, जो भाजपा के विचारों को पुष्ट करते हो। इसके बाद कांग्रेस यूपीए गठबंधन की मनमोहन सरकार दस वर्षो तक चली, उसके अंतिम दो वर्ष (2012-13) घोटालों के वर्ष रहे। 2014 में विकल्प के रूप में जनता ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व और भाजपा के विचार को पसंद किया। यही नहीं गठबंधन के दबाव की राजनीति से परे भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया। दबाव से मुक्त होकर मोदी सरकार ने गत चार वर्षों में साहसिक निर्णय लिए और भारत को दुनिया की महाशक्तियों के बराबर लाने में सफलता प्राप्त की। आज भारत दुनिया के सामने स्वाभिमान और गौरव के साथ खड़ा है। आर्थिक और सैन्य शक्ति में भी भारत सुपर पावर माना जाता है। पहले हमें चीन के बदलते तेवर को देखकर अपनी नीति में बदलाव करना होता था।

अब चीन को भारत के तेवर देखकर अपने रवैये में बदलाव करना होता है। भारत के नेतृत्व को सुपर पॉवर देश भी स्वीकारने लगे है। दबाव के गठबंधन और स्पष्ट बहुमत के राष्ट्रीय दल के गठबंधन के अंतर को समझना होगा। दबाव के गठबंधन अस्थिर इसलिए रहे कि निहित स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के संघर्ष से ये सरकारें न ठीक से काम कर कसी और न जनहित के साहसिक निर्णय लेने में सफल हुई। स्पष्ट बहुमत के साथ अन्य दलों के समर्थन वाली गठबंधन सरकार ही अपने सपने के अनुरूप निर्णय लेकर काम कर सकती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और चार वर्ष में मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटल आर्थिक व्यवहार जैसे साहसिक निर्णय लिए और जनता ने कड़वी दवाई से अच्छे भविष्य होने की उम्मीद से इन्हें स्वीकार किया। मोदी सरकार का पांचवा वर्ष शुरू होने को है। अगले वर्ष 2019 में आम चुनाव के नगाड़े बज रहे हैं। भाजपा विरोधियों के लिए समस्या यह है कि चाहे गठबंधन से जीत के रास्ते की तलाश करने में सफल हो जाय, लेकिन नरेन्द्र मोदी के हिमालयी नेतृत्व के सामने किसे खड़ा किया जाय? हालांकि जमीनी सच्चाई यह है कि एक सशक्त राष्ट्रीय दल के साथ ही कोई गठबंधन स्थिर रह सकता है। अखिलेश, मायावती का गठजोड़ केवल उत्तर प्रदेश में जोर अजमाइश कर सकता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसका असर विशेष नहीं हो सकता। जहां दो क्षत्रप एक दूसरे को बढ़कर समझते है, उनमें एक दूसरे को पछाड़ने की कोशिश होगी। स्वार्थ पर टिेके गठबंधन और विचार के आधार पर बने गठबंधन में अंतर है। इसी दृष्टि से अखिलेश मायावती के गठबंधन का आंकलन करना होगा। वैसे तो तीन प्रकार की विचार धाराओं से भारतीय राजनीति प्रभावी है। मार्क्सवादी विचार के कम्युनिस्टों को दुनिया ने नकार दिया। है। भारत में भी उनका थोड़ा बहुत प्रभाव केरल में शेष है। इन विचारों का पहला संघर्ष राष्ट्रवादी विचारों के साथ छोटे राज्य त्रिपुरा में हुआ। भाजपा के राष्ट्रवादी विचारों ने कम्युनिस्टों के साम्यवादी विचार को पछाड़ कर वहां अपना विजयी परचम फहरा दिया। उत्तर पूर्व जहां कभी अलगाव की चर्चा हुई, कभी भी अलग राज्य की मांग उठी, घुसपैठ की समस्या रही, वह उत्तर पूर्व आज राष्ट्रीय एकात्मता का प्रतीक बनकर विकास की दृष्टि से देश में पहले क्रमांक पर पहुंच रहा है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने उत्तर पूर्व राज्यों को विशेष दर्जा देकर विकास की धारा से जोड़ा है। जो उत्तर पूर्व के लोग अपने को देश से अलग-थलग मानते थे, वहां के लोग अपनी सनातन संस्कृति पर अडिग रहते हुए भारतीयता के गर्व और स्वाभिमान से अभिभूत है। भारत माता की जय और वंदे मातरम की गूंज उत्तर पूर्व में गुंजित हो रही है। जो जनता कम्युनिस्ट और अन्य अलगाव के विचार से भ्रमित हो रही थी, अब राष्ट्रीय विचार से प्रेरित होकर विकास के न्यू इंडिया में अपने उज्जवल भविष्य को निहार रही है। यह वैचारिक बदलाव भारत की एकता एवं सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्व का है।

भारत के राजनैतिक भविष्य की इबारत 2019 में क्या लिखी जायेगी। भारत की भाग्य विधाता जनता है। इसलिए कोई भविष्यवाणी एक-दो उपचुनाव के आधार पर करना, बेकार की माथापच्ची होगी। जमीनी सच्चाई का विचार कर ही कोई निर्णय निकालना होगा। राष्ट्रीय दल के नाते 20 राज्यों में शासन स्थापित करने वाली भाजपा है और केवल तीन राज्यों में सिमटी कांग्रेस है। भाजपा ग्यारह करोड़ सदस्यों के साथ विराट स्वरूप में दिखाई दे रही है और कांग्रेस के पास कितने सदस्य है, उसके संगठन का फैलाव, प्रभाव कितना है इसकी सही जानकारी नेतृत्व को भी नहीं है। नये शहजादे राहुल गांधी क्या बोलते है, उनका बौद्धिक स्तर क्या है, वे भारत को कितना समझते है? ये सब केवल सवाल है? उत्तर अभी तक राहुल की कथनी करनी से नहीं मिल सका है। स्थिर सरकार और योग्य नेतृत्व के हाथों में जनता अपने भाग्य को सौपेंगी या ऐसे अपरिपक्व, अक्षम, अयोग्य और दबाव के गठबंधन के हाथों देश की बागडोर सौंपना चाहेगी, जो अस्थिरता के साथ कितने दिन चलेगा, इसका भविष्य पुराने कटु अनुभव के आधार पर लिखा जा सकता है। भारत ने कई बदलाव के बवंडर देखे हैं, कई क्रांतियां हुई है। मोदी सरकार के विकास के सूर्य पर भी काले बादल छाये दिखाई देते है। ये बादल कुछ समय बाद छट जायेंगे। जनता के न्याय मंदिर की देवी की आंख पर काली पट्टी बंधी नहीं होती। वह आंख खोलकर देखती समझती और न्याय करती है। यही भारतीय राजनीति की जमीनी सच्चाई है। परिपक्व जनता अपरिपक्व नेतृत्व को पसंद नहीं कर सकती। स्पष्ट बहुमत की भाजपा के कारण ही नरेन्द्र मोदी सरकार अपने सपने साकार करने में जुटी है। यदि जनता स्पष्ट बहुमत नहीं देती तो टीडीपी, शिवसेना मोल तोल का दबाव बनाने में सफल होती या सरकार के पतन का कारण बनती। इसलिए जनता स्पष्ट जनादेश का निर्णय जनता 2019 में भी करेगी?

(लेखक - वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)

Updated : 20 March 2018 12:00 AM GMT
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