भाजपा करे हार में भी जीत की तलाश

लोकतंत्र की नब्ज का अर्थ जनता की नब्ज होती है। यह हमेशा चर्चा का विषय रहता है कि जनता किसके पक्ष में है? एजेंसियां भी जनता का मूड जानने की कोशिश करती है। इस बारे में सर्वे भी प्रकाशित किए जाते है, लेकिन इन सर्वेक्षणों पर भी सवाल दागे जाते हैं, क्योंकि विविधता के सवा अरब के देश में कुछ हजार लोगों की राय को जनता की आवाज नहीं माना जा सकता। इसके साथ सर्वे एजेंसी का तर्क यह रहता है कि खिचड़ी पकी या नहीं पकी, इसका अंदाज एक चावल को देखकर हो जाता है। लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया सतत चलती रहती है। किसी सांसद या विधायक की मृत्यु के छह माह में चुनाव की अनिवार्यता का प्रावधान है। राजस्थान के दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट के उपचुनाव हुए, इसमें कांग्रेस को भारी सफलता मिली। राजस्थान में वसुंधराराजे की भाजपा सरकार है। 2014 के लोकसभा चुनाव में वहां की सभी सीटों पर भाजपा की विजयी हुई थी। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को दो तिहाई बहुमत मिला था।
म.प्र., छत्तीसगढ़ के साथ राजस्थान के चुनाव भी इसी वर्ष होना है। इस स्थिति-परिस्थिति के आंकलन का यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि ये चुनाव भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। इसके साथ राजस्थान की जनता के पिछले जनादेश को सामने रखकर यह भी भविष्य बताने की कोशिश होगी कि वहां की जनता हर पांच वर्ष में परिवर्तन चाहती है। वह एक सरकार को एक कार्यकाल का अवसर ही देती है। भाजपा नेतृत्व भी इस तर्क के साथ पराजय से पल्ला झाड़ने की कोशिश करेगा कि वसुंधरा सरकार के कामकाज से नाराजी के कारण उपचुनाव में हार मिली। कांग्रेस इस जीत का सेहरा राजेश पायलट और कांग्रेस के नए बादशाह राहुल गांधी के सिर बांधेगी। जिस राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस को पराजय पर पराजय मिली वे राहुल अब निराशा के चंगुल से बाहर निकलकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की स्थिति में दिखाई देंगे। हार-जीत लोकतंत्र का स्थाई चरित्र है। लोकतंत्र का स्वभाव यह है कि वह किसी व्यवस्था को जड़ता के चंगुल से मुक्त रखता है। बदलाव नीतिगत होना चाहिए। सरकार के कामकाज के आधार पर होना चाहिए। सरकार के दावे पूरे नहीं होने पर नाराजी होना चाहिए या समाजहित और राष्ट्रहित की दृष्टि से बदलाव ठीक दिशा में है। इस बारे में बहस होना चाहिए। हमारा लोकतंत्र बहुमत के जनादेश से संचालित होता है। अल्पमत को जनता की आवाज नहीं माना जाता। कोई वर्ग, जाति या समूह के हित की पूर्ति नहीं होने से भी बहुमत पक्ष से विपक्ष में हो जाता है। यह बहस भी प्रारंभ हुई है कि जो सामाजिक दृष्टि से उच्च वर्ग माने जाते हैं, जातीय पहचान की दृष्टि से ब्राह्मण, राजपूत, मराठा, जाट, वैश्य आदि अपने आपको ठगा महसूस करते है। उनके बच्चे प्रतिभा संपन्न होने के बाद भी आगे नहीं बढ़ पाते। उनके मार्ग में आरक्षण बड़ी बाधा है। सरकार की योजनाएं भी आरक्षण प्राप्त वर्ग या जाति पर केंद्रित है। इसलिए सामान्य वर्ग में सरकार की नीतियों के प्रति नाराजी रहती है।
- रुक्मणि श्रीवास्तव