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यह कैसी मानसिकता है


याचिका में केन्द्रीय विद्यालयों में की जा रही प्रार्थना को हिन्दू प्रार्थना इसलिए भी कहा गया है क्योंकि वह संस्कृत में है और संस्कृत हिन्दुओं की भाषा है ईसाई और मुसलमानों की नहीं इसलिए वह सेक्युलरिज्म के विपरीत है। यदि हिन्दू का अर्थ भारत है तो संस्कृत उसकी भाषा है। भारत, भारतीयता या हिन्दुत्व बिना संस्कृत भाषा के अस्तित्वहीन है। लेकिन संस्कृत किसी पंथ सम्प्रदाय की भाषा नहीं है जैसा ईसाई और इस्लाम पंथ हैं। यदि याचिकाकर्ता के तर्क को स्वीकार कर संस्कृत को हिन्दू धर्म की भाषा होने के कारण उसमें की जाने वाली प्रार्थना को सेक्युलरिज्म के विपरीत मान लिया जाय तो फिर सर्वोच्च न्यायालय में मान्य केवल अंग्रेजी भाषा की ईसाइयों की भाषा मानना होगा और उसका प्रयोग सेक्युलरिज्म के खिलाफ माना जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है जिसमें मांग की गई है कि केंद्रीय विद्यालयों में हो रही हिन्दू प्रार्थना को बंद किया जाय, क्योंकि यह संविधान के सेक्युलर प्रावधान के विपरीत है। न्यायालय ने याचिका को विचारार्थ स्वीकार करते हुए केंद्रीय शिक्षा विभाग को नोटिस जारी कर उसका अभिमत जानना चाहा है। इस याचिका ने ध्यानाकर्षित किया केंद्रीय विद्यालय में कक्षा प्रारंभ होने से पूर्व होने वाली प्रार्थना पर। यह प्रार्थना वैदिक मंत्राधारित है। इसमें असतो मां सद्गमय, तमसो मां ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृत्योगमय जैसी पंक्तियां शामिल हैं जिसमें ईश्वर से प्रार्थना की गई कि बह हमें असत्य से सत्य की ओर अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर जाने की राह दिखाये। याचिका पर न्यायालय का निर्णय क्या और कब और किस रूप में आयेगा, उस पर अटकलें लगाने के बजाय अनादिकाल से इसे वैदिक वाक्यों का भारतीय जनजीवन में प्रवाह ही उसकी आध्यात्मिकता का आधार बना हुआ है। अध्यात्म अर्थात ईश्वर ने जो वस्तु बनाई है उससे तादात्म-जिसे मानवधर्म भी कहा गया है। हिन्दू कोई धर्म नहीं है जैसा कि इस्लाम और ईसाइयत है। हिन्दू को धर्म बताकर उसे इस्लाम और ईसाइयत के समान किसी प्रवर्तक के निर्देश और किसी एक ग्रंथ में वर्णित जीवनशैली तथा पूजा पद्धति के अनुशरण वाला मानने के कारण जो अनेक भ्रांतियां पैदा हुई हैं उसमें ऐसी मानसिकता का उद्भव होता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में सेक्युलर शब्द का समावेष करना आवश्यक नहीं समझा था, क्योंकि भारत सदैव से सर्वधर्म सम्भाव की अवधारणा पर चलने वाला देश रहा है।

यही कारण है कि इस धरती पर असंख्य पंथ और सम्प्रदाय उद्भूत हुए और उनमें किसी प्रकार वैमनस्य नहीं है जैसा भारत बाह्य धर्मों में देखा जा सकता है। इंदिरा गांधी ने संविधान में सेक्युलर और समाजवाद शब्द को शामिल किया। अंग्रेजी शब्द का हिन्दी अनुवाद धर्म निरपेक्ष के रूप में हुआ जिसका सुधार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में पंथ के रूप में किया गया। इसलिए हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष नहीं पंथ निरपेक्ष है। हिन्दू कोई धर्म नहीं है। यह एक भौगोलिक पहचान है। सर्वोच्च न्यायालय ने हिदुत्व को एक जीवनशैली के रूप में व्याख्यायित किया है। भारत में धर्म को आध्यात्म के रूप में देखा और समझा गया है। केंद्रीय विद्यालयों में जो वैदिक मंत्र की प्रार्थना होती है वह किसी पंथ या संप्रदाय की प्रार्थना नहीं है जैसा कि इस्लाम का ईसाईयत की शिक्षा संस्थाओं में वाईबिल या कुरान के बाद से होता है।
याचिका में केन्द्रीय विद्यालयों में की जा रही प्रार्थना को हिन्दू प्रार्थना इसलिए भी कहा गया है क्योंकि वह संस्कृत में है और संस्कृत हिन्दुओं की भाषा है ईसाइयत और मुसलमानों की नहीं इसलिए वह सेक्युलरिज्म के विपरीत है। यदि हिन्दू का अर्थ भारत है तो संस्कृत उसकी भाषा है। भारत, भारतीयता या हिन्दुत्व बिना संस्कृत भाषा के अस्तित्वहीन है। लेकिन संस्कृत किसी पंथ सम्प्रदाय की भाषा नहीं है जैसा ईसाई और इस्लाम पंथ हैं। यदि याचिकाकर्ता के तर्क को स्वीकार कर संस्कृत को हिन्दू धर्म की भाषा होने के कारण उसमें की जाने वाली प्रार्थना को सेक्युलरिज्म के विपरीत मान लिया जाय तो फिर सर्वोच्च न्यायालय में मान्य केवल अंग्रेजी भाषा को इसाईयों की भाषा मानना होगा और उसका प्रयोग सेक्युलरिज्म के खिलाफ माना जाना चाहिए। यह याचिकाकर्ता न तो ईसाई हैं न मुसलमान। यह भोपाल निवासी एक हिन्दू हैं। संविधान का प्रारूप तैयार करने वाले डा. भीमराव अंबेडकर की मान्यता थी कि भारत में सरकारी कामकाज की भाषा संस्कृत होना चाहिए। आज के यांत्रिक युग में जिसे कम्प्यूटर युग भी कहा जाता है-के लिए सबसे अधिक उपयोगी संस्कृत भाषा को ही माना गया है। यद्यपि उसका प्रयोग नहीं हो रहा है। संस्कृत भाषा सभी प्रकार के ज्ञान विज्ञान की भाषा है। हमारा वह कोष है जिसमें से जीवन की सारी विधाओं का प्रगटीकरण निरूपण किया गया है। संस्कृत हमारे सांस्कृतिक आध्यात्मिक, भौतिक और पराभौतिक अनुभूति से सम्पन्न वेद सहित तमाम वह साहित्य प्रदान करने की भाषा है जो पूरे ब्रह्माण्ड को समझाने का रास्ता दिखाती है।

इसका प्रयोग भले ही चलन में न हो लेकिन अनुभूति का क्षरण नहीं हुआ है। भले ही इसके लिए अनेक प्रयास किए गए और वे अभी भी जारी हैं। संस्कृत संस्कार की भाषा है, किसी पंथ सम्प्रदाय या उपासना पद्धति की भाषा नहीं। वेद मंत्र जिसे प्रार्थना के रूप में केंद्रीय विद्यालयों में प्रयोग किया जाता है, मानवीयता के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने की प्रेरणा देता है, उसे या उसकी भाषा को सेक्युलरिज्म जैसे संघर्षयुक्तता से जुड़े माहौल में पनपने वाले शब्द के विपरीत बताना उसे सही मायने में सार्थक कहा जा सकता है जो सेक्युलरिज्म के प्रयोग की निरर्थकता को स्थापित करती है लेकिन सर्वधर्म सम्भाव की अवधारणा की अनुभूति दिलाने वाली भाषा को किसी साम्प्रदायिक दायरे में सीमित करने के प्रयास करने वालों की मानसिक दुर्बलता के वशीभूत नहीं किया जा सकता।

संस्कृत का विरोध भारतीय संस्कृति का विरोध है। कुत्सित मानसिकता के कारण भारतीय संस्कृति को हीन साबित करने का प्रयास नया नहीं है। अब उसका विरोध करने की विक्षिप्तता का जब विनाशकारी स्वरूप संज्ञान में आने के कारण समाज में आत्मज्ञान उभर रहा है जो इसे फिर से आच्छादित करने के जो बहुविध प्रयास चल रहे हैं उसमें से एक कड़ी के रूप में इस याचिका को भी देखना चाहिए। विवादों में स्तरीय संवाद में घिरी सर्वोच्च न्यायालय को क्या इस प्रकार की मानसिकतायुक्त याचिकाओं को विचारार्थ स्वीकार करना चाहिए या नहीं। इस पर भी इसके औचित्य पर भी-सार्वजनिक बहस जरूरी है। हमारी आस्था अस्मिता सांस्कारिकता और आध्यात्मिकता को ठेस पहुंचाने के प्रयास में चाहे जो मंच अपनाया जा रहा हो, उसके खिलाफ आवाज उठाना युगधर्म है। हमें इस धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करना चाहिए और जो चाहे रामसेतु रामजन्मभूमि हो, वैदिक संस्कारयुक्त संस्कृत भाषा के श्लोक हो, उनके खिलाफ अभारतीय धारणाओंों को प्रोत्साहन देने के लिए अग्रसर हो उन्हें बेनकाब करना चाहिए क्योंकि भारत इस समय नवजागरण के दौर में है और यही दौर उसकी विश्वव्यापी साख का आधार है।

Updated : 18 Jan 2018 12:00 AM GMT
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