आजादी अधिकार ही नहीं, कर्तव्य और मर्यादा

- सियाराम पांडेय
आजादी सभी चाहते हैं। पशु-पक्षी भी नहीं चाहते कि वे गुलाम रहें। फिर मनुष्य तो स्वभावतः आजाद ख्याल है। उसकी हमेशा से यह धारणा रही है कि उसके ऊपर कोई नहीं रहे। ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई।’ अगर ऐसा हो जाए, हर आदमी इतना आजादख्याल हो जाए, इतना स्वतंत्र हो जाए कि उस पर किसी का अंकुश ही न हो तो देश में अराजकता की पराकाष्ठा हो जाएगी। कोई किसी का कहा नहीं मानेगा। हमारे चिंतकों ने आजादी का विचार तो किया लेकिन उसे मर्यादा की सीमा में बांधने की भी नीति बनाई। उस मर्यादा का एक नाम धर्म भी है। अगर मर्यादा धर्म न होता तो इस देश में अनुशासन भी नहीं होता। परिवार का अनुशासन, समाज का अनुशासन, प्रदेश और देश का अनुशासन बन ही नहीं पाता। धर्म ने पूरे देश को एक कर रखा है। इसलिए कि धर्म की अपनी मर्यादा है। अपना अनुशासन है। आजादी मर्यादा में ही अच्छी लगती है। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का फर्क तो समझा ही जाना चाहिए। आज देश में जिसे देखिए, वही आजादी मांग रहा है जबकि इस देश के संविधान ने हर नागरिक को आजादी दे रखी है। इतनी मुकम्मल आजादी कि इसके बाद किसी और आजादी की जरूरत ही न पड़े । हम आजाद हैं यह जितना सत्य है, उससे कम सत्य यह भी नहीं है कि दूसरे भी हमारे जितना ही आजाद हैं। हमारी आजादी की सीमा वहीं खत्म हो जाती है, जहां से दूसरे व्यक्ति की आजादी की सीमा आरंभ होती है। जब तक इस बात को सलीके से समझा न जाएगा, तब तक आजादी को लेकर मतिभ्रम के हालात बने रहेंगे। आज सबसे बड़ा संकट इस बात का है कि हम खुद को तो आजाद मानते हैं लेकिन दूसरों की आजादी को महत्व नहीं दे पाते। आजादी एक तरह का नीर-क्षीर विवेक है। यह अगर अधिकार है तो कर्तव्य भी है। अधिकार और कर्तव्य के ईंट-गारे से ही आजादी का भवन बनता है।
इस देश के वीर शहीदों ने आजादी के लिए अपनी जान इसलिए नहीं कुर्बान की थी कि कुछ लोग इसे अपनी विरासत समझ बैठें। राजनीति चमकाने का जरिया मान बैठें। कुछ लोग अपनी कारगुजारियों की बदौलत धनपति बनते जाएं और देश में एक बड़ा जन संवर्ग मूलभूत अधिकारों और सुविधाओं तक से वंचित रह जाए। देशभक्ति का भाव भरते इस गीत पर जरूर गौर फरमाना चाहिए-‘ ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी। जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।’ जिस दिन हम शहीदों की कुर्बानी और उसके उद्देश्यों का विचार कर लेंगे, उस दिन हमें अपनी आजादी की कीमत समझ में आ जाएगी? इस देश को शत्रुओं से कम, इस देश के अपने नागरिकों से ज्यादा खतरा है। ‘अयम निजः परोवेति’ का भाव ही इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या का निदान मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।
देश में आज आर्थिक आजादी, सामाजिक आजादी की बात उठ रही है। पिछले कुछ साल में यह सिलसिला अपेक्षाकृत बढ़ा ही है। देश की आजादी की 70वीं सालगिरह मनाते वक्त हम इस बात का भी तो विचार करें कि हम किस बात की आजादी मनाएं? क्या भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से यह देश आजाद हो गया है? क्या यह देश अपराध मुक्त हो गया है? क्या इस देश के हर आदमी को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार हासिल हो गए हैं? क्या देश आर्थिक गुलामी के बंधनों से मुक्त हो गया है? क्या इस देश ने गरीबी और अशिक्षा पर विजय पा ली है? क्या इस देश से बेईमानी का निर्वासन हो गया है? आर्थिक और सामाजिक असमानता का दायरा क्या खत्म हो गया है। जाति और धर्म के आधार पर होने वाले झगड़े क्या खत्म हो गए हैं? इकबाल ने कहा था कि हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा। क्या इस तरह की भावना यहां के जन-जन को उद्वेलित करती है? और अगर नहीं तो क्यों? जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग अपनी सेवानिवृत्ति के दिन अपनी जाति और धर्म के लोगों के लिए असुरक्षा की बात कर माहौल को गर्म कर देते हैं।
देश के प्रख्यात विश्वविद्यालयों में, शिक्षण संस्थानों में आजादी के गलत भाष्य किए जाते हैं। नक्सलियों की आजादी की बात होती है। कश्मीर की आजादी की बात होती है। घाटी के पत्थरबाजों के मौलिक अधिकारों की बात होती है लेकिन सैनिकों के मानवाधिकार की कोई बात भी नहीं करता। इस बार की आजादी का दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि कश्मीर में अलगाववादी सक्रिय हैं और वहां के कुछ राजनीतिक दल भी उनके पक्ष में हमदर्दी भरा बयान दे रहे हैं। डोकलाम मुद्दे पर चीन और भारत के बीच जंग जैसे हालात बने हुए हैं। पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर चीनी हुक्मरानों की शिरकत और कश्मीर में घुसने की चीन की धमकी के मद्देनजर आजादी का यह महोत्सव भारत के लिए बेहद अहम हो जाता है।
गौरतलब है कि आजादी का जश्न मनाते इस देश को सत्तर साल हो रहे। हर साल हमने गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी मिटाने का संकल्प लिया था लेकिन यह सब कागजों में ही होता रहा। आम आदमी तक आजादी की किरण पहुंची ही नहीं। इस देश के महापुरुषों ने समाज के अंतिम आदमी तक विकास को ले जाने की बात कही थी। उसके समग्र विकास का सपना देखा था। मौजूदा सरकार उस दिशा में काम कर भी रही है लेकिन वर्षें की जमी गर्द को एक झटके में हटाना मुश्किल हो रहा है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आजादी के तीस साल बाद एक कविता लिखी थी। उसमें आजादी को अधूरी कहा गया था। विचारणीय तो यह है कि देश किस तरह की आजादी का जश्न मना रहा है। यह आधी आजादी का महोत्सव है या पूर्ण आजादी का। इस देश में कौन-कौन आजाद हैं? कितने आजाद हैं? किस हद तक आजाद हैं? यह आजादी सर्वथा निरापद है या इसमें खतरों का भी समावेश है? खतरे अगर हैं भी तो किस तरह के? इन खतरों को दूर करने की दिशा में अभी तक क्या कुछ किया गया है और क्या कुछ किया जाना शेष है? इस तरह के ढेर सारे सवाल हैं जो भारत की आजादी को कठघरे में खड़ा करते हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत जरूरतें क्या पूरी हो गई हैं? क्या इस देश के हर हाथ को काम मिल गया है? नैतिक और सांस्कृतिक अभ्युदय के धरातल पर भारत कहां खड़ा है? जिस देश से ज्ञान-विज्ञान की श्रृंखला शुरू हुई थी, जहां के शोध पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया करते थे, वही देश पाश्चात्य देशों के पीछे क्यों भाग रहा है? वह कोई भी सरकारी योजना विदेश को देखकर क्यों बनाता है? दूसरे देश की नीतियां भारत में भी सफल हो, ऐसा जरूरी तो नहीं। हमें यह भी सोचना होगा कि भारत में असहमति के स्वर क्या मंद पड़ गए हैं? ऐसा सहज और स्वाभाविक रूप से हुआ है या किसी दबाव के तहत। अगर ऐसा किसी दबाव में हो रहा है, लोग खुलकर अपनी बात नहीं कर पा रहे हैं तो यह किस तरह की आजादी है? हमें यह भी सोचना होगा कि इस देश के विपक्षी दल क्या विरोध के मूल स्वर से अलग हो गए हैं। विरोध का स्वरूप क्या एकांगी हो गया है, उसमें देशहित से ज्यादा,दलीय हितों को प्राथमिकता दी जा रही है।अगर ऐसा है तो इस नई परंपरा को आजादी कैसे कहा जा सकता है? इन बिंदुओं पर एकबारगी विचार तो होना ही चाहिए।
आजादी तो जन-जन का उच्छ्वास है, राष्ट्रीय उल्लास है। भारतीय संविधान जन-जन की आजादी का दस्तावेज है। कदाचित इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान को देश का सबसे बड़ा धर्मग्रंथ कहा था। इस बार केंद्र सरकार की योजना आजादी के जश्न का रंग और गहरा करने की है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से सभी राज्यों में आजादी की सालगिरह धूमधाम से मनाने, इसमें आजादी से जुड़े महापुरुषों को याद करने, देश के लिए सीमा पर मरने वाले सैनिकों की शहादत को याद करने, नया भारत बनाने का संकल्प लेने, स्कूलों ही नहीं, राज्य के मदरसों में भी राष्ट्रध्वज फहराए जाने और राष्ट्रगान की अनिवार्यता सुनिश्चित करने के निर्देश दिए गए हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह दिया है कि उनकी सरकार अपने राज्य में अपने तरह से आजादी का उत्सव मनाएगी। मोदी के न्यू इंडिया विजन के आधार पर नहीं। विरोध की दौड़ में पूरा विपक्षी दल शामिल है। आजादी से पहले वह मोदी सरकार को घेरने का हर संभव प्रयास कर रहा है। वह विरोध का एक भी अवसर चूकता नहीं है। अब खबर आ रही है कि आजादी के बाद यह पहला अवसर है कि पश्चिम बंगाल सरकार आजादी का जश्न मनाएगी ही नहीं। आखिर इसे किस तरह की राष्ट्रभक्ति के आईने में देखा जाएगा। उत्तर प्रदेश में कुछ उलेमा मदरसों को तिरंगा फहराने की सलाह तो दे रहे हैं लेकिन उन्हें राष्ट्रगान न गाने की सलाह भी दे रहे हैं? इस तरह के दुरावपूर्ण आचरण के बीच सबका साथ-सबका विकास की अवधारणा कैसे विकसित होगी?