..तो लद रहे चीन की दादागीरी के दिन

चीन की दादागीरी के दिन लद गए हैं। अभी तक वह पड़ोसी देशों को धमकाता फिरता था लेकिन अबकी बार उसका पाला भारत से पड़ गया है। भारत भी उसके सामने चट्टान की तरह खड़ा है। उसने चीन की वर्चस्ववादी, लोभ -मोह में सनी विस्तारकामी नीति को खुली चुनौती दे रखी है। चीन पीछे हटता है तो पड़ोसी देशों के बीच उसकी धाक प्रभावित होगी और अगर भारत से युद्ध में उलझता है तो इस बार उसे व्यापक नुकसान होगा और अगर कहीं चीन से नाराज देशों ने भारत का समर्थन किया तो उसकी रणनीति ध्वस्त हो जाएगी। उसे अपने अस्तित्व के लाले पड़ जाएंगे। इसीलिए युद्ध जैसे संघातक कदम उठाने की बजाय भारत को धमकाने की नीति पर कहीं अधिक अमल कर रहा है। सच तो यह है कि वह भारत को मनोवैज्ञानिक ढंग से कमजोर करना चाहता है लेकिन भारत भी इस बार टस से मस होने को तैयार नहीं है। चीन ने युद्धाभ्यास के बहाने एक बड़ी सेना और साजो-सामान भी सीमा पर तैयार कर लिया है। भारत को इस बावत भी ध्यान देना चाहिए। आकस्मिक युद्ध के हालात में भारतीय सैनिकों को नुकसान न पहुंचे, इसके लिए जरूरी है कि भारत भी सीमा पर सैन्य साजो सामान और अतिरिक्त सैनिकों की तैयारी करे। चीन को लेकर मुगालते में रहने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। डोकलाम मुद्दे पर चीन और भारत के बीच जारी तनाव की समाप्ति में ही दोनों देशों का कल्याण है। गौरतलब है कि इसे कम करने के लिए दोनों देशों के बीच 19 बार बातचीत हो चुकी है लेकिन नतीजे ढाक के तीन पात वाले ही रहे हैं।
चीन चाहता है कि भारत डोकलाम से भारतीय सैनिकों को वापस बुला ले जबकि भारत का तर्क है कि पहले चीन डोकलाम से अपनी सेनाएं हटाए, तभी इस मुद्दे पर बातचीत संभव है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल 26-27 जुलाई को चीन की यात्रा पर जा रहे हैं। वहां वे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका) के एनएसए की मीटिंग में भाग लेंगे। समझा जा रहा है कि इस दौरान भारत-चीन के बीच चल रहे सीमा विवाद पर भी चर्चा हो सकती है। चीन के अधिकारी तो यहां तक कह रहे हैं कि डोभाल की अपने चीनी समकक्ष यांग जीईची से कोई औपचारिक मुलाकात तय नहीं है। हालांकि उक्त दोनों अधिकारी अपने देश के सीमा मसले पर विशेष प्रतिनिधि भी हैं। फिर भी ऐसा संभव नहीं कि भारतीय सुरक्षा सलाहकार बीजिंग में हों और उनके चीनी समकक्ष उनसे बात न करें। हैम्बर्ग में नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच मुलाकात को भी चीनी मीडिया और वहां के अधिकारी नकार रहे थे लेकिन ना ना करते बात तुम्हीं से कर बैठे जैसे हालात स्वतः बन गए। यह अलग बात है कि सीमा विवाद का मुद्दा गौण रहा। उसी तरह दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकारों के बीच मुलाकात तो होनी ही है। बातचीत क्या होगी, इस बावत भी गौर किए जाने की जरूरत है।
वैसे भी चीन जहां सड़क बना रहा है, उसी इलाके में 20 किमी हिस्सा सिक्किम और पूर्वोत्तर राज्यों को भारत के बाकी हिस्से से जोड़ता है। यह ‘चिकेन नेक’ कहलाता है। चीन का इस इलाके में दखल बढ़ने पर भारत की कनेक्टिविटी प्रभावित होगी। भारत के कई इलाके चीन की तोपों की रेंज में आ जाएंगे। माना तो यह भी जा रहा है कि अगर चीन ने सड़क निर्माण कार्य का विस्तार किया तो वह न सिर्फ भूटान के इलाके में घुस जाएगा, बल्कि वह भारत के सिलीगुड़ी काॅरिडोर के सामने भी खतरा पैदा कर सकता है। 200 किमी लंबा और 60 किमी चैड़ा सिलीगुड़ी कॉरिडोर ही पूर्वोत्तर राज्यों को भारत के बाकी राज्यों से जोड़ता है। इसलिए भारत कभी नहीं चाहेगा कि वह चीन के प्रभाव क्षेत्र में आए।
चीन मुगालते में है कि भारत से युद्ध होने पर वही जीतेगा। चीन का एक सरकारी अखबार तो कुछ ज्यादा ही उछल-कूद मचा रहा है। उसके संपादक अपने आप को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से कम समझते ही नहीं। इस चीनी अखबार को भारत के खिलाफ जहर उगलने की आजादी निश्चित रूप से चीन ने ही दी होगी, लेकिन उसे यह भी समझना होगा कि गरजने वाले मेघ बरसा नहीं करते। ज्यादा बोलना बहादुरी नहीं होती और युद्ध ताकत से नहीं दिमाग से जीते जाते हैं। चीन को अगर यह लगता है कि उसने डोकलाम में युद्धाभ्यास के बहाने काफी साजो-सामान एकत्र कर लिया है। उसकी युद्ध लड़ने भर सेना सीमा पर पहुंच चुकी है और इस वजह से वह भारतीय सैनिकों को धमका सकता है, अधिक भारतीय भूभाग पर कब्जा जमा सकता है तो यह उसकी बेवकूफी है।
रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने चीन को चेताया था कि वह भारत को 1962 का भारत समझने की भूल न करे। यह अलग बात है कि चीन ने भी उनके इस बयान का प्रबल प्रतिवाद किया था। उसने कहा था कि चीन भी अब 1962 वाला चीन नहीं रहा। उसने बड़ी तरक्की कर ली। वह भारत के मुकाबले आज भी मजबूत है। हाल ही में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सांसदों को आश्वस्त किया है कि भारत को चीन से डरने की कोई जरूरत नहीं है। डोकलाम मुद्दे पर कानून भारत के साथ है और भूटान, जापान, अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देश भारत के साथ हैं। उनकी यह राय मुलायम सिंह यादव समेत कई वरिष्ठ सांसदों की चिंता के मद्देनजर आई थी लेकिन सुषमा स्वराज का यह बयान चीन को रास नहीं आया है। वहां के एक सरकारी अखबार ने तो यहां तक लिख दिया है कि अगर भारत बिना शर्त अपनी सेनाएं नहीं हटाता है तो चीन बिना किसी कूटनीतिक वार्ता के युद्ध के जरिए इस विवाद का खात्मा कर देगा।
चीन को पता है कि इस समय भारत में मानसून सत्र चल रहा है। विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार को चैतरफा घेरे और संसद में हंगामा हो, यही उसका अभीष्ठ भी है। चीन के अखबार की इस धमकी की निंदा की जानी चाहिए कि युद्ध की स्थिति में अमेरिका और जापान चीन को बचाने नहीं आएंगे। चीन को अमेरिका के कुछ सांसदों की राय की गंभीरता को भी समझ लेना चाहिए जिसमें कहा गया है कि चीन एक झगड़ालू देश है और वह अपने पड़ोसी देशों की संप्रभुता और सीमा में अनावश्यक दखल दे रहा है। सुषमा स्वराज की प्रतिक्रिया भी कमोवेश इसी आलोक में है। चीन लंबे समय से भारत को धमका रहा है। अगर भारत उससे डर रहा होता तो कब का डोकलाम से भारतीय सेना पीछे हट चुकी होती, लेकिन इस बार भारत ने भी चीन से आर-पार की जंग का मन बना लिया है। यह सच है कि गोहार से मार नहीं होती। युद्ध में अपना ही बल काम आता है, लेकिन भरोसे की भी अपनी ताकत होती है। चीन को यह बात परेशान कर रही है क्योंकि दुनिया के अधिकांश देश उसकी वर्चस्ववादी नीतियों के विरुद्ध हैं।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की चीन से कही गई दो टूक बात को चीन की धमकी का जवाब ही कहा जा सकता है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया है कि अगर सिक्किम के ट्राई-जंक्शन में चीन यथास्थिति में जरा भी बदलता है तोे इसे भारत की सुरक्षा के लिए चुनौती माना जाएगा। ट्राईजंक्शन पर भारत, चीन और भूटान की सेनाएं फिलहाल अपनी-अपनी सीमा में हैं, लेकिन चीन की सेना भारत के काफी करीब आ गई है। यह भी सच है कि सुषमा स्वराज के कड़े रुख के बाद चीन के स्वर बदल गए हैं। कहां तो वह युद्ध की धमकी दे रहा था और कहां तो अब यह कहने लगा है कि भारत से विवाद सुलझाने के लिए कूटनीतिक रास्ते खुले हुए हैं। गौरतलब है कि सिक्किम सेक्टर में 16 जून से भारत-चीन सीमा पर डोकलाम इलाके में विवाद चल रहा है। भारत सरकार को जैसे ही इस बात का ज्ञान हुआ कि चीन वन बेल्ट वन रोड के तहत सीमा पर चाइना-पाक इकोनाॅमिक काॅरिडोर बना रहा है, उसने इसका प्रबल विरोध किया। चीन ने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारत इस कदर प्रतिवाद भी कर सकता है।
जब वर्ष 2012 में इस बात का निर्णय हो चुका है कि डोकलाम में स्थित ट्राईजंक्शन में कोई भी फेरबदल भारत, चीन और भूटान के बीच चर्चा के बाद ही होगा तो चीन ने मनमाने तरीके से वहां निर्माण कार्य कैसे शुरू कर दिया। इस बात को पूरी दुनिया जानती है कि चीन अपनी ताकत का नाजायज फायदा उठा रहा है। उसने भारत की कई हजार वर्गमील भूमि पहले ही कब्जा रखी है और वह उसे छोड़ नहीं रहा है। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली रीति-नीति पर अमल करते हुए वह भारत पर ही चीनी की सीमा में अतिक्रमण का आरोप लगा रहा है। इसमें शक नहीं कि चीन भारत से लगती सीमा पर कभी विकास के नाम पर तो कभी किसी अन्य काम के नाम पर निर्माण कर रहा है। इस बार तो उसने लक्ष्मण रेखा ही लांघ दी है। वह सीधा ट्राईजंक्शन प्वाइंट पर आ गया है। अगर भारत उसके सामने अवरोध बनकर खड़ा नहीं होता तो यह भारत की सुरक्षा व्यवस्था के लिए खतरनाक साबित होता। सुषमा स्वराज ने भारतीय सैनिकों को वापस बुलाने की चीन की मांग ठुकरा दी है। चीन की बात मानना वैसे भी भारत के लिए संभव नहीं है। दुनिया के देश भी इस बात को समझ रहे हैं कि भारत का रास्ता गलत नहीं है। वह तो चीन ही है जो कि बिला वजह खुरपेंच कर रहा है। भारत को चीन से वार्ता भी करनी चाहिए और उससे निपटने की पूरी तैयारी भी रखनी चाहिए। शत्रु की चालों को समझने में ही भलाई है।
लेखक : सियाराम पांडेय