इंदौर ही क्यों, हम क्यों नहीं

इंदौर ही क्यों, हम क्यों नहीं
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आखिरकार शहर के आवारा जानवरों ने एक बच्ची की जान ले ही ली। समाचार पत्रों व सोशल मीडिया के माध्यम से शहर के गली कूचों व मुख्य सड़कों पर अपना अधिकार जमाए इन आवारा जानवरों के बारे में खूब लिखा गया। नगर निगम की कमियों के साथ साथ शहर के नागिरकों के अधिकार भी बताए गए। लेकिन न तो निगम प्रशासन के कानों में ही जूं रेगी और न ही हममें कुछ सुधार हुआ। शहर के माथे पर यह कलंक तब लगा जब स्वच्छता सर्वेक्षण में हम 27 रैंक हासिल कर एक दूसरे को बधाईयां दे रहे थे। ऐसे में बच्ची की मौत की खबर ने सबको झकझोर दिया और यह सोचने के लिए हम सबको मजबूर कर दिया कि क्या वाकई में हम स्वच्छता के मामले में 27 वें पायदान पर हैं? क्या वास्तव में यहां के नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो चुके हैं? क्या वास्तव में हम स्मार्ट सिटी की ओर अग्रसर हैं। ऐसे कई सवाल हैं जो बच्ची के मौत के बाद एकाएक उठने लगे हैं और उठना भी चाहिए। एक पल के लिए मान लिया जाए कि यदि आवारा जानवर ने बच्ची को उठाकर नहीं फेंका होता तो उसकी मौत भी नहीं होती तब शायद हम स्वच्छता में मिले रैंक को लेकर अपनी पीठ थपथपा रहे होते, लेकिन मासूम की मौत के बाद तो शायद यह जश्न मनाने का हक न तो निगम प्रशासन को है और न ही हम शहरवासियों को?
स्वच्छता अभियान के लिए हुए सर्वेक्षण में यदि ग्वालियर शहर 27 वें स्थान पर है तो वास्तव में इसके लिए नगर निगम बधाई की पात्र है। कुछ कमियां जरूर है जिसके कारण हम इंदौर की तरह पहला नंबर हासिल नहीं कर सके। इन कमियों को हमें एक दूसरे पर लांछन लगाने के बजाय तलाशना होगा।

सोचना होगा कि आखिर इंदौर ही क्यों, ग्वालियर क्यों नहीं।

इंदौर यदि आज देशभर में पहले नंबर पर है तो इसके पीछे निगम की भूमिका तो है ही, साथ ही वहां के निवासियों की इसमें एक बड़ी भूमिका है जो शहर को अपना समझकर अपने कर्तव्यों का हर पल पालन करना अपना कर्तव्य समझते हैं। इंदौर के लोग वास्तव में बधाई के पात्र हैं जो निगम प्रशासन के हर फैसले के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए खड़े रहते हैं। घर का कचरा बाहर फेंकने के बजाय या तो निगम की गाड़ियो में डालते हैं या घर में रखे डस्टबीन में रखकर सफाई कर्मी को दे देते हैं। यहां तक की घर के बाहर बनी नालियों को भी यहां के लोग कई बार साफ करते हुए दिखाई दे जाते हैं। वे इस बात का इंतजार नहीं करते हैं कि सफाई वाला आएगा और वो ही सफाई करेगा। वह यह नहीं सोचता है कि यह काम तो निगम का है, हम क्यों करे? इंदौर के नागरिकों की इसी प्रवृत्ति के कारण ही इंदौर का आज पूरे देश में डंका बज रहा है। इंदौर के लोगों की तुलना यदि अपने से करें तो शायद हम अपने को बहुत पीछे पाएंगे। हम अपने कर्तव्यों का पालन करने के बजाए निंदा करने व कमियां निकालने में लग जाते हैं। बच्ची की मौत के बाद भी शायद यही हो रहा है। हर कोई निगम की कमियां उजागर कर इस पर संदेह व्यक्त कर रहा है कि हम 27 वें स्थान पर कैसे आ गए? हमें खुद में सुधार करना होगा।

सोचे क्या अपने घर का कचरा हम खुद निगम की आने वाली गाड़ियों में डालते हैं या फिर नियत स्थान पर फैंकने जाते हैं। क्या हम घर के बाहर की नालियों को खुद साफ करने की पहल करते हैं। क्या हम दूध न देने वाली गायों को घर के अंदर पालते हैं? शायद नहीं। गाय जब तक दूध देती है तब तक तो वह हमारे घर की शोभा बनी रहती है लेकिन दूध बंद होते ही हम उसे घर के बाहर छोड़ आते हैं। उसके बछड़े को हम बाहर चरने के लिए छोड़ आते हैं और यही आवारा सांड बनकर हमें सताते रहते हैं और हम दोषारोपण निगम अमले पर लगाते रहते हैं। यह काम निगम का मानकर उसकी आलोचना करने में अपना समय जाया कर देते है। बस यही चूक बच्ची की मौत का कारण बना है। निगम प्रशासन के साथ साथ यदि हम अपने कर्तव्यों को भी समझे तो शायद आज हम भी इंदौर के स्थान पर पहले स्थान पर होते।


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