राजनीति में भाषायी चरित्र का उभरता सवाल
-प्रभुनाथ शुक्ल
जब हम स्कूल के दिनों में छोटी कक्षा में पढ़ते थे, उस दौरान अंग्रेजी की किताब में एक कहानी थी- स्काई ईज फालिंग यानी आकाश गिर रहा है । इस अंग्रेजी कहानी के किरदार में कॉकी, लॉकी और डॉकी-लॉकी मुर्गियां थीं। उन्होंने आकाश गिरने की अफवाह अपने पूरे समाज में फैला दी थी। चारों तरफ़ कोहराम मच गया कि बस आसमान गिरने वाला है। यह बात तभी से हमारे दिमाग में घर कर गई है कि आसमान आखिर कब गिरेगा, लेकिन अभी तक वह गिरा नहीं। ठीक यहीं बात राजनीति पर लागू होती है। यहां आसमान गिराने का काम हर समय होता है, यह बात दीगर है कि अभी तक आसमान गिरा नहीं। आप साफ समझ सकते हैं। राजनीति का मतलब सिर्फ हंगामा खड़ा करना है। अब यहाँ चरित्र की बात बेमानी है। जब राज्यों या केंद्र का चुनाव हो तो यह और तीखी हो जाती है । सच तो यह है कि राजनीति से नीति ख़त्म हो चुकी है । स्वस्थ राजनीति की बात नहीं रही। दलीय राजनीति का अपना कोई वसूल नहीं दिखता। उसका मुख्य मकसद सिर्फ सत्ता के आसपास केन्द्रित रहता है । वर्ष 2014 में हुए लोकसभा और यूपी के आम चुनाव के बाद से भाषायी मर्यादा की आबरू लुट चुकी है । गुजरात चुनाव में इसका गला घोंट दिया गया। नीच , औरंगजेब , खिलजी , मौत का सौदागर , जनेऊ , जाति , धरम और जाने क्या - क्या । अहम सवाल है कि इस तरह के मसले उठा कर जनभावनाओं को भड़काने और सियासी लाभ लेने की कोशिश क्यों की जाती है । क्योंकि सत्ता पक्ष के पास जहाँ अपनी विफलताओं का जवाब नहीं रहता , वहीं विपक्ष अपने बीते हुए कार्यकाल की गलतियां छुपाने के लिए रास्ता ढूँढता दिखता है । इस लिए आसमान गिराने की अफवाह फैलाई जाती है। हमें इससे बचना होगा। चुनाव सरकारों के कामकाज का परीक्षण होता है । लेकिन जान बूझकर मसलों से जनता का ध्यान बाँटने की कोशिश की जाती है ।
राजनीति के सर्वोच्च शिखर और सत्ता पर विराजमान नेता अपनी गरिमा गिराते जा रहे हैं। अपने चाल और चरित्र से वे परास्त दिखते हैं। राजनीति के मूल्यों में जहाँ तेजी से गिरावट आ रही है, वहीं इसका स्तर भी गिरने लगा है। सवाल राजनीति गिर रही है या राजनेता, कहना मुश्किल है । भारतीय राजनीति के लिए यह चिंतन का विषय है ।
आम आदमी की दिक्कत जहाँ की तहां है । मंदिरों, गुरुद्वारा , चर्च और मठ में जाकर देश का भविष्य नहीं बदला जा सकता है । एक व्यक्ति सी- प्लेन में बैठ कर दाना मांझी की नीयति को नहीं बदल सकता है । 70 साल से गरीबी मिटाने का उपक्रम हो रहा लेकिन गरीबी नहीँ मिटी लेकिन गरीब मिट रहे । देश में आज़ भी लोग भूख से मर रहे हैं । अस्पताल पहुँचने के लिए एम्बुलेंस उपलब्ध नहीँ हैं । महिलाओं का प्रसव अस्पताल के बाहर हो जाता है । दिमागी बुखार से हजारों मासूम मरते हैं । अभी तक हम एड्स , तपेदिक , कैंसर , डायबिटीज और दूसरी बीमारियों से लड़ रहे हैं । लोगों को पीने योग्य साफ पानी नहीँ दे पा रहे। लाखों बच्चे पढ़ाई के बीच में स्कूल छोड़ देते हैं । महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा , असंतुलित विकास दर , बेगारी , आर्थिक असमानता जैसे मसले आम हैं । लेकिन राजनीति का ध्यान उधर नहीँ है। देश के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में रास्ते तक उपलब्ध नहीँ हैं । कृषि घाटे का सौदा साबित हो रही । कर्ज तले किसान दबा है, लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं । लेकिन इस तरह के सवाल चुनावी मसले क्यों नहीँ बनते ? हिंदुत्व और इस्लाम राजनीति का प्रिय विषय क्यों हैं । देश जुमले से नहीँ चलता है । सरकार बदलने से कुछ नहीँ होता , जब तक व्यवस्था न बदली जाय।
गुजरात चुनाव तो इस बार भाषाई राजनीति को लेकर सभी सीमाएं लांघ गया। मोदी की जय हो या राहुल की, फर्क क्या पड़ता है । लेकिन सियासी पतन का जो सवाल कठघरे में है उसका जवाब कौन देगा ?
ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ काँग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर की टिप्पणी का है । यह स्वामी भक्ति से अधिक कुछ नहीँ दिखती। राहुल और सोनिया गाँधी को ख़ुश करने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल मणि ने किया, वह पूरी तरह अलोकतांत्रिक है । देश के पीएम को नीच शब्द से सम्बोधित किया जाना बेहद शर्मनाक है । नतीजा यहाँ तक पहुँचा कि राहुल गांधी ने अय्यर को पीएम मोदी से माफी मांगने तक को कहा । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह बयान भी सवाल खड़े करता है जिसमें उन्होंने राहुल गांधी पर अब तक का सबसे बड़ा हमला बोलते हुए उनकी तुलना औरंगजेब से कर डाली। कांग्रेस को औरंगजेब राज मुबारक भी कहा । गुजरात चुनाव में पाकिस्तान भी घुस आया। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह और अहमद पटेल पर भी कथित पाकिस्तानी नेताओं के कथित बात को लेकर हमला बोला गया।
कलुषित बोल के मामले में संभवत: 2014 का लोकसभा और यूपी विधानसभा का चुनाव मिसाल है। आपको याद होगा जब बिहार से सांसद और केंद्रीय सूक्ष्म, लघु राज्यमंत्री गिरिराज सिंह की ओर से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और तब महासचिव राहुल गांधी पर किस तरह रंगभेदी और नस्लीय टिप्पणी की गई थी । सोनिया गांधी की गोरी चमड़ी का उपहास उड़ाया गया था। लोकसभा के चुनावों के दौरान भी मोदी को न पचाने वालों को पाकिस्तान जाने की नसीहत दी थी। यहीं नहीँ, एक नेता ने तो गांधी जी को अंग्रेजों का एजेंट तक बता दिया था ।
भाषाई मर्यादा और उसकी पवित्रता हमें शालीन बनाती है। भाषा हमारी सोच को सामने लाती है। अमर्यादित बोल वचनों के कारण, जहाँ हमारी जनछवि पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वहीँ हम इस तरह के चुटीले बयानों से तत्कालीन प्रशंसा पा सकते हैं। लेकिन इसका असर खुद के जीवन पर बुरा पड़ता है। अपशिष्ट बयानी हमारी नीति, नीयत और नैतिकता पर भी सवाल उठाती है। कहा भी गया है कि बोलने से पहले सौ बार विचार कर बोलो। लिखते वक्त तो इसका कड़ाई से अनुपालन होना ही चाहिए। क्यों कि लिखे हुए शब्द पत्थर की लकीर हुआ करते हैं। वहीं कमान से निकला तीर और जुबान से निकली बात वापस नहीं आती । लेकिन अपनी राजनीतिक भड़ास निकालने के लिए यह दलों और राजनेताओं की नीयत बन गई है।
भारतीय राजनीति के लिए यह चिंता और चिंतन का सवाल है। राजनीति के मूल्यों में वैसे भी गिरावट आ रही है। अगर हमारे राजनेताओं की सोच यही रहेगी तो देश कहां जाएगा। यहाँ सिर्फ भाजपा और काँग्रेस का सवाल नहीँ है । पूरी राजनीति और उनके नेताओं के फिसलती जुबान का सवाल है । राजनीतिक मूल्यों का चरित्र संरक्षण आज का बड़ा सवाल है। इस पर विचार करना होगा। हमें भाषा के गिरते स्तर पर लगाम लगानी होगी। संसद को इस पर विचार करना होगा। यह चिंता और चिंतन की बात है ।