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राहुल से अपेक्षाएं और उम्मीद है किसे?

राहुल से अपेक्षाएं और उम्मीद है किसे?
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राहुल गांधी 2004 से सक्रिय राजनीति में हैं और सांसद हैं। इस नाते उनकी सोच और कार्यप्रणाली से कांग्रेस के साथ देश भी परिचित है। अध्यक्ष बनने के पहले वे जनवरी 2013 से पार्टी के उपाध्यक्ष हैं। उनके पहले कांग्रेस में केवल दो बार ही उपाध्यक्ष का पद सृजित किया गया था। यानी सोनिया गांधी के बाद उनको पार्टी में पिछले साढ़े चार सालों से ज्यादा समय से दूसरा स्थान प्राप्त है। सच कहा जाए तो सोनिया गांधी के अस्वस्थ होने के बाद से वे लगभग कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका में हैं। जब वे इस भूमिका में नहीं थे तब भी उनकी बात का कांग्रेस पार्टी के अंदर कितना महत्व था यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अब तो केवल कार्यकारी भूमिका से उनको मुख्य भूमिका में लाया जा रहा है। इसके पहले वे पार्टी के महासचिव रहे हैं। इस नाते लंबे समय तक पहले वे युवा कांग्रेस एवं राष्ट्रीय छात्र संगठन की जिम्मेवारी अपने सिर पर उठा चुके हैं। कोई व्यक्ति अचानक बदल जाएगा ऐसा प्राय: होता नहीं। इसलिए अब तक पार्टी एवं राजनीति के संबंध में उनका जो व्यवहार रहा है उनकी भावी भूमिका का मूल्यांकन उसी आधार पर होगा। चुनावों को जिस तरह वे लड़ते या लड़वाते रहे हैं वो भी हमारे सामने है। इसलिए उनके नेतृत्व में चुनावी भविष्य का मूल्यांकन भी उसी आधार पर किया जाएगा। यह न भूलिए कि 2014 लोकसभा चुनाव के काफी पूर्व 2013 में ही सोनिया गांधी ने चुनावों की नीति और रणनीति बनाने के लिए कई समितियां गठित की थीं जिनके शीर्ष पर राहुल गांधी ही थे। पार्टी के सभी प्रमुख नेता एवं तत्कालीन संप्रग सरकार के प्रमुख कांग्रेसी मंत्री उनको ही रिपोर्ट कर रहे थे।
इस तरह 2014 में कांग्रेस की सबसे बुरी पराजय मूलत: राहुल गांधी के नेतृत्व में ही हुई। सब जानते हैं कि उम्मीदवार चयन से लेकर चुनावी रणनीति बनाने में उनकी भूमिका सर्वोपरि थी। सोनिया गांधी भी थीं लेकिन उन्होंने भविष्य का ध्यान रखते हुए राहुल को मुख्य भूमिका में रख दिया था। ए के एंटनी की समिति जहां-जहां भी गई, हमने समाचारों में देखा कि उनमें से अनेक जगह में राहुल गांधी की सलाहकारी मंडली के खिलाफ पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं ने काफी बोला। इसे देखते हुए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि कांग्रेस के प्रमुख नेता एवं राहुल गांधी की अब तक की राजनीति को समझने वाले कार्यकर्ता उनसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएं और उम्मीद कर रहे होंगे। राहुल गांधी जब युवा इकाई का दायित्व संभालते थे उन्होंने नए चेहरों को पार्टी में मुख्य भूमिका में लाने, चुनावों के लिए उम्मीदवार तय करते समय उनको प्राथमिकता देने की खूब बात की। इस पर उनको तालियां भी मिलतीं थीं, लेकिन धरातल पर हुआ कुछ नहीं। इससे कांगेस में सक्रिय या निष्क्रिय युवा वर्ग उनसे बहुत अपेक्षा नहीं रखता है न ज्यादा उम्मीद ही करता है। हालांकि कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि वे अब मुख्य निर्णायक होंगे तो उनके पास स्वयं ऐसा करने का अधिकार और अवसर होगा। तो देखना होगा इस संदर्भ में वे क्या करते हैं। लेकिन वे कांग्रेस के चेहरे में आमूल बदलाव ला देंगे ऐसी अपेक्षा शायद ही किसी की हो।

वास्तव में इस समय कांग्रेस में बहुस्तरीय क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है। न केवल उसको चेहरा बदलने की जरुरत है, बल्कि नीतिगत स्पष्टता तथा रणनीति में भी व्यापक बदलाव समय की मांग है। कांग्रेस लंबे समय से नीति, नेतृत्व एवं रणनीति तीनों संकटों से गुजर रही है। देश की एक प्रमुख पार्टी होते हुए भी उसकी नीति क्या है, यानी विचारधारा क्या है यह स्पष्ट नहीं है। तो क्या राहुल गांधी कांग्रेस को एक निश्चित विचारधारा तथा उससे निकलने वाली सुस्पष्ट नीतियों की पहचान देने में सफल होंगे जो कि समय की मांग है? इसका उत्तर हां में देना कठिन है। आज तक राहुल गांधी ने इस पर कोई बात ही नहीं की है। सच तो यह है कि कांग्रेस आज यह मानने को ही तैयार नहीं है कि उसके सामने विचारधारा की अस्पष्टता का कोई संकट है। इसके लिए राजनीति की गहरी समझ और लंबा चिंतन चाहिए। राहुल गांधी इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। राहुल गांधी का एक भी भाषण और वक्तव्य ऐसा नहीं है जो इस ओर इशारा कर सके। तो जब आप विचारधारा के स्तर पर ही पार्टी को फिर से पुनर्गठित करने की सोच नहीं रखते फिर कांग्रेस का दूरगामी भविष्य सुधरेगा तो कैसे? यह एक बड़ा सवाल है जिसका उत्तर तलाशने में हमारे हाथ केवल शून्य सामने आता है। शेष चीजें विचारधारा के बाद ही आतीं हैं। नेतृत्व भी विचारधारा से ही पैदा होता है। उदाहरण के लिए जिसकी आस्था हिन्दुत्व में होगी वह चाहे-अनचाहे भाजपा का साथ देगा भले भाजपा हिन्दुत्व की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरे या नहीं। लेकिन उसकी पहचान उसी रुप में है। कांग्रेस तो अभी इसी में झूल रही है कि उसकी जो मुस्लिम परस्त होने की छवि बनी उससे कैसे बाहर निकला जाए? इसमें राहुल गांधी मंदिरों एवं हिन्दू उत्सवों में भाग लेकर उसे तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

लेकिन इसमें सफलता मिलना जरा कठिन है। राहुल गांधी और कांग्रेस की इस मामले में सीमाएं हैं। वह हिन्दुत्व की पार्टी नहीं हो सकती। सेक्यूलरवाद की विकृत समझ और व्याख्या उसे त्रिशंकु स्थिति में बनाए रखेगा। इसमें उसकी क्या पहचान बनेगी बताने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा प्रश्न नेतृत्व का है। कांग्रेस के कुछ नेतागण राहुल की ताजपोशी के साथ अगर यह मान रहे हैं कि नेतृत्व का प्रश्न इससे सुलझ गया है तो इस व्यावहारिक धरातल पर भी स्वीकार करना कठिन है। इस समय कांग्रेस को ऐसा नेतृत्व चाहिए जो उसे वैचारिक रुप से आलोड़ित कर सके, कार्यकर्ताओं-नेताओं में घर कर चुके हताशा को धक्का देकर ध्वस्त कर सके, अपने भाषणों-वक्तव्यों तथा गतिविधियों से उनमें उत्साह पैदा करे, ऐसे लोगों की टीम बनाए जिससे देश को भी लगे कि हां, अब कुछ कर गुजरने वाले लोग साथ आ गए हैं तथा सामने नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की वाक्शैली का उसी के अंदाज में प्रत्युत्तर दे सके। यानी पार्टी में वैचारिक तथा सांगठनिक स्तर पर आमूलाग्र बदलाव की आवश्यकता है। प्रश्न है कि क्या राहुल गांधी इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं? इसका उत्तर देना किसी के लिए भी कठिन नहीं है।

अगर कोई अकेले नेतृत्व की वर्तमान आवश्यकता पूरी नहीं करता हो तो फिर सामूहिक नेतृत्व विकसित करना चाहिए। कांग्रेस की समस्या है कि उसकी निर्णायक मंडली सामूहिक नेतृत्व की कल्पना तक नहीं कर सकती। उसे एक वंश से ही नेतृत्व तलाशना है। वह चाहे योग्य हो या नहीं। सोनिया गांधी को 1998 में जब अध्यक्ष बनाया गया तो उनकी एक मात्र योग्यता यही थी कि वो पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की विधवा थीं। राजनीति में उनका कोई योगदान नहीं था। उसके बाद कांग्रेस की नजर राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी पर थी। प्रियंका को अवसर नहीं दिया जा रहा है। यह अवसर राहुल को मिल रहा है। इसके बाद शायद प्रियंका की संतानों को नेतृत्व का दायित्व मिले। कांग्रेस को लगता है कि उनकी पार्टी एकजुट तभी रह सकेगी जब नेहरु इंदिरा परिवार का कोई व्यक्ति उनका नेतृत्व करे। उसमें योग्यता-अयोग्यता का प्रश्न उठता ही नहीं है। यह कुंद मनोविज्ञान कांग्रेस के वास्तविक प्रखर पार्टी में परिणत होने की बाधा है, लेकिन इसको मिटाना आसान नहीं है। यह तभी होगा जब इस वंश के लोग पूरी तरह विफल हो जाएं, पार्टी चुनावी राजनीति में रसातल पर लगातार पहुंचती रहे एवं इसके उभरने की संभावना मर जाए। वैसी स्थिति में पार्टी में जगह-जगह टूट हो सकती है और अलग-अलग पार्टियां खड़ी हो सकतीं हैं जिनको बाद में एक साथ लाने की कोशिश भी हो सकती है। तत्काल ऐसी स्थिति नहीं दिखती इसलिए राहुल का कुछ समय निष्कंटक है। लेकिन अगर उनकी चुनावी रणनीति लगातार विफल रहती है तो फिर मरता क्या न करता की तर्ज पर पार्टी में विद्रोह की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

हालांकि राहुल के साथ एक प्रबल पक्ष यह है कि उन्हें लगभग शून्य से आरंभ करना है। इसमें यदि उनने चुनावी राजनीति मेंं थोड़ा भी बेहतर कर दिया तो इसकी सफलता का सेहरा उनके सिर जाएगा। जैसे 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 22 सीटें मिल गईं और इसका सेहरा राहुल गांधी के सिर बांधा गया। भाजपा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में कुछ गलतियां होती हैंं तो इसका लाभ राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को ही मिलेगा। ऐसा कुछ होता है तब भी आप यह नहीं कह सकते कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी पुरानी स्थिति की पुनर्प्राप्ति कर ली है तथा एक स्वस्थ और संतुलित पार्टी के रुप में फिर से इस तरह खड़ी हो रही है जिसका लंबा भविष्य है।

Updated : 23 Oct 2017 12:00 AM GMT
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