पाकिस्तानी सामंतों की राजनीतिक जरूरत है कश्मीर मुद्दा

अश्विनी भटनागर
पाकिस्तान में केवल अठारह हजार लोग ऐसे हैं जो सुपर रिच यानी अति रईस की श्रेणी में आते हैं। ये पाकिस्तान की जनसंख्या का मात्र 0.001 प्रतिशत हिस्सा हैं। इन अठारह हजार लोगों की कुल सालाना आय 1.31 अरब अमेरिकी डॉलर है। सुपर रिच के नीचे आते है रिच यानी रईस। पाकिस्तान में इन रईसों की संख्या लगभग चालीस हजार आंकी गई है। इन चालीस हजार लोगों की सालाना आय एक सौ अस्सी लाख गरीब पाकिस्तानियों की सालाना आय के बराबर है। विश्व बैंक के एक सर्वेक्षण के अनुसार पाकिस्तान का सबसे गरीब दस प्रतिशत तबका राष्ट्रीय आय का केवल चार प्रतिशत पाता है, जबकि बयालीस प्रतिशत राष्ट्रीय आय ऊपर की बीस प्रतिशत जनसंख्या के हिस्से आती है। इसके साथ-साथ इस देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है- पिछले दस सालों में ही चार करोड़ बढ़ी है। पाकिस्तान अब विश्व में छठा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश हो गया है, जिसमें नब्बे प्रतिशत लोग गरीब हैं। इसीलिए बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में वह दुनिया में सबसे नीचे के पायदान से दूसरे नंबर पर है।
पाकिस्तान के मौजूदा हालात को समझने के लिए उसके आर्थिक और समाजिक ढांचे को समझना जरूरी है। यहीं से शुरू होती है वह मानसिकता, जो पाकिस्तान के हुक्मरानों को भारत के प्रति शत्रुता पनपाने के लिए प्रेरित करती है। वास्तव में देखा जाए तो व्यक्तिगत स्तर पर एक आम पाकिस्तानी, चाहे वह नेता हो, फौजी हो, व्यवसायी हो या फिर सड़क पर रहने वाला गरीब हो, हिंदुस्तान से कोई बैर नहीं रखता। वह तो चाहेगा ही कि दोनों देश मिलजुल कर रहें, क्योंकि आम पाकिस्तानी की इसी में बेहतरी है। पर ऐसा होता नहीं है। होने नहीं दिया जाता। मात्र अठारह हजार लोग ऐसा होने नहीं देते। यह उनके निजी स्वार्थ के खिलाफ है। उनकी नवाबी और जमींदारी के खिलाफ है। इस स्वार्थ में फौज और पाकिस्तान के बड़े नेता पूरी तरह शामिल हैं। दोनों मिल कर पाकिस्तान में ऐसा माहौल बनाते हैं, जिसमें देश और धर्म पर खतरा हमेशा मडराता दिखता है। लोकतंत्र पनप नहीं पाता और रियासतें कायम रहती हैं। वास्तव में पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी, फौज और राजनीति केवल लगान वसूली के सिद्धांत पर टिकी हुई है।
प्रभावशाली परिवारों ने मिलीभगत से संसाधनों पर कब्जा जमा रखा है और उसके उपयोग के लिए वे लोगों से लगान वसूलते हैं। लगान वसूली इस महाद्वीप की पुरानी रिवायत है- अंगरेजों की ऐतिहासिक देन- पर पिछले सत्तर साल में यह पाकिस्तान में इस कदर फली-फूली है कि वह वहां की स्टेट पॉलिसी हो गई है। पाकिस्तान का कोई भी प्रांत देख लीजिए, आपको दर्जनों ऐसे परिवार मिल जाएंगे, जिनकी प्रभुसत्ता सैकड़ों मील के दायरे में फैली हुई है। हर संसाधन इसी परिवार का है और जनता उसके उपयोग के लिए बेगार से लेकर गुलामी तक सहती है। पाकिस्तान का राष्ट्रीय उद्देश्य प्रभावशाली परिवारों को सुरक्षित रखना है। इसीलिए देश की अर्थनीति का अभिप्राय मिलजुल कर संसाधनों का आपसी बंटवारा है। गरीब की बेहतरी उसके फोकस में है ही नहीं।
राजकाज से भी आम आदमी को दूर ही रखा जाता है। उसकी सहभागिता से गद्दीनशीन कुनबों का कोई लेना-देना नहीं है। अक्सर कहा जाता है कि जब भी लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में आती है, तो पाकिस्तानी फौज उसको पलट देती है। फौज को ही पाकिस्तानी जम्हूरियत का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है। पर यह सच नहीं है। पाकिस्तानी फौज वही करती है, जो प्रभावशाली परिवार उससे करवाते हैं। दूसरे शब्दों में, पाकिस्तान का अभिजात वर्ग नहीं चाहता कि लोकतांत्रिक मूल्य और प्रक्रियाएं देश में जड़ पकड़ें और उनकी लगान वसूली पर आंच आए। वे कागज पर लिखे गए कानून नहीं स्वीकार कर सकते, जो उनके पुश्तैनी प्रभुत्व को चुनौती दे। सामंतशाही इस वर्ग का जीने का तरीका है और फौज हस्तक्षेप करके इस सोच और जीवन शैली को कायम रखती है। वास्तव में पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी ही अपने और देशवासियों के लिए सबसे बड़ी खलनायक है। उसने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए लगातार फौज का इस्तेमाल किया है और फिर संबंध गाढ़ा करने के लिए फौज को लगान वसूली में हिस्सेदारी भी दी है।
पाकिस्तानी फौज आज देश में सबसे बड़ी कंपनी है। उसकी जड़ें अर्थव्यस्था के हर हिस्से में फैली हुई हैं। यह फौज शायद दुनिया की एकमात्र फौज है, जो पहरेदारी कम करती है, दुकानदारी ज्यादा करती है। आयशा सिद्दीक की किताब 'मिलिट्री आइएनसी: इनसाइड पाकिस्तान्स मिलिटरी इकोनॉमी इस संदर्भ में व्यापक प्रमाण देती है। कश्मीर का मुद्दा या फिर भारत के मुसलमानों के प्रति चिंता से उपजा पाकिस्तान का रोष कुछ नहीं है। जनता का ध्यान बंटा रहे, जनमानस लगातार जूनून में डूबा रहे और शासकों की जवाबदेही न हो, यही पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी का मुख्य उद्देश्य है। भारत में अक्सर हम गलती करते हैं जब हम पाकिस्तानी फौज और उसके संभ्रांत वर्ग को अलग-अलग करके देखते हैं।
असली हालत यह है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यह कहना भी अतिश्योक्ति न होगी कि सिविल सोसाइटी की ढोलक पर ही पाकिस्तानी फौज थिरकती है। बिना बाहरी समर्थन के फौज कुछ भी नहीं है। हां, एकाध बार वह आपे से बाहर जरूर हो गई थी, पर सिविल सोसाइटी तुरंत हरकत में आई और तालमेल बैठा दिया। फौजी जरनैलों की तानशाही हुकूमतें इसी तरह खत्म हुई थीं और फिर चुनाव हुए थे। पर इससे राष्ट्रीय सोच और सिविल सोसाइटी की नीति बदली नहीं। थोड़ी-सी और पेचीदा हुई और थोड़ी और धारदार। फौज पर अंकुश लगाने के लिए यह कवायद जरूरी थी, जिससे वह विशिष्ट लोगों (सत्तारूढ़ वर्ग) के दिखाए रास्ते पर संभल कर चले। कश्मीर पाकिस्तान के लिए पिछले कुछ वर्षों से बहुत जरूरी हो गया है। अमेरिका के रुख की वजह से फिदायीन और मुजाहिदीन की अफगानिस्तान में मांग खत्म-सी हो गई है।
मजहब के नाम पर एकजुट एक बड़ा गरीब वर्ग अब बेमकसद हो गया है। उसके जुनून को कायम रखना है, ताकि वह कहीं और अपनी भड़ास निकालता रहे। उसका अपनी मुफलिसी से ध्यान भटका रहे। कश्मीर यहीं पर पाकिस्तान के हुक्मरानों के काम आता है। वास्तव में पाकिस्तान कश्मीर को लेना नहीं चाहता। 1971 का बदला नहीं चाहता, बल्कि उसको हवा देकर अपने विशिष्ट वर्ग को सुरक्षित ढंग से और ज्यादा लगान वसूली के मौके देना चाहता है। यही उसकी कूटनीति है, उसकी राजनीति और उसकी रणनीति है। नवाज शरीफ का संयुक्त राष्ट्र के मंच से भाषण इस बात का भरपूर प्रमाण है।