पाक से संबंधों की समाप्ति व सख्ती का समय

इस वर्ष अब तक सुरक्षा बलों ने एक सौ दस आतंकियों को मार गिराया। घुसपैठ की सत्रह कोशिशों को नाकाम किया जा चुका है। पूरे घटनाक्रम से इतना तो तय हो गया कि पाकिस्तान के साथ वार्ता संभव नहीं है। इस मुल्क पर किसी भी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए। दूसरी बात अब उसे आतंकी हमलों के सबूत देने की भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इनका भी कोई औचित्य नहीं रह गया है। पाकिस्तान की किसी अदालत में आतंकियों को सजा देने का साहस नहीं है। ऐसे में भारत को अपने इलाके में आतंकियों के खिलाफ सैनिक अभियान तेजी से चलाना होगा।
इ समें कोई संदेह नहीं कि आतंकियों का सेना के बेस तक पहुंच जाना बेहद गंभीर मसला है। जवानों की शहादत पूरे देश को भावुक बनाती है। ऐसे में आंतरिक सुरक्षा को अधिक मजबूत बनाने की आवश्यकता है। लेकिन यह समय भावनाओं में बहकर फैसले का नहीं है। यदि ताशकन्द और शिमला जैसे समझौते करने पड़े तो फिलहाल बड़े युद्ध की आवश्यकता नहीं है। फिर भी सीमा पार से आतंकियों की घुसपैठ पर जीरो-टॉलरेन्स की नीति बनानी होगी। उसके मद्देनजर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने होंगे, सेना को इस पर अमल करने संबंधी पर्याप्त अधिकार देने होंगे। इसी के साथ कश्मीर घाटी में पाकिस्तान समर्थकों के खिलाफ भी कठोर अभियान चलाना होगा। यह देखना होगा कि ऐसे तत्वों ने कहीं घाटी में मुकम्मल ठिकाने तो नहीं बना लिये हैं नेशनल कांफ्रेंस व कांग्रेस गठबंधन सरकार के समय बड़ी संख्या में हुए निर्माण कार्यों पर भी नजर रखनी होगी। इस चर्चा की जांच होनी चाहिए कि आतंकियों व उनके समर्थकों ने घाटी में अपनी जगह बना ली है। इनके सहयोग से वायुसेना, थल सेना बेस तक पहुंचना आसान हो जाता है। इन तथ्यों के फिलहाल पुख्ता सबूत नहीं हैं लेकिन इनकी जांच अवश्य होनी चाहिए। भावी राजनीति में जांच रिपोर्ट उपयोगी हो सकती है।
उरी हमले के बाद सरकार ने जो मंसूबा दिखाया है उसे उचित माना जा सकता है। कहा गया कि पाकिस्तान और वहां चल रहे आतंकी संगठनों को इसका जवाब अवश्य दिया जायेगा। समय और जगह का फैसला भारत करेगा। यह भी संतोष का विषय है कि सरकार पाकिस्तान के साथ आर्थिक-व्यापारिक कूटनीतिक संबंध तोडऩे पर गंभीरता से विचार कर रही है। प्रधानमंत्री का सार्क शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का फैसला भी ठीक है। यह सम्मेलन आठ-नौ नवम्बर को इस्लामाबाद में होना है। एक बात तो पूरी तरह साफ हो गयी है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता या सहयोग जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। इसी के साथ पाकिस्तान के कारण सार्क जैसे संगठन का कोई औचित्य नहीं रह गया है। पाकिस्तान इस संगठन से बाहर न हो तो इसका समाप्त हो जाना ही बेहतर है। द्विपक्षीय वार्ता या दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन के सम्मेलन में पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार का प्रतिनिधित्व होता है। लेकिन पाकिस्तान में प्रधानमंत्री सहित उनकी पूरी मंत्रिपरिषद की सेना के सामने कोई अहमियत नहीं होती। आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर सेना और आईएसआई के संरक्षण में चलते हैं। इसके लिए बड़ा बजट होता है। प्रधानमंत्री को इसमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होता। भारत तथा विदेश नीति के मसले पर भी सेना का निर्णय अंतिम होता है।
पिछले कुछ समय में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ बेहद कमजोर हो चुके हैं। उनके ऊपर घोटालों के गंभीर आरोप हैं। कहा जाता है कि वह अपने परिवार के उद्योग व व्यापारिक लाभ के लिए विदेश यात्रा करते हैं। पिछले दिनों विपक्ष ने उन्हें हटाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन चला रखा था। सेना ने बीच में पडक़र समझौता कराया था। इसके बाद नवाज को अपनी बची हुई शक्तियां भी सेना के हवाले करनी पड़ी थीं। यह ठीक है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले दिन से ही पाकिस्तान से संबंध सुधारने का प्रयास किया था। उन्होंने अपने शपथ ग्रहण में सार्क सदस्य देशों के शासकों को आमंत्रित किया था। बाद में एक बार विदेश यात्रा से लौटते समय वह इस्लामाबाद रूके थे। वहां नवाज शरीफ से उनकी बात हुई थी। वस्तुत: यह भारत की विचारधारा और संवैधानिक व्यवस्था की अभिव्यक्ति थी। भारतीय विचार में अहिंसा, सौहार्द, पड़ोसियों से अच्छे संबंध के तत्व हैं, मोदी ने इसी से प्रेरित होकर पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने के प्रयास किये। इसके अलावा भारत का प्रधानमंत्री संविधान के अनुसार शक्तिशाली है। इसलिए वह पाकिस्तान संबंधी मसलों पर कदम बढ़ाने की क्षमता रखता है। यदि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भी इसी हैसियत में होते तो समस्या का समाधान हो जाता लेकिन उसे सेना के नियंत्रण में रहना होता है वह चाहकर भी आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकता। इसलिए समस्या बढ़ती जा रही है। ऐसा भी नहीं कि हमारे सुरक्षा बल माकूल जवाब नहीं देते। आतंकियों को हमले के लिए उस वक्त का इंतजार होता है जब सामान्य व मानवीय रूप में नींद का समय होता है। भारतीय जवानों के जागते समय हमले का साहस उनमें नहीं होता।
इस वर्ष अब तक सुरक्षा बलों ने एक सौ दस आतंकियों को मार गिराया। घुसपैठ की सत्रह कोशिशों को नाकाम किया जा चुका है। पूरे घटनाक्रम से इतना तो तय हो गया कि पाकिस्तान के साथ वार्ता संभव नहीं है। इस मुल्क पर किसी भी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए। दूसरी बात अब उसे आतंकी हमलों के सबूत देने की भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इनका भी कोई औचित्य नहीं रह गया है। पाकिस्तान की किसी अदालत में आतंकियों को सजा देने का साहस नहीं है। ऐसे में भारत को अपने इलाके में आतंकियों के खिलाफ सैनिक अभियान तेजी से चलाना होगा। अग्रिम इलाकों से लेकर भीतर तक आतंकी छिपते रहे हैं। इनको समाप्त करने का प्रयास होना चाहिए। लाइन ऑफ कंट्रोल अर्थात एलओसी और अन्तर्राष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा व्यवस्था को नए सिरे से दुरुस्त करना होगा। कहीं न कहीं कोई खामी है जिसका लाभ आतंकी उठाते हैं। इन प्रयासों के अलावा पाकिस्तान से आर्थिक संबंध भी समाप्त करने चाहिए। इसमें अफगानिस्तान और ईरान जैसे देश भी भारत का साथ दे सकते हैं। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी तो इसकी चेतावनी भी दे चुके हैं। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान ने भारत से सामग्री लाने वाले वाहनों को ट्रांजिट रूट नहीं दिया तो वह पाकिस्तानी ट्रकों को अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशियाई देशों में नहीं जाने देंगे। इसी प्रकार पाकिस्तानी विमानों को भारतीय आकाश से उडऩे की सुविधा समाप्त कर देनी चाहिए। पाकिस्तान को अंतिम रूप से अविश्वसनीय और आतंकी देश मान लेना चाहिए। भारत निकट होने के कारण सर्वाधिक प्रभावित है। ऐसे में भारत को ही सबसे पहले कारगर कदम उठाने होंगे।