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रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं...

रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं...
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सड़क किनारे तंबू में ही गुजर जाता है बंजारों का जीवन

सरकारी योजनाएं भी नहीं पहुंचती इनके पास


सुजान सिंह बैस/ग्वालियर। भले ही गर्मी की चिलचिलाती धूप हो या फिर सर्दियों में कंपकपाने वाली ठंड एक वर्ग ऐसा भी है जो कि बारह महीने अपने परिवार सहित सड़क किनारे ही अपना जीवन-यापन करने के लिए मजबूर है।
जी हां, यहां हम बात कर रहे हैं उन बंजारों की जो कि कही भी अपना आशियाना बना लेते हैं। इन पर एक हिन्दी फिल्म गीत की यह पक्तियां रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं, अपना खुदा है रखवाला बिल्कुल सटीक बैठती हैं।

इन दिनों भी जबकि गर्मी से लोग परेशान हैं और कूलर, पंखे भी उन्हें राहत नहीं दे रहे, ऐसे में तपती सड़क पर तम्बू लगाकर शहर के विभिन्न क्षेत्रों में बंजारे अपने परिवार सहित रह रहे हैं। उपनगर ग्वालियर के बिड़ला नगर रोड के किनारे तंबू मेें अपने परिवार सहित रहने वाले भारत सिंह ने बताया कि कभी-कभी उन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है। उनका परिवार पूरे दिन काम करता है फिर भी वह सिर्फ 100 से 200 रूपए ही कमा पाते हैं। उन्होंने बताया कि जब गर्मी बहुत अधिक होती है, तो वह सड़क के किनारे किसी पेड़ का सहारा लेते हैं और वहीं पूरा दिन निकाल देते हैं।

लोहे से मिलती है रोटी
हजीरा, बिड़ला नगर रोड के किनारे इन दिनों तम्बू लगा कर रहने वाले ये बंजारे रोजगार की तलाश में इधर-उधर घूमते रहते हैं। यह मूलत: राजस्थान चित्तौडग़ढ़ के निवासी है। पीढिय़ों से यह लोग खानाबदोशों का ही जीवन जी रहे हैं।

मजे की बात तो यह है कि इन परिवारों तक सरकार की कोई भी योजना नहीं पहुंच सकी है। दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में बंजारों के इस काफिले में पुरूषों के साथ महिलाएं और बच्चे भी हाथों में घन लेकर लोहे को पीटते नजर आते हैं। इस परिवार के एक युवा सदस्य राजेन्द्र ने बताया कि उनका मूल काम ही लोहे को गलाकर औजार बनाना है। इसी से इनकी रोजी-रोटी चलती है।
ये बंजारे बताते है कि औजार बनाने के लिए वे कबाडिय़ों और मोटर गैरेज से पुराने लोहे की खरीदी करते हैं।

बस्ते की जगह हथौड़ा थामना है मजबूरी

बीसवीं सदीं से निकल कर 21 वीं सदी के 16 वें साल में प्रवेश कर चुके इनके मासूम बच्चों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाने के लिए यूं तो कई सरकारी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकार द्वारा संचालित इन योजनाओं के क्रियान्वयन में समाजसेवी संगठन भी सरकारों के साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन करोड़ों रुपए प्रति वर्ष खर्च करने के बाद भी सरकार की ये योजनाएं इन परिवारों तक नहीं पहुंच पातीं।
स्थायित्व की तलाश:- भारत ङ्क्सह ने बताया कि हम यहां सड़क किनारे 30 वर्षों से रह रहे हैं, अब हमारा मन भर गया है। बदलते वक्त के साथ बच्चों को अनुशासित रखने में भी परेशानी हो रही है। इसलिए अब उनकी इच्छा है कि उनका पूरा काफिला कहीं स्थायी रूप से बस जाए।

प्रशासन से भी नहीं मिली कोई मदद
भारत ने बताया कि वह सहायता के लिए कई बार प्रशासन से गुहार कर चुके हैं, लेकिन आज तक उन्हें किसी भी तरह की मदद नहीं मिली है। भारत ने बताया कि उसके परिवार में उसकी पत्नी, 14 वर्ष का एक लड़का और लड़की है। उन्होंने बताया शासन की योजना के तहत वह भी एक मकान की आस लेकर जिलाधीश के पास गए थे, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हुई।

संदेही नजरों से परेशान

रोजगार और दो वक्त की रोटी के लिए पीढिय़ों से भटक रहे बंजारों के इस काफिले के लिए सबसे बड़ी परेशानी लोगों लोगों की संदेह भरी नजरें हैं। इस परिवार की महिला सदस्या भगवती देवी ने बताया कि रोड के किनारे रहने के कारण अगर यहां आस पास कोई अपराध होता है तो पुलिस भी उन पर संदेह करते हुए पूछताछ करती है। इससे डेरे में रहने वाले बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

Updated : 29 May 2016 12:00 AM GMT
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