चुनावों के व्यावसायिक प्रबंधक-राजनीतिक ह्रास के कारण बनेंगे

चुनावों के व्यावसायिक प्रबंधक-राजनीतिक ह्रास के कारण बनेंगे

*राजनाथ सिंह 'सूर्य

क्या किसी व्यावसायिक प्रबंधन के द्वारा चुनाव जीता जा सकता है? लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने एक व्यावसायिक प्रबंधन का सहारा लिया था, उसी प्रबंधन का सहारा बिहार विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार ने लिया अब कांग्रेस उसी प्रबंधन के सहारे उत्तर प्रदेश में दो दशक से जिस दुरावस्था में है, उससे उबरने की उम्मीद कर रही है। लेकिन क्या नरेंद्र मोदी को मिली सफलता या नीतीश कुमार के गठबंधन की जीत उस व्यावसायिक प्रबंधन के कारण ही हुई है। इन दोनों चुनाव परिणाम के लिए जो माहौल था उसका संज्ञान लिए बिना ही यदि विचार किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि व्यावसायिक प्रबंधन से यह संभव हुआ है। लेकिन हकीकत कुछ और है। लोकसभा चुनाव के समय तत्कालीन केंद्रीय सरकार की छवि बहुत ही गिर गई थी।

देश में एक सशक्त नेतृत्व में बदलाव की प्रबल आकांक्षा थी जिसे मोदी ने अपने गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल की छवि से आकर्षित बनाया। लोगों को यह आभास हुआ कि यदि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी। प्रशासन जनहितकारी होगा। जनता को सरकार तक पहुंचने के लिए किसी बिचौलिये की जरूरत नहीं होगी। उनका नारा 'अच्छे दिन आयेंगेÓ, 'सबका साथ-सबका विकास' आम आदमी को लुभावना लगा। उनके भ्रष्टाचार मिटाने और सुशासन लाने पर लोगों ने भरोसा किया। फलत: नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। उनके मुकाबले खड़ी कांग्रेस ने अपनी रणनीति वही रखी जिसके कारण नरेंद्र मोदी को गुजरात में तीन चुनाव लगातार जीतने में सफलता मिली। कांग्रेस ने मोदी पर व्यक्तिगत आक्षेप तक अपने प्रचार को सीमित रखा। उसके बाद दिल्ली विधानसभा का चुनाव हुआ। भाजपा ने उसे मोदी की छवि के सहारे जीतना चाहा और जो संयोजन किया उससे जहां आम भाजपा कार्यकर्ता निष्क्रय हो गया वही अरविन्द केजरीवाल की जुझारू प्रवृत्ति का अवाम पर व्यापक असर पड़ा। बिहार के चुनाव की स्थिति उपरोक्त दोनों चुनावों से भिन्न थी। लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच हुए सीट बंटवारे और मुस्लिम मतदाताओं में भाजपा के भय से बने समीकरण ने नीतीश का बहुमत पाकर सरकार बनाने का अवसर अवश्य दिया, लेकिन यदि वे अकेले चुनाव लड़ते तो उसके क्या परिणाम होते यह मिलकर लडऩे पर उन्हें प्राप्त सीटों के आधार पर समझा जा सकता है। लालू, नीतीश और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे का तालमेल किसी व्यावसायिक प्रबंधन की देन नहीं थी, हां यह अवश्य था कि इस तालमेल को जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरण के रूप में ठोस करने में प्रबंधन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

क्या उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा ही समीकरण बनाना संभव है या फिर कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी या नीतीश कुमार के समान कोई ऐसा नेता है जिसके नाम पर आकर्षण पैदा किया जा सके। दो दशक से हाशिये पर चली गई कांग्रेस में इन दिनों राहुल गांधी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेकट करने या प्रियंका को आगे कर चुनाव लड़ाने की ऊहापोह चल रही है। कांग्रेस कार्यकर्ता हताश होने के कारण किसी मुखौटे की तलाश में हैं। उसके पास न तो नरेंद्र मोदी जैसा जुझारू नेता है और बिहार जैसा मजबूत समीकरण का सहारा। उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति लंबे समय से समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी में ही उलझ कर रह गई है। लोकसभा चुनाव में सहयोगी दल के साथ अस्सी में तिहत्तर सीट जीतने वाली भाजपा ने एक और विकल्प की संभावना बढ़ाई है। ये तीनों ही पक्ष जहां अपने-अपने खेमें में अलग-अलग खड़े हैं, वहीं चुनावी सफलता के लिए किन्हीं अन्य दलों के साथ गठबंधन न करने की मानसिकता से बहुत दूर है। राज्य में इन तीन दलों के अलावा कांग्रेस सहित एक दर्जन से अधिक स्थानीय प्रभाव रखने वाले दल हैं जो चुनाव भले न जीतें लेकिन जीत हार का कारण बन सकते हैं। कांग्रेस के व्यावसायिक चुनाव प्रबंधक ने पहला पासा इन दलों को कांग्रेस के बैनर तले लाने के लिए फेंका जो असफल रहा कारण कांग्रेस और उसके नेताओं की छवि जो निरंतर गिरती जा रही है। सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस नेतृत्व की जो छवि बन रही है उसने कांग्रेसियों तक को बहुत निराश किया है।

यही कारण है कि किसी भी मसले पर नेतृत्व द्वारा किए गए आह्वान पर वक्तव्यों से आगे कोई गतिविधि नजर नहीं आई। कांग्रेस के लिए एक और परेशानी है पिछले दो दशक में कांग्रेस नेतृत्व उत्तर प्रदेश के अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित रखा। प्रदेश कांग्रेसी अपने नेतृत्व के साथ संवाद से वंचित रहा और दिल्ली में बैठकर कुछ लोगों ने प्रदेश से लेकर ग्राम स्तर तक के संगठन का ढांचा मनोनयन के सहारे खड़ा कर उन लोगों ही प्रोत्साहित किया जो जमीन से जुड़े होने के बजाय जुगाड़ से महत्वपूर्ण बन जाते हैं। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में पार्टी को वर्षों 'राम भरोसेÓ छोड़ रखा था, अब किसी व्यावसायिक प्रबंधन के हाथों में बागडोर सौंप दिया है। व्यावसायिक प्रबंधन सहायक तभी हो सकता है जब वह उस स्थिति में काम करे जिस स्थिति में उसने नरेंद्र मोदी या नीतीश कुमार के लिए काम किया था। यदि यह कहा जाय कि व्यावसायिक प्रबंधन की महत्ता, नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और बिहार के समीकरण की सफलता बढ़ी है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस इन दोनों स्थितियों से वंचित है।
लोकसभा बिहार विधान सभा और अब संभावित उत्तर प्रदेश विधान सभा के निर्वाचन में व्यावसायिक प्रबंधन की बढ़ती महत्ता से एक सवाल यह खड़ा होता है कि क्या अब राजनीतिक दल ठेके पर चलेंगे? अपने संगठन का विस्तार और कार्यकर्ताओं के सहारे जनाधार प्राप्त करने के बजाय क्या ठेके पर चुनावी सफलता प्राप्त किया जायेगा। ये प्रबंधनस्वांत: सुखाय नहीं किया जाता। इसके लिए सैकड़ों करोड़ रूपया जहां शुल्क या मेहनताना के रूप में लिया जाता है वहीं अभियान का अभियोजन भी धन प्रधान होता है। निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावों में धनबल के प्रभाव को घटाने के प्रयासों को यह मुंह तोड़ जवाब भी है। साथ ही उम्मीदवारों के चयन में धनपति होने की प्रमुखता देना भी। यह माना जाता है कि सबसे अधिक काला धन चुनाव में खर्च होता है। चुनाव के पूर्व चलने वाली रथ यात्राएं और चुनाव के दौरान भुगतान के आधार पर ''कार्यकर्ताओं'' का सहयोग खर्चे को बढ़ाता ही है इसलिए चुनाव महंगा होता जा रहा है। राजनीतिक दलों को अपने कैडर में निष्पक्षता का विश्वास नहीं रह गया है इसलिए निष्पक्ष तथा प्राप्त करने के लिए वह सर्वे करने वाले व्यावसायिक संगठनों का सहारा लेते हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षी अब नेताओं से अधिक इन सर्वे दलों के संचालकों की दरबारगीरी करने लगे हैं। फलत: राजनीति में व्यावसायिकता का प्रभाव बढ़ता जा रहा है तथा सर्वेक्षण को अपने अनुकूल बनाने के लिए ऐसे उपायों का सहारा लिया जाना भी शुरू हो गया है जो नैतिक नहीं कहा जा सकता। राजनीति में चुनावी सफलता उम्मीदवार के चयन या दल को अपनाने और छोडऩे का सिलसिला सैद्धांतिक प्रतिबद्धता को महत्वहीन बना रहा है। ऐसे में व्यावसायिकता को समर्पित प्रबंधन राजनीति को भ्रष्ट बनाने में ही सहायक साबित हो रहा है। व्यावसायिक प्रबंधन बोली लगाता है, जो ज्यादा बोली लगाता है उसके लिए काम करता है। उसका किसी से लगाव नहीं, लगाव होता है तो धन से। राजनीतिक क्षेत्र में सिद्धांतहीनता अनैतिकता और मर्यादित आचरण को इससे बढ़ावा मिलेगा तथा निष्ठा के बजाय सफलता का मापदंड के कारण राजनीति में कार्यकर्ताओं के बजाय ठेके के मजदूरों का बोलबाला बढ़ता जायेगा। राजनीतिक दलों के लिए गंभीर चुनौती है। इस प्रभाव का कारण है राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव। मनोनयन से संगठनात्मक ढांचा खड़ा किए जाने के कारण दल व्यक्ति आधारित होते जा रहे हैं। जो लोकतंत्र के विलोप का कारण बना ही है व्यावसायिक प्रबंधन उसे और भी निरंकुश बनाने में मदद कर रहा है? संभव है किसी दल या गठजोड़ को इस प्रबंधन का तात्कालिक लाभ मिल जाय-उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए वह भी संभव नहीं है-लेकिन यह दूरगामी परिणाम लोकतंत्र के लिए घातक होंगे।

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