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राष्ट्रवाद या ढोंगवाद, कौन जीतेगा?

*राजनाथ सिंह 'सूर्य'

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अपने स्वयंसेवकों के गणवेश में निकर के स्थान पर भूरे रंग की फुलपैंट शामिल किए जाने को लेकर उसके प्रति विरोधभाव रखने वालों की प्रतिक्रिया इस रूप में उभरी है क्या संघ अपनी विचारधारा में भी बदलाव करेगा? उनकी मान्यता के अनुसार संघ की विचारधारा सांप्रदायिक है। जो लोग जातीयता वर्ग या संप्रदाय के आधार पर नागरिकों का विभाजन कर उन्हें मात्र वोट बैंक बनाने भर तक ''सामाजिक समरसताÓÓ कार्यक्रम अपनाने का दावा करते हैं उनके लिए इस देश की प्रत्येक गौरवशाली परंपरा रूढि़वादी प्रतिगामी और सांप्रदायिक है। वसुधैव कुटुम्बकम् या सर्वेभवन्तु सुखिना अथवा इस ब्राह्मांड में जो कुछ है उस सबको ईश्वर ने बनाया है इसलिए प्रत्येक में ईश्वर का वास होने के कारण किसी के प्रति प्रतिकूल अवधारणा नहीं रखनी चाहिए कि मान्यता इस अवधारणा के दारूलहरब और दारूल इस्लाम, विलीवर बनाम नॉन विलीवर साथ ही है हैब्स व हैब्स नॉट में बांटने वाली विचारधारा को श्रेष्ठ समझते हैं। ऐसे ही लोगों की समझ यह है कि जो कुछ प्राचीन है, भारतीयत्व का गौरव स्थापित करता है, उसके लिए आग्रह करता है, वह त्याज्य है। इसलिए उनके लिए संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा संकुचित है, साम्प्रदायिक है इसलिए उसे बदलना चाहिए। उनका भारतीय अवधारणा 'आनो भ्रदा...Ó में विश्वास नहीं है। वे जिसे अपने खिड़की दरवाजे बंद किए हुए है वैसा ही संघ भी करे। मेरे विचार से उन्हें इस प्रकार की अपेक्षा में निराशा ही होगी। संघ जिस राष्ट्रवाद, मानववाद और वसुधैव कुटुम्बकम को जागृत कर विश्व कल्याण के उद्घोष की पूर्ति की दिशा में बढ़ रही अनुकूलता से जहां अपने प्रयास को और सघन बनाने के उपाय में लगा है वहीं वे लोग जो अपने घर में तो पराजित हो चुके हैं, देश के बाहर लगभग बहिष्कृत हो चुके हैं, के शोर का क्या संघ पर कोई प्रभाव पडऩे का कोई औचित्य है। यदि औचित्य है तो यह कि जो विचारधाराएं घर के विघटन को बढ़ावा दे रही है और जो अपने उद्भूत क्षेत्र में हीनकारी जा रही है, उनके प्रति भारत में कतिपय लोगों में जो दुराग्रह बना हुआ है उसे त्यागने पर विचार करना चाहिए। भारत एक सक्षम वैभव सम्पन्न समरसतायुक्त गौरवशाली राष्ट्र बन दुनिया का पथ प्रदर्शक बने इस भावना से देश अभिभूत हो रहा है। ऐसे में संघ को विचारधारा त्यागने की सलाह कुछ वैसी ही जैसे कोई लोमड़ी सिंह को अपना रवैय्या बदलने की सलाह दे। लोमड़ी लालच, चालाकी और धोखेबाजी की प्रतीक है सिंह स्वाभिमान, शक्ति, सम्पन्नता अनुकरणीय का प्रेरक है। कोई भी अपनी संतान को लोमड़ी बनने का आर्शीवाद नहीं देता सभी चाहते हैं उनका संतान सिंह बने। हमें कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा संघ को आईएसआईएस के समकक्ष बताने और ओवैसी द्वारा गर्दन पर छुरी रखने पर भी भारत माता की जय न बोलने के ऐलान में जो समरूपता और अन्तर निहित भावना है उसे भी समझना होगा। यह समझने के लिए कि किस प्रकार भारत विरोधी मानसिकता हमलावर हो रही है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने नागौर में सम्पन्न अपनी राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में निर्णय लिया है क्या वे भारत के लिए कल्याणकारी नहीं है। संघ ने सक्षम लोगों से 'विशेषाधिकार' छोडऩे का अनुरोध किया है। आरक्षण के द्वारा सामाजिक और आर्थिक विषमता मिलने के लिए किए गए उपाय जो मात्र दस वर्ष के लिए थे, उसे अनंतकाल तक जारी रखने और नए-नए वर्गों की उससे आच्छादित होने की हिंसक प्रवृत्ति को देखते हुए क्या आरक्षण के उद्देश्य पूर्ति में अब तक सफलता न मिलने के कारणों की समीक्षा का आग्रह अनुचित है। क्यों जातीय और सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की मांग के पीछे लोग खड़े होकर सामाजिक समरसता को बिगाड़ रहे हैं और विध्वंसक बनकर अपनी सम्पत्ति का नाश करने पर उतारू हैं, और क्यों जो काम दस वर्ष में होने का अनुमान था वह साठ वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी संपूर्ण नहीं हो सका। स्त्री और पुरूष में भेदभाव के बढ़ते चलन से जो संघर्ष बढ़ रहा है उसको समानता की अवधारणा के आधार पर सुलझाने का संघ ही ऐसा संगठन है जो प्रयास कर रहा है। जो अन्य क्षेत्रों के समान इस क्षेत्र में भी संघर्ष बढ़ाने की प्रवृत्ति वाले हैं उन्हें भले ही यह प्रयास औचित्यपूर्ण न लगे लेकिन यही एक मात्र विकल्प हैं कुछ मंदिरों के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर चल रहे विवाद के संदर्भ में अवधारणा की प्रतिनिधि सभा द्वारा की गई अभिव्यक्ति पर मुझे यह प्रसंग याद आया जब पुरी के जगन्नाथ मंदिर द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ''हिन्दू होने के कारणÓÓ प्रवेश से वंचित कर दिया था तब तत्कालीन सरसंघचालक गुरूजी ने मंदिर प्रबंधन के इस आचरण पर दुख प्रगट किया था और कहा था कि मंदिर के द्वार सभी के लिए खुले रहना चाहिए। प्रतिनिधि सभा ने विश्वविद्यालयों में देश विरोधी अभिव्यक्ति पर जो चिंता व्यक्त की, वह सर्वथा औचित्यपूर्ण है जेएनयू के संदर्भ को देखते हुए। संघ ने सभी के लिए शिक्षा के औचित्य को प्रतिपादित किया है। कार्य का विस्तार अब एक वटवृक्ष के रूप में हो चुका है जीवन के सभी क्षेत्र, देश के सभी भाग और समाज के प्रत्येक वर्ग में उसके स्वयंसेवकों की आचरणीय सक्रियता के कारण जो आहत है उनकी विक्षिप्त अभिव्यक्ति स्वाभाविक है। उनकी बढ़ती विक्षिप्तता से संघ की लोकप्रियता में वृद्धि होगी और जो विक्षिप्त है वे विलुप्त होते जायेंगे।
देशवासियों को यह समझ में आने लगा है कि राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक करार देने वालों की वास्तविक मंशा क्या है। भारत में राष्ट्रवाद और ढोंगवाद जिसे सेक्युलरिज्म जामा पहना दिया गया है-संघर्ष है। यह संघर्षगाथा नहीं है। भले ही प्रारम्भ में ढोंगवाद प्रभावशाली दिखाई पड़ रहा हो लेकिन राष्ट्रवाद की स्थायी पैठ के सामने वह अब चारों खाने चित हो रहा है। ढोंगवाद अपनी पोल खोलते जाने के बाद ढोंग छोडऩे के बजाय और अधिक विक्षिप्त होकर आग्रही हो रहा है। उसे भारतीय जीवनशैली को जो धर्म अर्थ काम और मोक्ष के चतुष्ट्य पर आधारित है के प्रति भौतिकता प्रधानता से पीडि़त राह की तलाश में भटकते विश्व मानव की अनुकूलता से भले ही नजर न आती हो या वह इसे देखकर भी अनदेखी करना चाहता हो, परंतु भारतीय समाज इससे गौरवान्वित अनुभव कर रहा है। संघ की प्रार्थना में भारत को परम वैभववान बनाने की नित्य कामना की जाती है। संघ शक्तिशाली राष्ट्र को ऐसा बनाना चाहता है जिसके शील के समक्ष विश्व नतमस्तक हो न कि शक्ति के समक्ष। बहुत पहले संघ के एक प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक कविता हिन्दू तन मन में इस भावना की अभिव्यक्ति इस प्रकार की-
कोई बताये कब हमने
काबुल में जाकर मस्जिद तोड़ी
भू-भाग नहीं शत शत मानव के
हृदय जीतने का निश्चय
हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन रग रग हिन्दू मेरा परिचय।
अपने आचरण और जीवनशैली से विश्व को अभिभूत करने के जिस अभियान से हमारे प्राचीन ऋषियों और मुनियों ने मानवता को परिपुष्ट किया था उसके लिए स्वयं के जीवन को जिस अवगृह और निश्रेयस से पूरित रखना आवश्यक है उसी के अनुरूप लाखों लोग विश्व भर में संघ स्वयंसेवक के रूप में अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। जिस भारतीयता के प्रति कलह युद्ध कदाचरण से मानवीय मूल्य का क्षरण और स्वार्थपरता में लिप्त होकर भौतिक सुख के लिए संघर्ष की आशंका से विचारवान लोग चिंतित हैं उन्हें संघ ने सुख शांति के प्राचीन भारतीय आदर्श की ओर उन्मुख किया है। संघ इस पथ से कुछ अवसरवादियों के शोर से विचलित तब नहीं हुआ जब उसके प्रति प्रतिकूलता उभार पर थी तो अब क्यों प्रभावित होगा जब अनुकूलता व्यापक हो रहा है। संघ को नहीं उनकी अपनी विचारधारा बदलने की जरूरत है जो दुत्कारे जा रहे हैं। ऐसे दुत्कारे जा रहे लोगों को अभी भी यह समझ में आ रहा है कि उनके लिए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है ''खुद मियां फजीहत दीगरे नसीहत।ÓÓ

Updated : 18 March 2016 12:00 AM GMT
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