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जयचंद और मीर जाफर की वापसी

*बलबीर पुंज


क्या जयचंद और मीर जाफर का इतिहास दुहराया जा रहा है? अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए षड्यंत्र रचने की प्रवृत्ति प्रजातंत्र के लिए घातक है। उस षड्यंत्र में देशभक्त, पुलिस अधिकारी और जननेता को निशाना बनाना और घोषित आतंकवादियों को बेकसूर ठहराने से ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या होगी? सन् 2004 में गुजरात पुलिस के हाथों मारी गई लश्कर की आतंकी इशरत जहां को कांग्रेस ने साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर बेकसूर ठहराना चाहा ताकि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मौत का सौदागर' साबित किया जा सके।

पूरे घटनाक्रम के दो मुख्य बिंदु हैं। एक- क्या इशरत जहां आतंकवादी थी और उसे पाकसाफ का प्रमाण पत्र देने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार और उसके गृहमंत्री पी चिदंबरम ने षड्यंत्र रचा? दूसरा- क्या इशरत जहां और उसके साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया या मुठभेड़ असली थी, जिसमें सशस्त्र आतंकवादी पुलिस अधिकारियों के हाथों ढेर हुए। अभी तक सामने आए तथ्यों को देखने के बाद कोई भी निश्चित रूप से कह सकता है कि इशरत उन गुमराह युवाओं में से एक थी, जो मजहब की पुकार और शायद पैसों की चकाचौंध से प्रभावित होकर आतंकवादियों की सहयोगी बन बैठी थी। एक निम्न मध्यम आय वर्ग और मजहबी मानसिकता से संबंध रखने वाली लड़की कई दिनों से गायब रहे और फिर उसका तीन पुरुषों के साथ अपने गृहनगर, मुंबई से दूर अहमदाबाद में एक कार में मिलना अपनेआप में कई प्रश्न पैदा करता है।

15 जून, 2004 को गुजरात पुलिस ने केंद्रीय खुफिया एजेंसी की पुख्ता सूचना के आधार पर लश्कर ए तैयबा के चार आतंकवादियों को मार गिराया था, जिसमें इशरत जहां शामिल थी, जिसे सेकुलरिस्टों का कुनबा एक शरीफ लड़की बताता आया है। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से राजनीतिक बैरशोधन के लिए केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अपनी ही खुफिया एजेंसी की सूचना पर संदेह खड़ा किया और गुजरात उच्च न्यायालय में उक्त मुठभेड़ की सीबीआई जांच कराने की मांग का समर्थन किया। जिन झूठे तथ्यों और तर्कों के दम पर गुजरात सरकार और पुलिस के आला अधिकारियों को प्रताडि़त करने की साजिश रची गई, उसकी कलई अब उक्त मामले से जुड़े गृह मंत्रालय के अधिकारी स्वयं खोल रहे हैं।

अदालत में केंद्र सरकार की ओर से 6 अगस्त, 2009 को दाखिल पहले हलफनामे में आईबी से मिली पुख्ता जानकारी का हवाला देते हुए यह बताया गया था कि इशरत जहां लश्कर की आतंकी थी। किंतु 30 सितंबर, 2009 में दूसरा शपथपत्र दाखिल कर इशरत को निर्दोष बताया गया। जांच से जुड़े अधिकारियों ने अब जो रहस्योद्घाटन किया है, उससे कांग्रेस नेतृत्व की राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या तब राजनीतिक बैरशोधन के लिए कांग्रेस ने राष्ट्र की संप्रभुता और सुरक्षा के साथ समझौता नहीं किया? आईबी की पुख्ता जानकारी और जुटाए गए साक्ष्यों को दरकिनार कर कांग्रेस ने एक आतंकी की मौत को मानवाधिकार का मामला क्यों बनाया? जिस देश में अफजल और इशरत जैसे घोषित आतंकवादियों को मानवाधिकार हनन का रोल मॉडल और आतंकवाद के खिलाफ लडऩे वाले सुरक्षा बल को अपराधी बनाया जाए, उस देश की सुरक्षा का क्या होगा?

इशरत जहां मुठभेड़ मामले से जुड़े पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई, आईबी के पूर्व विशेष निदेशक राजेंद्र कुमार और अवर सचिव (आंतरिक सुरक्षा) आर वी एस मणि, तीनों का एक जो महत्वपूर्ण खुलासा है, वह शीर्ष स्तर पर हलफनामे में बदलाव करने के निर्णय से जुड़ा है। राजनीतिक शीर्ष स्तर से उनका आशय तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, गृहमंत्री पी चिदंबरम और कांगे्रस अध्यक्षा सोनिया गांधी से है। इस तिकड़ी ने दबाव डालकर संबंधित अधिकारियों से अदालत में दूसरा हलफनामा दाखिल करवाया, जिसमें पहले हलफनामे में दर्ज इशरत के लश्करे तैयबा के आतंकी होने की बात हटवा दी गई। आरवीएस मणि ने खुलासा किया है कि सीबीआई ने उन्हें प्रताडि़त कर आईबी के उन 18 अधिकारियों के खिलाफ आरोप मढऩे का दबाव बनाया, जिन्होंने कड़ी मेहनत कर इशरत के आतंकी सूत्रों की पड़ताल की थी। 21 जून, 2013 को एसआईटी प्रमुख समीश वर्मा और उनके सहयोगियों ने मणि को बुरी तरह प्रताडि़त किया। उन्हें सिगरेट से दागा गया। इन तीनों के खुलासे गंभीर हैं। आईबी की पुख्ता जानकारी के बाद इन आतंकियों का मारा जाना एक सफल ऑपरेशन रहा। उसका पटाक्षेप वहीं हो जाना चाहिए था, किंतु राजनीतिक अवसरवाद के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रहित को ही तिलांजलि दे दी। दूसरे हलफनामे के दाखिल होने के बाद कई अधिकारियों की गिरफ्तारी हुई, सुरक्षा बलों का मनोबल टूटा और अंतर्राष्ट्रीय जगत में देश की छवि धूमिल हुई।
देश की आर्थिक राजधानी, मुंबई में 26/11 को हुए हमले के सिलसिले में अमेरिकी खुफिया एजेंसी, एफबीआई के हत्थे चढ़े लश्कर के गुर्गे डेविड कोलमैन हेडली ने इशरत के लश्कर की फिदायीन होने का खुलासा किया है। हेडली से पहली बार पूछताछ करने वाले एनआईए के तत्कालीन संयुक्त निदेशक लोकनाथ बेहरा ने भी पिछले दिनों यह बताया कि इशरत के आतंकी होने के बारे में उन्होंने गृह मंत्रालय को 2010 में ही जानकारी दे दी थी, लेकिन मंत्रालय ने रिपोर्ट से इस हिस्से को निकाल दिया था। भारतीय जांच एजेंसी मुंबई हमलों को लेकर हेडली से पूूछताछ कर रही है। फरवरी, 2016 में वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए हेडली ने एक बार फिर इशरत के आतंकी होने की पुष्टि की है। क्या हेडली भी झूठ बोल रहा है? याकूब मेमन और अफजल के समर्थन में नारे लगाने वाले छात्रों की आवाज बुलंद करने हैदराबाद और जेएनयू पहुंचे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बताना चाहिए कि कांग्रेस आखिर किसके साथ है? क्या वह देश के लिए शहीद होने वाले जवानों या देश को लहूलुहान कर रहे आतंकियों के साथ है?

लोकतंत्र में मीडिया की बड़ी जवाबदेही है। उसे प्रजातंत्र का प्रहरी कहा जाता है, किंतु विडंबना यह है कि मीडिया के बड़े भाग में भी सेकुलर विकृतियां हावी हैं। मीडिया के बड़े वर्ग ने उक्त मुठभेड़ को पाठकों तक जिस तरह प्रेषित किया था, उससे यह साबित करने की कोशिश की गई कि गुजरात की 'हिंदूवादी सरकार' ने निरपराध अल्पसंख्यकों को मार गिराया है।

गुजरात की भाजपा सरकार की छवि कलंकित करने के लिए तब सच्चाई जानने की कोशिश नहीं की गई। इशरत जिन तीन पुरुषों के साथ इंडिका कार में सफर कर रही थी, उनमें से दो- जीशान जौहर और अमजद अली उर्फ सलीम पाकिस्तानी थे और एक भारतीय- जावेद उर्फ प्रणेश कुमार पिल्लई था, जिसके साथ वह कई बार विभिन्न स्थानों पर पति-पत्नी के रूप में होटल में ठहरी। आतंकियों की कार से भारी मात्रा में असलहे, गोलाबारुद के साथ एक डायरी भी मिली थी, जिसमें उनके अतीत और वर्तमान का खुलासा था। डायरी में कूटनाम से लालकृष्ण आडवाणी को लाला, नरेंद्र मोदी को मुबारक, प्रवीण तोगडिय़ा को टिंकू, विनय कटियार को काटा और उमा भारती को बहनजी के नाम से अंकित किया गया था। खुफिया सूत्रों के अनुसार लश्कर-ए-तैयबा के ये आतंकवादी नरेंद्र मोदी की हत्या की फिराक में अहमदाबाद आए थे।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2002 से 2007 के बीच देश में कुल 712 मुठभेड़ हुई। इनमें से गुजरात में केवल 17 मुठभेड़ हुई। मानवाधिकार आयोग की 31 मार्च, 2006 की रिपोर्ट के अनुसार उसके पास विचाराधीन 440 मुठभेड़ में से गुजरात से संबद्ध केवल पांच मामले थे। जबकि उत्तरप्रदेश के 231, राजस्थान के 33, महाराष्ट्र के 30, आंध्रप्रदेश के 22 और असम के 12 मुठभेड़ ऐसी हैं, जिन पर तब जांच लंबित थी। सारी सक्रियता गुजरात के मामले में ही क्यों? तथ्य और साक्ष्यों ने साथ नहीं दिया तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सीबीआई का दुरुपयोग कर षड्यंत्र रच न्याय की हत्या क्यों की?

Updated : 11 March 2016 12:00 AM GMT
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