अग्रलेख

बजट के पहले सत्र बुलाने पर असमंजस
डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
सरकार संसद के बजट सत्र से पहले आर्थिक सुधार से जुड़े कुछ विधेयकों को संसद से पारित कराना चाहती है। इसमें वस्तु एवं सेवा कर अर्थात जीएसटी और रियलस्टेट बिल शामिल है। इस सबंध में संसदीय कार्यमंत्री वेंकैंया नायडू ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की है। जिस समय संसद का पिछला अधिवेशन चल रहा था, उस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस मसले पर सोनिया और मनमोहन से मुलाकात की थी, लेकिन लगता है कि सरकार को काम न करने देने का संकल्प कांग्रेस छोडऩे को तैयार नहीं है।
इस प्रकरण से दो बातें साफ हैं। एक यह कि सोनिया गांधी अधोषित रूप से अपने पुत्र राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंप चुकी है। इसलिए जीएसटी आदि विधेयकों पर उनका कोई निजी विचार नहीं है। मनमोहन सिंह तो जब संवैधानिक पद पर थे, तब भी फैसला करने की हैसियत में नहीं थे। फिर भी औपचारिकता के तहत नरेन्द्र मोदी और वेंकैया नायडू ने उनसे मुलाकात की थी, क्योंकि जीएसटी उनकी सरकार का भी मुद्दा था। ऐसे में पहली बात यह कि विधेयक पारित कराने का फैसला राहुल को लेना है। दूसरी बात यह कि पहले प्रधानमंत्री और बाद में संसदीय कार्यमंत्री की कांग्रेसी नेतृत्व से मुलाकात के बाद यह कहना गलत होगा कि संसद को चलाना मात्र सरकार का दायित्व है। यहां उल्टा हो रहा है। सरकार सदन चलाना चाहती है, विपक्ष हंगामा करता है।
लोकसभा चुनाव में इतिहास का सर्वाधिक शर्मनाक प्रदर्शन करने के बावजूद कांग्रेस आज अपने किए पर खुश है। उसने संसद में सरकार के मंसूबे पूरे नहीं होने दिए। शीतसत्र के आखिरी तीन दिनों में बिना किसी चर्चा के कई विधेयक संसद से पारित हो गए। इनमें अधिकांश ऐसे थे जिन्हें लोकसभा पहले ही पारित कर चुकी थी, लेकिन हंगामे के कारण राज्यसभा में ये पारित नहीं हो सके थे। इस तरह कांग्रेस ने यह दिखा दिया कि जनता के द्वारा पूरी तरह ठुकराए जाने के बाद भी विधायी कार्यों में कांग्रेस मनमानी कर सकती है।
संसदीय भाषा में लोकसभा को लोकप्रिय सदन कहा जाता है, लेकिन यहां कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन सकी। राज्यसभा में उसका जलवा कायम है। डेढ़ वर्ष में यह साबित हुआ कि वह सरकार को ठीक से चलने नहीं देगी।
कई बार तो ऐसा लगता है जैसा कांग्रेस आम मतदाताओं से बदला ले रही है, जिसने उसे लोकसभा में मात्र चवालीस सीटों पर समेट दिया था। अन्यथा कई बार व्यर्थ के मुद्दों पर संसद को बाधित करने का औचित्य ही नहीं था। अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल का निर्णय तथा नेशनल हेराल्ड मामले में कोर्ट के सम्मन पर ही संसद करीब पूरे सप्ताह बाधित रही। इसके अलावा कभी दिल्ली के प्रमुख सचिव के कार्यालय पर सी.बी.आई. का छापा, कभी डीडीसीए का मसला आदि पर सदन में कार्यवाही नहीं हो सकी।
गुलाम नवी आजाद और मल्लिकार्जुन के बयानों से स्पष्ट है कि जिस प्रकार शीत सत्र चला, उसे लेकर इनके मन में कोई पछतावा नहीं है। ये अपने को पूरी तरह पाक-साफ मान रहे हंै। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि संसदीय परंपरा की सर्वाधिक जानकारी कांग्रेस को है। भाजपा सरकार के अलावा संसद को भी चलाना नहीं जानती है। लेकिन कांग्रेस जिसे अपनी जीत मान रही है, उसके राष्ट्रीय हित पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे की संभावना है। इस बात का जवाब भविष्य में उसे देना होगा। तब वह अपनी चालाकी व पूर्वाग्रह के लिए कठघरे में होगी। हंगामा पहले भी होता रहा है, लेकिन आज से पहले कभी राज्यसभा की भूमिका को लेकर इतनी शिद्दत से सवाल नहीं उठे थे। कांग्रेस की भूमिका ने नयी बहस शुरू की है।
क्या मतदाताओं के द्वारा नकार दी गयी पार्टी को विधायी प्रक्रिया इस प्रकार बाधित करने का अधिकार होना चाहिए। वस्तुत: जिस प्रकार हंगामा किया गया, उससे उच्च सदन अर्थात राज्यसभा की गरिमा नहीं बढ़ी है। राज्यसभा में हंगामा और विधेयकों का पारित होना दोनों पर प्रश्न उठ रहे हैं। पहले उस पहलू पर विचार करें, जिसके अन्तर्गत आखिरी तीन दिनों में बिना किसी चर्चा के अनेक विधेयक पारित कर दिए गए।
यहां कांग्रेस के सदस्यों को विचार करना चाहिए कि क्या वह संविधान निर्माताओं की इच्छा के अनुरूप आचरण कर सके।
क्या उनके इस कार्य से संविधान की भावना का सम्मान हुआ। उच्च सदन की स्थापना अभिभावक के रूप में की गयी थी। संविधान निर्याता चाहते थे कि राज्य सभा प्रत्येक विषय पर शान्तचित्त से विचार-विमर्श करेगी। लोकसभा यदि जल्द बाजी में कोई फैसला लेगी, तो राज्य सभा उस पर व्यापक विचार के बाद कमियों को दुरुस्त कर लेगी, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं होने दिया। इस मामले में सत्ता पक्ष को दोष नहीं दिया जा सकता। प्रत्येक विषय पर सरकार बहस को तैयार थी। कई विषयों पर तो उसने तत्काल बहस कराने का प्रस्ताव किया था, लेकिन इस प्रस्ताव को कांग्रेस सदस्यों ने स्वीकार नहीं किया। उसके सदस्य बेल में आकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध में नारे बुलन्द कर रहे थे। विधायी कार्य और विचार विमर्श से जरूरी उनकी नारेबाजी थी। सत्र समाप्त होने से तीन दिन पहले लगा कि ऐसी हरकतों से लोग नाराज होगे, इसलिए वह बिना चर्चा के विधेयक पारित करने को तैयार हो गयी।
देश के जन सामान्य ने संसद में कांग्रेसी सदस्यों की नारेबाजी देखी, लेकिन जो विधेयक पारित किए गए, उनपर उसके विचार नहीं जान सकी। क्या कांग्रेस के रणनीतिकार इसे अपनी सफलता मान सकते है, जबकि उसने विचारयुक्त नहीं वरन् हंगामा करने वाली पार्टी के रूप में उसे स्थापित किया है।
जीएसटी पारित होना अगला कदम है, लेकिन क्या यह ठीक नहीं होता कि इस पर चर्चा के प्रस्ताव को कांग्रेस स्वीकार करती। अधिकांश अर्थशास्त्रियों का विचार है कि जीएसटी का वह रूप जो सरकार ने पेश किया है, वह देशहित में है। कांग्रेस यदि असहमत है तो क्या उसे चर्चा में शामिल होकर अपने विचार देश को नहीं बताने चाहिए थे। सरकार चर्चा के लिए बुला रही थी, कांग्रेस भाग रही थी। वह हंगामे में समय बर्बाद कर रही थी। उस पर भी दावा यह कि संसद चलाना सरकार का दायित्व है। भाजपा संसद चलाना नहीं जानती।
क्या जनादेश लेकर आयी सरकार को अपना आर्थिक एजेण्डा लागू करने का अधिकार नहीं होना चाहिए, जबकि यह सरकार कोई घोटाला नहीं कर रही है। संप्रग सरकार के समय लाखों करोड़ रूपये के घोटालों पर कैग रिपोर्ट के कारण संसद बाधित होती थी, लेकिन आज अनावश्यक मुद्दों पर हंगामा किया जा रहा है।
इस हंगामे के अन्धकार में एक नई रोशनी भी छिपी है। भविष्य में संसद को इस पर भी विचार करना होगा। संविधान की व्यवस्था, भावना और जनादेश के अनुरूप कार्यवाही चलाने का कोई रास्ता निकालना होगा। व्यर्थ हंगामा रोकने के कठोर उपाय करने होंगे।
