अग्रलेख

सनातन संस्कृति में सह-अस्तित्व बोध
बलबीर पुंज
क्यामजहब के नाम पर होने वाले रक्तपात से मुक्ति का मार्ग है? विधर्मियों के कत्लेआम को मजहबी दायित्व बताने वाली मानसिकता पर क्या अंकुश लगाया जा सकता है? मध्यकालीन विचारधारा के सीरिया-इराक में फिर से जिंदा होने और उसके लिए दुनियाभर से मुस्लिम युवाओं का हिजरत कर जिहाद के जिए मरमिटने का जुनून मानवता के लिए अभिशाप है। प्रसिद्ध अमेरिकी राजनीति शास्त्री सैम्यूअल पी हटिंगटन ने सन् 1996 में 'सभ्यताओं के संघात' की जो आशंका जताई थी, क्या दुनिया तेजी से उसी विनाश की ओर अग्रसर है?
दुनिया को खिलाफत के नीचे लाने का मंसूबा रखने वाले आतंकी संगठन 'आईएस' ने पिछले दिनों उत्तरी सीरिया के प्राचीन शहर पालमीरा में बमबारी कर 'टेंपल ऑफ बेल' को तबाह कर डाला। दो हजार साल पुराना यह मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर की सूची में शामिल था। इससे पूर्व सीरिया के बालशमीन टेंपल को भी आईएस ने ध्वस्त कर दिया था। करीब चालीस सालों से पालमीरा के मंदिर की देखरेख कर रहे 81 वर्षीय पुरातत्वशास्त्री खालिद अल असद की भी आईएस ने पिछले दिनों हत्या कर दी थी। पिछले महीने आईएस ने एक वीडियो जारी किया था, जिसमें सीरिया के रोमन एंफीथियेटर में आईएस के नन्हें लड़ाकुओं को 25 सीरियाई सैनिकों का कत्ल करते दिखाया गया है।
पड़ोस का पाकिस्तान जहां इस उप महाद्वीप में आतंकवाद की पौधशाला बनकर उभरा है, वहीं अंत: मजहबी टकराव के कारण वहां निरंतर बमबारी और गोलीबारी की घटनाएं भी हो रही हैं। वहां इस्लाम के मानने वाले अपने ही मजहबी बंधुओं का सफाया कर रहे हैं। गैर मुस्लिमों का उत्पीडऩ और उन्हें पलायन के लिए मजबूर करना सामान्य बात है। भारत की कोख से निकले पाकिस्तान और बांग्लादेश में काफिरों (हिंदू-सिख) की आबादी करीब-करीब गौण कर दी गई है। 'सेकुलर भारत' में भी कश्मीर घाटी की संस्कृति के मूल ध्वजवाहकों, कश्मीरी पंडितों को खदेड़ भगाया गया। अब वहां बहुलतावाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
काफिरों का सफाया और काफिरों के प्रतीकों और मानबिंदुओं का ध्वंस कोई नया घटनाक्रम नहीं है। यह वीभत्स परंपरा सैकड़ों सालों से चली आ रही है। इस दर्शन के अनुयायियों द्वारा कई युद्ध लड़े गए और कई सभ्यताएं तबाह की गईं। विधर्मियों (काफिरों) का नरसंहार हुआ और उनके आराध्य स्थलों को तबाह किया गया। बुतपरस्तों के खिलाफ हिंसा अपने ईश के नाम पर, उनके ईशदूत और मजहब के नाम पर किया गया।
दुनिया के इस भाग में हमने यह त्रासदी लंबे समय से झेली है। भारत ने मजहबी असहिष्णुता को लगभग एक हजार वर्ष तक भोगा और जिया है। अपने जन्म के कुछ समय बाद ही ईसाइयत, शरणार्थियों के माध्यम से और बाद में इस्लाम व्यापारियों के रूप में, केरल के तट पर पहुंचे तो खुले हाथ से उनका स्वागत हुआ।
ईसाइयत के साथ भारत का संबंध चौथी सदी से है, जब ईरान से आर्थोडोक्स चर्च के ही उत्पीडऩ के शिकार ईसाई शरण लेने मालाबार के तट पर उतरे। ईसाई आक्रांताओं से त्रस्त होकर सीरिया और आर्मेनिया से आए ईसाई शरणार्थियों से भी यहीं उनका मिलन हुआ। हिंदू राजाओं और आम जनता ने न केवल उन्हें आश्रय दिया, बल्कि यहां स्थापित होने में उनकी समुचित सहायता भी की।
भारत में ईसाई मत लगभग 2000 वर्ष से है। कई सदियों तक ईसाई मत भारत के अन्य मत-मतांतरों के साथ पल्लवित-पुष्पित होता रहा। समस्या तब पैदा हुई, जब क्रूसेड के नाम पर पुर्तगीज, डच और अंग्रेज भारत के तटों पर उतरे और बर्बर तरीके से लोगों को मसीह के चरणों में शरण लेने के लिए बाध्य किया।
भारतीय परंपरा से टकराव की समस्या तब शुरू हुई, जब 13वी-14वीं शताब्दी में पुर्तगाली भारत में आए। उन्हें भारत में स्थापित ईसाई मत का यह स्वरूप, जो सहिष्णु होने के साथ ही किसी तरह से यूरोप से संचालित नहीं था और न ही वहां के रीति-रिवाजों को मानता था, पसंद नहीं आया। पुर्तगालियों के साथ रोमन कैथोलिक चर्च का प्रवेश हुआ। पुर्तगाल से संत फ्रांसिस जेवियर अपने मत प्रचारकों के साथ गोवा पहुंचे। बाद में दक्षिण भारत में भी सक्रिय हुए। 'संत' भारत की धरती से बुतपरस्ती को उखाड़ फेंक उसकी जगह ईसाइयत स्थापित करने के मजबूत इरादों के साथ आए थे। उनके द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों पर ढाए गए जुल्म इतिहास में दर्ज है।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर: राईटिंग एंड स्पीचेज के पांचवें खंड के पृष्ठ संख्या 434 से 441 में दोनों चर्चों के बीच के टकराव और कैसे रोमन कैथोलिक चर्च ने सीरियाई चर्च के अस्तित्व को खत्म करने की कोशिश की, उस पर विस्तार से चर्चा है। डॉन एलेक्सिज डि मेंडिस को गोवा का आर्कबिशप बनाया गया। उसकी शुरुआती नीति नए अनुयायी बनाने की बजाय पुरानों को अपने अधीन करना था। सेना के साथ दक्षिण की ओर बढ़ते हुए उसने सीरियाई चर्च को अपनी अधीनता स्वीकारने को कहा। प्रारंभिक प्रतिरोध के बाद मेंडिस की हिंसा को देखते हुए सीरियाई चर्च ने घुटने टेेक दिए। साम, दाम, दंड, भेद के साथ मेंडिस की मार्फत पोप का साम्राज्यवाद फैला।
उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ 437 पर लिखा है, ''मेंडिस का उत्पीडऩ बहुत ही मर्मांतक था- उसने पादरियों को उनकी पत्नी से अलग कर दिया, उनके बीच कोई संपर्क नहीं रहने दिया...ईसाई मत के प्रारंभिक सीरियाई संपर्क से संबंधित दस्तावेज नष्ट कर दिए।''
मेंडिस ने जहां ताकत चली, वहां ताकत के बल पर ही चर्च का प्रसार किया और जहां उसकी ताकत नहीं चली, वहां उसने तरह-तरह के हथकंडों का प्रयोग किया।
ब्रितानी शासकों की छत्रछाया में चर्च साम दाम दंड भेद के बल पर मतांतरण में सक्रिय रहा। सन् 1813 में इंग्लैंड की प्रोटेस्टेंट चर्च के दबाव में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में परिवर्तन करके कंपनी को कहा गया कि वह अपने संसाधनों से ब्रिटिश प्रोटेस्टेंट मिशनरियों को स्थानीय लोगों का मत परिवर्तन करने में सहयोग दे। फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने चर्च संबंधी अलग विभाग की स्थापना की और उसके माध्यम से चर्च के मतांतरण कार्यक्रम का भरपूर सहयोग किया। भारत में पोप का साम्राज्यवाद अभी भी उसी नीति पर पल्लवित हो रहा है। विदेशी धन के बल पर छल प्रपंच के द्वारा विधर्मियों को मतांतरित कर चर्च अपनी संख्या बढ़ाने में जुटा है।
इस्लाम के साथ भी भारत का अनुभव कटु रहा है। आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर अब तक भारत और उसकी बहुलतावादी सनातन संस्कृति पर लगातार बर्बर हमले होते रहे हैं। मु. कासिम के बाद मुहम्मद गजनी अंदर तक घुसकर लूटपाट और तबाही मचाता रहा। ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्ध में भारत पर आक्रमण से पूर्व गजनी के खलीफा पद पर पर मो. गजनी की जब ताजपोशी हुई तो उसने सार्वजनिक रूप से यह शपथ ली थी कि वह प्रतिवर्ष हिंद के काफिरों के खिलाफ जिहाद की जंग छेड़ेगा। दो सदी के बाद पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर मुहम्मद गोरी ने 1208 में दिल्ली सल्तनत की नींव रखी। तब से लेकर आज तक मजहबी कट्टरता भारत की बहुलतावादी संस्कृति को डंसती रही है।
मजहबी जुनून से प्रेरित होकर हमारी सनातन संस्कृति पर होने वाले निरंतर हमलों के कारण ही देश को कई बार अपने हिस्से खोने पड़े। कुछ सदियों पूर्व अफगानिस्तान इस सांझी संस्कृति से अलग हुआ तो 1947 में देश के रक्तरंजित विभाजन से मजहब के नाम पर पाकिस्तान का जन्म हुआ। देश को तब एक-तिहाई भूमि खोनी पड़ी। इसमें सिंधु नदी के तटीय क्षेत्र भी हैं, जिसके किनारों पर कालजयी सभ्यता व संस्कृति का विकास हुआ।
आज आतंकवाद को लेकर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश भले ही चिंता व्यक्त कर रहे हों, किंतु इतिहास में उनके कारनामों के स्याह पन्ने भी हैं। यूरोप में रोमन साम्राज्य की छत्रछाया में ईसाइयत ने मूर्तिपूजकों के साथ लड़ाई लड़ खुद को स्थापित किया। लिथुआनिया में 14वीं सदी तक मूर्तिपूजन विद्यमान था, किंतु ईसाइयत उसे निगल गई। वह एक बर्बर सामूहिक नरसंहार का दौर था, जब श्वेत ईसाइयत लेकर अमेरिका पहुंचे और वहां के निवासियों को ईसाई बनाया। आज भी अतेरिका में अश्वेतों के साथ भेदभाव और दमन की घटनाएं सामने आती रहती हैं।
विडंबना यह है कि पाकिस्तान जैसे देश, जहां लोकतंत्र अधिकांशत: सैन्य बूटों के नीचे पिसता रहा है, जहां मजहबी कट्टरवाद को पोषित कर गैर-मुस्लिमों से करीब-करीब छुटकारा पा लिया गया है और एक ऐसा देश, जो जिहाद के जहर से दुनिया को लहूलुहान कर रहा है, उसे अमेरिका से भारी वित्तीय मदद और संरक्षण मिलता है। अफगानिस्तान से सोवियत संघ को खदेडऩे के लिए अमेरिका ने जिस जिहादी जुनून को पोषित कर उसे सैन्य असलहों से लैस किया, वह आज तालिबान के रूप में सिर उठाकर दुनिया को रक्तरंजित करने और उसे इस्लाम के झंडे के नीचे लाने का खम ठोकता है।
गजनी, गोरी, संत जेवियर... भले ही इस दुनिया से चले गए, किंतु जिस लक्ष्य के लिए वे जिए, वह बदस्तूर जारी है। समय के साथ तकनीकी और रणनीति भले बदली हो, किंतु लक्ष्य अपरिवर्तित है- अपने ईश और ईशदूत को एकमात्र सत्य स्थापित करना और इसके लिए विधर्मियों का नाश। निरपराधों पर गोलियां बरसाने वालों, काफिर का सिर कलम करने वालों, बामियान में बुद्ध प्रतिमा और पालमीरा में मंदिर ध्वस्त करने वालों या प्रलोभन के बल पर आत्मा का कारोबार करने वालों की मानसिकता मजहबी जुनून से सिंचित है, जिसमें काफिरों, उनकी परंपराओं और पहचान मिटाने का जहर भरा है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई शस्त्र के साथ शास्त्र से लडऩे की आवश्यकता है। यही भारत के जीवन आदर्श और सनातन संस्कृति के संदेश की प्रासंगिकता भी बनती है।
भारत सनातन पंथ, बौद्ध, जैन, सिख और नाना मतमतांतरों की भूमि है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि इन सभी पंथों की अपनी पहचान है, किंतु यहां सभी शातिंपूर्ण सह अस्तित्व पर अगाध विश्वास रखते हैं। भारत में जन्मे मतों-पंथों में एक-दूसरे की विचारधारा और दर्शन के प्रति स्वत: श्रद्धा का भाव है। यही कारण है कि यहां पारसी और यहूदियों ने भी शरण ली। 'एकं सद् विप्रा: बहुधा वदंति,Ó परमात्मा तक पहुंचने के मार्ग भले अलग हों, किंतु ईश्वर एक है; भारतीय मूल के पंथों में बसे इस दर्शन को अपनाने पर ही मजहबी कट्टरता से मुक्ति संभव है।
