अग्रलेख

पाक प्रायोजित अलगाववाद
बलबीर पुंज
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति इन दिनों पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी, आईएसआई के निशाने पर है। प्रबंधन समिति ने पाकिस्तान स्थित गुरुद्वारों को आजाद कराने की आवाज उठाई है। आईएसआई अमेरिका और अन्य देशों में सिख भावनाओं की आड़ में भारत विरोधी मुहिम चलाने के लिए पंजाबी रेडियो स्टेशन और टीवी चैनलों का वित्तपोषण भी कर रही है। आईएसआई पोषित कई ऐसे संगठन भी विदेशों में सक्रिय हैं, जो सिख हितों के नाम पर सिखों से वसूली कर रहे हैं। ऐसी गतिविधियों का विरोध आईएसआई को रास नहीं आ रहा।
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति पाकिस्तान स्थित ऐतिहासिक गुरुद्वारों में वहां की सरकार के हस्तक्षेप का विरोध कर रही है। इन गुरुद्वारों को इवेक्यू ट्रस्ट बोर्ड से आजाद कराकर गुरुद्वारा प्रबंधक समिति को देेने के लिए दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधन समिति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास कर रही है। कुछ वर्ष पूर्व जब मैं ननकाना साहिब के दर्शन के लिए गया था, तब वहां के ग्रंथी ने मुझे बताया कि वहां के गुरुद्वारों पर आईएसआई का दबदबा है और वहां के चढ़ावे आईएसआई के खजाने में जाते हैं। आईएसआई ही खर्च का फैसला करती है। मेरे साथ आए सुरक्षा अधिकारी ने गुरुद्वारे की मर्यादा का सम्मान नहीं किया था। सिर नहीं ढकने पर मैंने कड़ा विरोध किया और उसे बाहर जाने को कहा। मेरी सख्ती के कारण ही ग्रंथी साहिब को उपरोक्त खुलासा करने की हिम्मत मिली।
अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तान के लाहौर शहर मेें सिख समुदाय को उनके गुरुद्वारे में धार्मिक समारोह मनाने से बलात रोक दिया गया था। सिखों के संगीत यंत्रों को बाहर फेंक सिखों के गुरुद्वारे में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी। लाहौर के नौलखा बाजार में शहीद भाई तरु सिंह संत की याद में एक गुरुद्वारा है। सिख संत को 1745 ई. में पंजाब के मुगल सूबेदार जकारिया खान के आदेश पर बर्बरतापूर्वक मार डाला गया था। प्रत्येक जुलाई माह में सिख उनकी शहादत के अवसर पर धार्मिक समारोह मनाते आए हैं। किंतु तब गुरुद्वारे के बाहर पुलिस बल तैनात कर दिया गया, ताकि सिख शबे बारात से पहले अपना धार्मिक समारोह नहीं मना पाएं। विभाजन के बाद उपरोक्त गुरुद्वारे का नियंत्रण शत्रु संपत्ति अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत एक बोर्ड के अधीन है। वहीं दावत ए इस्लामी का दावा है कि गुरुद्वारा 15वीं सदी के मुस्लिम संत पीर शाह काकू की मजार स्थल पर बनाया गया है। विभाजन से पूर्व लाहौर शहर की कुल आबादी में हिंदू-सिखों का अनुपात 70 प्रतिशत था। किंतु विभाजन और उसके बाद राजा गजनफर अली खान और फिरोज खान नून द्वारा छेड़े गए जातीय सफाए के कारण लाहौर में एक भी हिंदूसिख नहीं है। डेरा साहिब गुरुद्वारे में कुछ सेवादारों की उपस्थिति वास्तव में दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के समान है।
गैर मुस्लिमों के मजहबी स्वतंत्रता पर पहरा लगाने वाला पाकिस्तान सिखों की भावनाओं का दोहन कर वस्तुत: अपने भारत और इसकी सनातन संस्कृति विरोधी एजेंडे को ही साधना चाहता है। आईएसआई की साजिश का खामियाजा पंजाब सहित पूरे देश को दशकों भोगना पड़ा है। अलग खालिस्तान के लिए छेड़े गए अलगाववाद की आग में हजारों देशभक्त सिखों और हिंदुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी। उस अलगाववाद को खत्म करने के लिए की गई दुर्भाग्यपूर्ण व निंदनीय सैन्य कार्रवाई में स्वर्ण मंदिर की मर्यादा भी भंग हुई। आईएसआई के जाल में फंसना दुबारा उसी दौर को निमंत्रण देना है।
पंजाब वीर प्रसूता भूमि है, जहां शस्त्र और शास्त्र, दोनों की पूजा होती है। बाबर के जमाने से ही पंजाबी (हिंदू-सिख) इस्लामी आतंक के शिकार रहे हैं। मुगलिया इतिहास के अधिकांश पन्ने हिंदुओं और सिखों पर जुल्मों से भरे हैं तो संघर्ष, वीरता और धीरता सिख गुरुओं का इतिहास है। सिख मत की स्थापना गुरु नानक देव (1469.1538 ई.) ने की थी। दसवें गुरु गोविंद सिंह (1675.1708 ई.) हुए। गुरु नानक देव जी का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब भारत पर बर्बर इस्लामियों के कहर का एक और दौर चल रहा था। उन्होंने न केवल हिंदुओं की आराधना स्थलियों को रौंदा, बल्कि हिंदुओं का तलवार के दम पर मतांतरण भी किया और मजहब के नाम पर हजारों को मौत के घाट भी उतारा। उत्तर-पश्चिम सीमांत, सिंध सहित पंजाब इस्लामी अत्याचार से सर्वाधिक पीडि़त रहा। ऐसे समय में गुरु नानक देवजी ने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने का प्रयास प्रारंभ किया।
गुरु नानक के आह्वान पर जो उनके साथ आए, वे नानक के शिष्य कहलाए। वस्तुत: सिख शब्द की व्युत्पत्ति शिष्य से ही है। नानक देव अपने 'उदासीÓ पर थे, जब बाबर ने सैदपुर पर हमला कर भीषण रक्तपात मचाया। सड़कें खून से लाल थीं। मर्माहत नानक देवजी ने खूनी मंजर देख लिखा है, ''खुरसान खसमाना काया हिंदुस्तान डराया, आपे दोष न देईं कत्र्ता, जम कर मुगल चराया, ऐति मार पईं कुरलाने तैं कि दरद ना आया।
इस देश की बहुलतावादी सनातन परंपरा और धर्म की रक्षा में कई सिख गुरु मुगल शासकों की बर्बरता के शिकार हुए। जहांगीर (1605.1627 ई.) के आदेश पर पांचवें गुरु अर्जुन देव को मौत के घाट उतारा गया था। सिख परंपरा में गुरु अर्जुन देव जी पहले शहीद हैं। छठे गुरु हरगोविंद सिंह, नौवें गुरु तेग बहादुर भी गाजियों के हाथों शहीद हुए। हिंदुओं को जबरन इस्लाम कबूल करने के लिए औरंगजेब ने मुहिम छेड़ रखी थी। इस संदर्भ में कश्मीरी हिंदू गुरु तेग बहादुर की शरण में आए और परंपरा के अनुसार गुरुजी उनके साथ खड़े हुए। औरंगजेब ने पहले उन्हें ही इस्लाम में परिवर्तित करना चाहा। अपने धर्म का त्याग करने की बजाए गुरु तेग बहादुर ने अपना शीष कटाना पसंद किया। दसवें गुरु गोविंद सिंहजी को भी कुर्बानी देनी पड़ी, किंतु वे अपने धर्म से डिगे नहीं। उनके चारों सुपुत्र अपने पिता के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए शहीद हुए। गुरु गोविंद सिंहजी ने देशभर का दौरा कर मुगलों से लोहा लेने के लिए हिंदू-सिखों को जाग्रत किया। अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने वीर बंदा सिंह बैरागी को पंजाब जाने के लिए प्रेरित किया और दुष्टों के दमन का आदेश दिया। वीर बंदा सिंह बैरागी ने सफलतापूर्वक कुछ समय तक मुगलों से लोहा लिया, किंतु मुगलों की विशाल शक्ति के कारण धीरे-धीरे उनकी शक्ति क्षीण होती गई। 1716 में वीर बंदा सिंह बैरागी को बंदी बनाकर लोहे के बाड़े में कैद कर दिल्ली लाया गया और अत्यंत क्रूर तरीके से यातना देकर उन्हें मार डाला गया। हिंदू-सिख हुतात्माओं की एक लंबी शृंखला है, जिन्होंने अपने धर्म व जन्मभूमि की रक्षा के लिए अपना जीवन होम कर दिया। ऐसी विरासत वाले पंजाब में आईएसआई यदि अपने कुत्सित उद्देश्य में सफल होता है तो यह गुरुओं की शहादत का अपमान ही है।
पंजाब वह भूमि है, जहां के वीर सपूत लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तानी कमांडर नियाजी अपने 90,000 सैनिकों के साथ हाथ बांधे नतमस्तक खड़ा था। 1965, 1971, 1999 के कारगिल में भारत के हाथों पाकिस्तान को करारी हार का सामना करना पड़ा है। प्रत्यक्ष युद्ध में असफल होने के कारण ही पाकिस्तान देश के विभिन्न हिस्सों में अलगाववाद को बढ़ावा देकर भारत को हजार टुकड़ों में बांटने का सपना पाले बैठा है। किंतु जब तक देश पर मर मिटने वाले सपूत जिंदा हैं, पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकता।
