अग्रलेख

संसद का मानसून सत्र और भू-अधिग्रहण विधेयक

राजनाथ सिंह 'सूर्य'

नीति आयोग की बैठक के उपरांत जब वित मंत्री अरूण जेटली ने यह कहा कि अधिकांश राज्य भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन में हो रहे विलम्ब के कारण अपना स्वयं का भू-अधिग्रहण कानून बनाने के लिए मन बना रहे हैं, तो यह बात स्पष्ट हो गई कि भारतीय जनता पार्टी ने इस संकट से बाहर निकलने का रास्ता खोज लिया है। यहां यह तो सुनिश्चित है कि संसद के वर्षाकालीन सत्र में यह विधेयक पेश नहीं होगा, वहीं यह भी स्पष्ट होता जा रहा है, शायद ही यह संशोधन कभी भी संसद में आये। नरेंद्र मोदी ने विकास की जिस महत्वाकांक्षी योजनाओं को अंजाम देने की तैयारी की है, उसमें भूमि की उपलब्धता की प्राथमिकता है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में योजना आयोग की बैठकों तथा मुख्यमंत्रियों के सम्मेलनों में भू अधिग्रहण में 75 प्रतिशत भू-स्वामियों की सहमति के प्रावधान को तमाम मुख्यमंत्रियों द्वारा बाधक बताए जाने के कारण उन्हें उम्मीद थी कि इस प्रावधान को हटाने के संशोधन को सबका समर्थन मिल ही जायेगा। लेकिन राजनीतिक मानसिकता का आंकलन करने में उनसे चूक हो गई। यही नहीं तो उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच, किसान संघ और मजदूर संघ से भी संभवत: समुचित परामर्श नहीं किया जो प्रारम्भ से ही इस संशोधन के विरोध में मुखरित थे। यह एक तथ्य है कि चाहे जितनी अपरिहार्यता हो कोई भी अपनी भूमि देने की मानसिकता नहीं रखता। यह भी सही है कि जिन कार्यों के लिए सहमति की अपरिहार्यता हटाने का प्रस्ताव है, वे ग्रामीण विकास में सहायक होंगे, लेकिन ''पूंजीपतियों के लिए भू-अधिग्रहणÓÓ का ऐसा प्रचार हुआ कि उसे सच मान लिया गया। जबकि संशोधन से ऐसा लाभ उन्हें मिलने की कोई संभावना नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने अपना पक्ष रखने का प्रयास किया जब ''पूंजीपतियों के लिएÓÓ अधिग्रहण का प्रचार हावी हो चुका था। कुप्रचार को आंदोलन का स्वरूप प्राप्त हो गया। भाजपा ने कुआं खोदना शुरू किया जब कुप्रचार की आग पूरी तरह से फैल चुकी थी। इस आंदोलन के प्रभाव का आंकलन करने में भाजपा से जबरदस्त चूक हुई है। उसे अब यह समझ में अवश्य आना चाहिए कि देश का जो राजनीतिक माहौल है, उसमें मुद्दा गौड़ हो चुका है। कुछ राजनीतिक दल सुलहतन और कुछ विवशता के वशीभूत होकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व का प्रभाव चलाने के लिए ही वह कदम उठा रहे हैं जिससे भारत की बढ़ती मान प्रतिष्ठा को आघात लगे। पिछले एक वर्ष में कांग्रेस ने आतंक के मामले में ऐसे बयान दिए हैं जिससे पाकिस्तान को मदद मिली है। जो क्षेत्रीय दल है और जिनकी यह आकांक्षा भी है कि मोदी सरकार का विकास मंडल आगे बढ़े, वे वोट बैंक की राजनीति के वशीभूत हैं।
भाजपा को विरोध की इस मानसिकता को समझने में चूक कैसे हुई। क्या इसका यह कारण है कि उसे विश्वास था कि जिस प्रकार लोकसभा चुनाव में अवाम ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताकर उसे पूर्ण बहुमत की सरकार दी, उसी प्रकार उसके प्रत्येक कदम का समर्थन भी करेगी? क्या इस भ्रम के कारण उसने विरोधी प्रचार की आंधी की उपेक्षा की। यही नहीं तो उसने संघ परिवार के संगठनों की-जिसने उसे सत्ता में बैठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी-के अभिमत को अभिव्यक्ति मात्र समझकर उसकी उपेक्षा की। यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी आज भी देश के सबसे विश्वसनीय और लोकप्रिय नेता हैं। कतिपय घटनाओं और कांडों के बावजूद दूसरा कोई भी नेता, कितनी भी उठक बैठक कर ले उनके पास पहुंचने में सक्षम नहीं है। ऐसे समय में भाजपा की प्राथमिकता अपने नेता की छवि को धूमिल होने से बचाना होना चाहिए। भू-अधिग्रहण संशोधन के सम्बन्ध में पार्टी के अधिकांश सांसद अपनी अभिव्यक्ति करने से बचते रहे जबकि उन्हें माहौल के विपरीत होते जाने का आभास हो रहा था। यह समझ में आना कठिन है कि ये सांसद या अन्य नेता जो अभिमत व्यक्तिगत बातचीत में व्यक्त कर रहे थे, या आज भी करते हैं, उसे उचित फोरम पर उपयुक्त लोगों के समक्ष प्रगट करने से क्यों कन्नी काट रहे हैं। भाजपा का लोकतंत्र में आस्था का दावा है और ठीक भी है कि वह समर्पित कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी पार्टी है। ऐसे में कांग्रेस की जो ठकुर सुहाती ले डूबी है, उसकी यदि भाजपा में झलक मिलती है, तो यह मानना पड़ेगा कि लोकसभा में जीत का खुमार अभी भी छाया हुआ है। भाजपा के सामने जहां दुष्प्रचार के मुकाबले की चुनौती है, वहीं अपने कैडर में शंकालु होने की भावना से बचाने की भी है। शायद दूसरा पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है। नरेंद्र मोदी के प्रति पूर्ण विश्वास ने भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत तो दिलाया है, लेकिन उस साख को सुदृढ़ किए बिना दुष्प्रचार की आंधी से बच पाना मुश्किल है। इसके लिए जहां नरेंद्र मोदी द्वारा व्यक्तिगत आचरण की शुचिता की मुहिम के प्रति आचरण से आस्था बढ़ाने की जरूरत है, वहीं यह भी आवश्यक है कि उन मुद्दों में उलझने से बचा जाय, जो दुष्प्रचार को बल प्रदान करती है। मोदी ने जैसे राम मंदिर आदि मुद्दों पर असमय मुखरित होकर प्रचार पाने की होड़ पर अंकुश लगाया है, वैसे ही सरकार को उन निर्णयों को टालना होगा, जो इसके लिए अवसर प्रदान करते हैं। भूमि अधिग्रहण संशोधन एक ऐसा ही मुद्दा है, जिसे समय से पूर्व प्राथमिकता में दे दिया गया।
एक तथ्य बहुत स्पष्ट है। भूमि-अधिग्रहण पूरी तरह से राज्यों के अधिकार में आता है। यदि प्रस्तावित संशोधन संसद पारित भी कर देती है तो भी उसका राज्यों में लागू होना अपरिहार्य नहीं है। केंद्रीय परियोजनाओं के लिए भू-अधिग्रहण राज्य सरकार ही करती है। लखनऊ और दिल्ली में प्रस्तावित रिंग रोड के लिए केंद्र ने राज्यों से ही भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया है और अमेठी से फूड पार्क या कागज मिल हटाने का निर्णय राज्य द्वारा भूमि उपलब्ध न करा सकने के कारण किया गया है। स्वयं केंद्रीय सरकार ने भी यह स्पष्ट किया है कि संशोधन तभी लागू होगा जब राज्य उसे लागू करना चाहे। उपयुक्त तो यह होता कि ग्रामीण औद्योगीकरण या आवास योजना का निर्धारण कर केंद्र राज्यों से भूमि उपलब्ध कराने का प्रस्ताव करती-जो उसे हर हालत में करना ही पड़ेगा। वित मंत्री जेटली ने स्वयं भी कहा है कि जो राज्य विकसित होना चाहते हैं, वे संशोधन में विलम्ब से असंतुष्ट होने के कारण अपने राज्य में स्वयं कानून बनाना चाहते हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल तो खुलकर पंजाब के लिए कानून बनाने के पक्ष में उतर गए हैं। भाजपा सरकार की एक अन्य साझेदार शिव सेना, इस कानून के खिलाफ पहले से ही खड़ी है, उसके कारण यद्यपि कुछ और ही हैं। पहले से दूसरे स्थान पर पहुंचने से वह उसी तरह दग्ध है जैसे इतने अर्से बाद सत्ता से धुर विरोधी दल की औकात भी न पा सकने के कारण कांग्रेस। भाजपा को इस स्थिति का संज्ञान लेना होगा कि राजनीतिक माहौल में सबका साथ और सबका विकास का माहौल बनने में अभी समय लगना है। इसके लिए यह आवश्यक है कि चाहे जितना महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों न हो, अन्य सभी दलों को एकजुट होने के अवसर से उन्हें वंचित रखना होगा। भाजपा को यह समझकर चलना होगा कि सुधारों या विकास के लिए जब तक राज्यसभा में वह अल्पमत में है, संसद का मार्ग बाधित ही रहेगा क्योंकि जैसा राहुल गांधी ने कहा है, वे अपने मुद्दे के अलावा संसद को नहीं चलने देंगे। भाजपा को चाहिए कि वह संसद के बिना जिन सुधारों और विकास को अंजाम दिया है उसे आगे बढ़ाए। जैसे जनधन योजना, अटल पेंशन, प्रधानमंत्री जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा योजना, सब्सिडी का उपभोक्ता और लाभार्थी के खाते में सीधे स्थानान्तरण, स्वच्छता तथा शौचालय अभियान। इन योजनाओं से केवल वंचित वर्ग को लाभ पहुंचेगा, भ्रष्टाचार कम होगा, संसाधन की बचत होगी, और विरोधियों को हमले के अवसर कम होंगे। किसी नीति का कल्याणकारी होना ही उसकी स्वाभाविक स्वीकृति की गारंटी नहीं है। उसके बारे में अभिमत (परसेप्शन ) क्या बनता है यह भी आवश्यक है। विपक्षी दलों के बीच भयंकर अंतर्विरोध है लेकिन वह छिप जा रहा है एक मंच पर आने का अवसर मिलने पर। जहां तक भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का सवाल है, उसमें राज्य की स्थिति का जो संज्ञान अब लिया जा रहा है, उसका प्रारम्भ में ही लिया जाना चाहिए था। भू अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश भाजपा के लिए गुनाह बेलज्जत ही साबित हुआ है।

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