ज्योतिर्गमय
सिक्कों की चमक
अतिका राज्य के नगर सेठ उदयमल नियमित दान दिया करते थे। लेकिन जब वे भिक्षुओं की झोली में अन्न डालते, तब अपने हृदय की झोली में देने का घमंड भी डालते जाते थे। उनकी इच्छा थी कि अपने दान के कारण वे राजा भोज और भामाशाह की पंक्ति में गिने जाएं। संयोग से राजकुमारी के विवाह के अवसर पर आभूषण बेचने से सेठ को काफी लाभ हुआ। एक दिन सेठ ने अपनी माता के सामने लाखों के मुनाफे का बखान किया।
सेठ की मां बड़ी सरल और साधारण थीं। बोलीं- बेटा, क्या एक लाख सिक्के एक संदूक में आ जाते होंगे? सेठ ने कहा- नहीं मां, उससे भी अधिक होते हैं। मैं कल ही उनका ढेर लगवा दूंगा। देख लेना कितने होते हैं। दूसरे दिन हवेली के आंगन में लाख सिक्कों का ढेर लग गया। सेठ की मां ने जीवन में पहली बार चांदी के चमकते सिक्कों का इतना बड़ा ढेर देखा था। उनकी आंखें चमचमा उठीं और वह ढेर के ऊपर जा बैठीं।
मां को खुश देख सेठ बोले-मेरी इच्छा है कि मैं राज पुरोहित को बुला कर यह विशाल धन उन्हें दान करूं। इससे मेरे दान की महिमा राजदरबार तक पहुंचेगी। लोग मुझे उपाधियां देने आएंगे। सेठ ने राज पुरोहित से कहा- राजपुरोहित जी! मैं ये लाख सिक्कों का ढेर आपको दान देना चाहता हूं। ऐसा दान आपने किसी हवेली में देखा-सुना न होगा। सेठ का अभिमान उनके चेहरे पर चमक रहा था।
राज पुरोहित की विद्वता और ज्ञान को सेठ का यह अभिमान सहन नहीं हुआ। उन्होंने अपनी जेब से एक सिक्का निकाला और ढेर पर डाल कर कहा- सेठ जी! आपके सिक्कों के ढेर पर अपना भी सिक्का देकर इन सब को त्यागता हूं। फिर उन्होंने जोर से कहा- सेठ जी! आपने भी इतना विशाल त्याग कहीं देखा-सुना न होगा। यह कहकर राजपुरोहित चले गए। सेठ अवाक देखते रहे।